सैन्य इतिहास जब लिखे जाते हैं, बहुधा वरदीधारी फौजियों को बेखौफ जाँबाजों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो देश के लिए जान ले भी सकते हैं और जान दे भी सकते हैं। कुर्बानी का महिमामंडन होता है और शहादत की इबादत होती है। बिगुल की पुकार सुन एक फौजी के दिल और दिमाग पर क्या गुजरती है, इसके बारे में हमें कोई नहीं बताता। जब मैंने यह पुस्तक ‘1971 युद्ध में गोरखाओं की साहसिक कहानियाँ’ लिखनी शुरू की, मुझे पता था कि मैं उन मानवीय किस्सों पर अपना ध्यान केंद्रित करने जा रही हूँ, जिन्हें परंपरागत युद्ध इतिहासकार छोड़ दिया करते हैं। मैंने यही कार्य करने का प्रयत्न इस पुस्तक में किया है।
इन पन्नों में बेइंतहा हौसले के किस्सों के साथ-साथ आपकी मुलाकात उन लोगों से भी होगी, जिन्होंने भयानक डर, पछतावे और सदमे को महसूस किया। आप उन फौजियों से मिलेंगे, जो डरे हुए थे, कमजोर थे, अंदरूनी टकराव का सामना कर रहे थे और बावजूद इन सबके, जो आगे बढ़े और वह किया, जो उनके विश्वास के अनुसार सही था। मेरे लिए वे भी नायक हैं, हीरो हैं।
मेरी मुख्य कहानी ‘गोरखाओं का हमला’, 4/5 गोरखा राइफल्स के शूरवीर योद्धाओं की कहानी है, जो अपने हाथों में नंगी खुखरियाँ और जबान पर ‘जय महाकाली, आयो गोरखाली’ का युद्धघोष करते हुए मशीनगन से सुदृढ़ दुश्मनों की एक पोजीशन पर हमला बोल देते हैं। मैंने जब अपना अंतिम ड्राफ्ट कर्नल एम.एम. मलिक (उम्र 80) को भेजा, उन्होंने इ-मेल में जवाब देते हुए मुझे लिखा कि यह कहानी उन्हें 1971 में ले गई और उनमें इतना जोश भर गई कि वे फौरन अपना फील्ड बैग लिये जंग के मैदान में जाने को और वहाँ अब भी गर दुश्मन मौजूद हुआ, उसपर हमला बोलने को तैयार हो गए थे। कर्नल वाई.एस रावत ने (उम्र 81) मुझसे कहा कि उन्हें इसका कोई पछतावा नहीं था कि जंग में वे अपनी एक टाँग गँवा बैठे थे और मौका मिलने पर वे फिर अपने देश के लिए सहर्ष युद्ध करने को तैयार हैं, भले ही उसमें उन्हें अपनी दूसरी टाँग भी क्यों न गँवानी पड़े!
‘टांगाइल में रक्तरंजित’ एक ऐसे युवा फौजी की कहानी है, जो एक पैराट्रूपर बनना चाहता है, वही कभी हवाई जहाज पर नहीं चढ़ा, मगर अपने यूनिट के साथ हमले पर जाने की जिद पर अड़ा हुआ है, जिनको दुश्मनों के इलाके में एयरड्राप (पैराशूट से उतरना) होना है। ‘मिठाई का डब्बा’ एक सिख अफसर की कहानी है, जो एक अजीब नैतिक पशोपेश में पड़ जाता है, जब एक गंभीर रूप से जख्मी पाकिस्तानी युद्धबंदी उनसे अपनी रिहाई की माँग करता है, ताकि वह अपने घर लौट सके और अपने बीमार बच्चे की तीमारदारी कर सके। ‘दुश्मन के इलाके में’ एक ऐसे नौसैनिक गोताखोर की कहानी है, जो निरीह बंगालियों पर हो रहे अत्याचारों से इस कदर खफा है कि आदेश के खिलाफ अपनी जान खतरे में डाल और कोर्ट मार्शल का जोखिम सिर पर लिये सरहद पार करने का निश्चय कर लेता है।
‘लापता’ कहानी मेरे दिल के सबसे करीब है। यह एक बहादुर लड़ाकू पायलट की कहानी है, जिसका हवाई जहाज पाकिस्तान में दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। मेरे लिए इस कहानी का नायक सही अर्थों में उसकी युवा पत्नी है, जो सालों तक इस विश्वास के संग जीती है कि उसका पति जिंदा है और पिछले पचास सालों से यह मालूम करने में लगी हुई है कि उनके साथ आखिर हुआ क्या था? मैंने जब उनके इस धैर्य पर हैरानी जताई, मुसकराते हुए उन्होंने मुझसे कहा, “प्रतिष्ठान के लिए वे महज एक फाइल हो सकते हैं, मेरे लिए मेरे पति हैं, जिनसे मैं प्यार करती हूँ। अगर उनके लिए मैं नहीं करूँगी तो कौन करेगा?”
यह कहानी इस बात का तकाजा है कि हर वो फौजी, जो जंग के मैदान से घर वापस लौटा, उसका एक साथी ऐसा भी था, जो नहीं आया। मेरी यह दिली ख्वाहिश है कि इन कहानियों के जरिए उनकी याद जिंदा रहे, क्योंकि फौजी जंग के मैदानों में नहीं मरा करते, एक फौजी की मौत तब होती है, जब एक नाशुक्र मुल्क/कृतघ्न देश उसकी कुर्बानियों को भुला देता है।
-रचना बिष्ट रावत.
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1971 युद्ध में गोरखाओं की साहसिक कहानियाँ
लेखक : रचना बिष्ट रावत
पृष्ठ : 200
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
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