युवा साहित्यकार डॉ. सुनीता का कविता संग्रह ‘शंख पर असंख्या क्रंदन’ प्रकाशित हुआ है। इसका प्रकाशन अद्विक पब्लिकेशन ने किया है। डॉ. सुनीता की कविताओं में मानव समाज में व्याप्त लैंगिक, आर्थिक और कई तरह की असमानताओं के साथ नारी और निर्धन वर्गों के शोषण का मार्मिक वर्णन है। काव्य-शैली और प्रयुक्त शब्दावली पाठक को गहरे तक झकझोरती है। नारी उत्पीड़न और करुण क्रंदन पर कई कविताओं में तो बिल्कुल सजीव चित्र इस तरह खींचा गया है कि जैसे कवयित्री इसमें स्वयं जीती रही हों। उनका नारी सुलभ स्वभाव स्वतः ही ऐसी संवेदना से विलग नहीं रह सकता।
भक्तिकाल की मीरा और उसके बाद की महादेवी वर्मा ने नारी मनोदशा पर बहुत कुछ संवेदनशील काव्य सृजन किया। नारी मन की विरह वेदना पर उनकी निसंदेह उत्कृष्ट रचनायें हमारे सामने हैं। उनसे डॉ. सुनीता के काव्य की तुलना एक अलग विषय होगा फिर भी डॉ. सुनीता की कविताओं को शब्द विन्यास और भाषा-शैली उनकी एक सबसे अलग चीज़ है। यहाँ आधुनिक कविता शैली में वे बहुत ही स्पष्ट तौर पर सामूहिक परिवेश में अपने उद्गार व्यक्त करती हैं। उनका एक अलग काव्य-जगत है जो कम से कम शब्दों में एक विराट परिदृश्य को पाठक के मस्तिष्क में उतारने में सक्षम है। थोड़े शब्दों में उनकी कविताओं के बारे में नहीं कहा जा सकता। उनके काव्य-संग्रह को पढ़ा जाए तभी पाठक उसे समझ पाएगा।
‘गण का तंत्र’ शीर्षक से लिखी कविता की ये पक्तियाँ देखें :
अब हम किसे दें शुभाकामना संदेश?
उस तिरंगे को, जिसके तीन रंग अपने मायने खो रहे हैं
या उसके सम्मान में मरने वालों की आत्माओं को
जो भटक कर आ गई हैं शहरों के जंगल में
जहाँ मनुष्य ही तब्दील हो गया है
कई तरह के जानवरों में।
‘शंख पर असंख्य क्रंदन’ कविता से निम्न पंक्तियाँ देखें :
वक़्त ने करवट बदली स्थिर पहाड़ हिल उठे
सोई नदी में उफान आया
बंद सीपी के मुख खुल गए
काई जमाई ज़मीनें बोल पड़ीं
अब गोलबंद हैं हम!
यह दुनिया नहीं रोक सकती है हमें किसी शर्त
देह, इज़्ज़त और संस्कार के नाम पर
दरअसल अब दंतकथाओं के पार
यथार्थ-कथा की नदी कल-कल बह चली है।
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शंख पर असंख्य क्रंदन
लेखक : डॉ. सुनीता
पृष्ठ : 156
प्रकाशक : अद्विक पब्लिकेशन
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