उत्तर-उदारीकरण के आन्दोलन : कमज़ोर होना परम्परागत सामाजिक और राजनीतिक प्रणाली का

उत्तर-उदारीकरण के आन्दोलन

पिछली सदी के 90 के दशक में उदारवाद और भूमण्डलीकरण के सूत्रपात के साथ समाज में बड़े आर्थिक बदलाव आये। विकास की इस नयी बयार ने बड़ी संख्या में लोगों की उन मूलभूत चिन्ताओं रोटी, कपड़ा और मकान से उबारा जो सदियों से चली आ रही थी। भारत में भी हरित क्रान्ति से पहले देश की क़रीब 70 फ़ीसदी आबादी की पहली चिन्ता रोटी थी। ग्लोबलाइजेशन और वैश्वीकरण ने दुनिया की दिग्गज मल्टीनेशनल कम्पनियों के लिए भारत के दरवाज़े खोल दिये गये। ये कम्पनियाँ निवेश लेकर आयीं। आधारभूत ढाँचे में सुधार हुआ। बड़े पैमाने पर रोज़गार के नये अवसर सृजित हुए। रोटी और कपड़े की चिन्ता दूर होने से सरोकार भी बदले। समाज में चर्चा का विषय ग़रीब और ग़रीबी की जगह उपभोक्तावाद हो गया। जूते, कपड़ों की नहीं उनके ब्रांड की बात होने लगी। रोटी का मतलब भी सिर्फ़ रोटी नहीं रह गया। पिज्जा, बर्गर, नूडल्स और कॉन्टिनेंटल खाने तक अब निम्न मध्यमवर्ग की पहुँच हो गयी थी। जब इस वैश्वीकरण के इतने लाभ थे तो फिर इसे विफल कैसे कहा जा सकता है? अगर यह विफल नहीं है तो समाज में नये तरह के तनाव क्यों पैदा हो रहे हैं? समाज में कुछ वर्गों का रह-रहकर आन्दोलित हो उठना, क्या नये वर्ग संघर्ष का प्रतीक नहीं है? क्या यह संघर्ष भूमण्डलीकरण की विफलता का प्रतीक नहीं है? भूमण्डलीकरण की विफलता ने समाज में नये तनाव कैसे पैदा किये? 

अमेरिका के पूर्व विदेश मन्त्री हेनरी किसिंजर ने भूमण्डलीकरण को अमेरिकीकरण कहा है। उनके अनुसार भूमण्डलीकरण संयुक्त राज्य के आधिपत्य का ही पर्यायवाची है। दुनिया के पास भूमण्डलीकरण के प्रवाह में बहने के अलावा कोई चारा नहीं है। इस ख़याल को आख़िरी तौर से मान लेना कि दुनिया का भविष्य राष्ट्र आधारित, लोकतन्त्रों में निहित न होकर किसी ग्लोबल गवर्नेस ग्लोबल डेमोक्रेसी की शीर्ष संरचना में निहित है, ही भूमण्डलीकरण है। हेनरी किसिंजर ने 5 अक्तूबर 2001 को ‘द ग्लोबलिस्ट’ में एक लेख लिखा था  ‘भूमण्डलीकरण का जुआ’ (ग्लोबलाइजेशन गैम्बल)। इसकी शुरुआत उन्होंने इस बात से की कि जो वैश्विक प्रणाली है वह इसके भागीदारों को आर्थिक नज़रिये से परखकर ही इनाम देती है या दण्डित करती है। वैश्विक प्रतियोगिता से पार पाने के लिए विकासशील देशों के नेता अपनी अर्थव्यवस्था को पुनर्गठित करने के लिए अपनी पूरी राजनीतिक ताक़त लगा रहे हैं ताकि औद्योगिक लागत कम हो सके। इसके लिए बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की छँटनी को भी स्वीकार किया जा रहा है। वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि आज का यह बलिदान भविष्य में बड़े लाभ बनकर सामने आयेगा। मगर यह सब एक राजनीतिक और आर्थिक मरीचिका है। वायदा इतनी दूर का है कि जब इसके लाभ आयेंगे (अगर आये तो) तब तक तो ये नेता कहीं परिदृश्य में नहीं होंगे। भूमण्डलीकरण की इस प्रक्रिया में ज़्यादा से ज़्यादा समाजों (देशों) के हिस्सा लेने और शामिल होने की मुख्य वजह यह है कि उन पर दबाव है। अमेरिकी सरकार और वित्त तथा अर्थ क्षेत्र के दुनिया के प्रमुख संस्थानों द्वारा उन्हें न सिर्फ़ पूरी ताक़त से प्रोत्साहित किया जा रहा है, बल्कि उन पर भूमण्डलीकरण में शामिल होने के लिए दबाव भी डाला जा रहा है। यह अमेरिकी मॉडल है और इसे अपनाने में पहली नज़र में किसी को कोई तकनीकी चुनौती नहीं दिखती। कम्युनिज़्म की हार को एक दशक से ज़्यादा समय हो गया है, मगर चीन की प्रगति आश्चर्यजनक है । दक्षिण एशिया और लेटिन अमेरिका भी इसका अच्छा उदाहरण है। मगर विकासशील देशों में इसके दुष्प्रभाव भी सामने आ रहे हैं। बढ़ते औद्योगीकरण की वजह से लोग गाँवों से खिंचकर शहरों में आ रहे हैं। इससे परम्परागत राजनीतिक व सामाजिक सुरक्षा की प्रणाली कमज़ोर हुई है । इससे राजनीति में कट्टरपन्त बढ़ा है और राजनीति धार्मिक रूप से रूढ़ हो रही है । (Henry A. Kissinger, The Globalization Gamble, The Globalist, 5 October 2001)  

उत्तर-उदारीकरण के आन्दोलन

उदारवाद के साथ ही भारत में भी कई ऐसे बड़े लक्षण प्रकट हुए, जिन्होंने भविष्य में नयी समस्याओं को जन्म दिया। 90 के दशक में आर्थिक विकास दर बढ़ने के साथ ही एक बड़ी आबादी की पेट की चिन्ता कम हुई तो देश में धर्म और जाति से जुड़े मुद्दों को लेकर समाज के विभिन्न वर्गों में एक अलग तरह की चेतना जाग्रत हुई। लोग धर्म और जाति के नाम पर तेज़ी से एकजुट हुए। यह एक नये दौर का भारत था। यह समाज में एक नए तरह का ध्रुवीकरण था, जो लगातार बढ़ रहा था। प्रवचन करने वाले बाबाओं, मौलवियों और स्वयंभू गुरुओं, बापुओं की बाढ़ आ गयी, जो दोनों हाथों से पैसा बटोर रहे थे। इसी दौर में ऐेसे बाबा पैदा हुए जो समोसे को हरी चटनी या लाल चटनी से खाने की सलाह देते और ऊपर वाले की कृपा  ऐसे बरसेगी के उपाय बताते। कई राज्य स्तर के ऐसे बाबा पैदा हुए जिन्होंने ग़रीबों को पहले आश्रम में काम पर रखा, फिर उसकी पत्नी, बेटी का शोषण किया और बाद में उसकी छोटी मोटी जो भी ज़मीन थी, आश्रम के नाम करवा ली। और लोग यह सब इसलिए कर रहे थे ताकि जल्दी से पैसा आये, अमीर कहलायें, पिजा खायें और हर आदमी बड़का आदमी बन जाये। हरित क्रान्ति से धन का जो थोड़ा प्रवाह गाँवों की ओर बढ़ा उसने गाँवों में वंचित तबकों में भी जातीय बोध को और मज़बूत किया। इससे जाति उत्थान के आन्दोलनों को बल मिला। जाति ने लोगों को एकजुट किया और इसे राजनीतिक सत्ता हासिल करने का ज़रिया बनाया गया। सत्तर के दशक के उतरार्ध में पनपा यह जातीय राजनीति का बोध नब्बे के दशक में चरम पर रहा और इसने कांशीराम, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, पंजाब और हरियाणा में जाट नेता, महाराष्ट्र में मराठा राजनीति के नायक बाल ठाकरे और शरद पवार तथा दक्षिण में भी क्षेत्रीय दलों को तेज़ी से उभरने में मदद की थी। यहीं से राष्ट्रीय राजनीति करने वाले दल कम्युनिस्ट और कांग्रेस का क्रमिक पतन भी शुरू हुआ। इसी दौर में धर्म की राजनीति ने भी ज़ोर पकड़ा। हिन्दू और हिन्दुत्व की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना उत्तर भारत में नयी ताक़त के रूप में उभरे। 1998 में भाजपा जब केन्द्र की सत्ता में आयी तो इसके नेता व प्रधानमन्त्री बने अटल बिहारी वाजपेयी ने उस दौर को भारत का दूसरा धार्मिक पुनर्जागरण काल कहा।    
 
भूमण्डलीकरण के साथ आये सामाजिक बदलाव ने जनआन्दोलनों की प्रवृत्ति और आवृत्ति दोनों पर असर डाला। यह उदारवाद श्रम शक्तियों के लिए बड़ा ही कठोर साबित हुआ।  इसने मज़दूर और श्रमिक की बात करने वाले आन्दोलनों को ख़त्म कर दिया। अत्याधुनिक मशीनों की आमद ने कारीगर की कुशलता को पूरी तरह अनुपयोगी बना दिया था। श्रमिकों के संगठित क्षेत्र को ठेकेदारी प्रथा से विघटित कर असंगठित क्षेत्र में बदला जाने लगा। सरकारी काम ठेके पर दिये जाने लगे। ट्रेड यूनियनें कमज़ोर ही नहीं हुईं, ख़त्म होने लगीं। ठेकेदारों के कर्मचारी अधिकांश असंगठित क्षेत्र से थे। इस तरह संगठित श्रमिकों के रूप में जो राजनीतिक ताक़त बनती थी, वह जाती रही। मज़दूर जो पहले संगठित था, वह किसी ठेकेदार के नौकर और कर्मचारी के रूप में एक इकाई में बिख़र गया। इस तरह श्रम से जुड़ी शक्तियों को विखंडित करना दुनिया के कार्पोरेट उदारवाद की सबसे बड़ी जीत थी। भूमण्डलीकरण के रास्ते में मज़दूर ही सबसे बड़ी बाधा थे, जो कार्पोरेट जगत से सीधा लोहा लेते थे। वेतन बढ़ाने और बोनस के लिए लगातार आन्दोलन करते थे।

इस बात का एक बड़ा प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि नब्बे के दशक के बाद वेतन, बोनस के लिए कर्मचारियों का कोई बड़ा आन्दोलन कहीं सुर्खियों में नहीं दिखता। हालाँकि सरकारी क्षेत्र में लगातार रोज़गार के अवसरों में कटौती की गयी मगर इसका कोई ऐसा विरोध नहीं दिखा जो सरकार को नीति बदलने के लिए मज़बूर करता। निजीकरण के ख़िलाफ़  और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय के ख़िलाफ़ कुछ कर्मचारी आन्दोलन अवश्य हुए मगर ये एक-दो दिन की बेअसर हड़ताल से आगे नहीं बढ़े। उनको बाँधे रखने की विशेष नीति प्रबन्धन ने तैयार की। उनकी बहुत सारी सुविधाएँ काट कर  वेतन वृद्धि का एक अंश बढ़ाया जाता रहा। इससे वे भी चुप से ही रहे ।

उत्तर-उदारीकरण के आन्दोलन
 
इस दौर में ऐसा ही हाल किसान आन्दोलनों का हुआ। महेन्द्र सिंह टिकैत के बाद उत्तर भारत के किसान आन्दोलन भी कमज़ोर पड़ते गये। दूसरी ओर मण्डल और मन्दिर आन्दोलन लगातार चले और कई बार काफ़ी उग्र हुए। बहुत से लोगों की जान भी गई। जाति केन्द्रित आन्दोलनों में हरियाणा का जाट आरक्षण आन्दोलन, राजस्थान का गुर्जर आन्दोलन भी उल्लेखनीय है।

उदारवाद के साथ ही गाँवों से शहरों की ओर पलायन भी तेज़ हुआ। पलायन ने एकल परिवारों को बढ़ाया। इस पलायन ने सामाजिक मुद्दों पर समाज में एकजुट होकर फ़ैसले लेने की ताक़त को कमज़ोर किया। अलग-अलग जगह से आकर शहरों में बसे लोग आपस में जाति और धर्म के सहारे ही एक दूसरे से जुड़े। यही वजह रही कि उदारवाद का दौर सामाजिक आन्दोलनों का नहीं जाति और धर्म आधारित आन्दोलनों का दौर रहा। इसने जिस तरह से लोगों को संगठित किया उसने समाज में एक नये तरह के संघर्ष को जन्म दिया। जैसे-जैसे उदारवाद के लाभ सिमटने शुरू हुए, संघर्ष बढ़ता गया। 21वीं सदी का दूसरा दशक शुरू होने के साथ ही कुछ नये तरह के आन्दोलन दुनिया में दिखाई देने लगे। शायद यह  नए तरह के आन्दोलन भूमण्डलीकरण के सिद्धांत के अवसान की दस्तक हैं । हंगरी के विचारक इस्तवान मेस्जारास ने अपनी कृति सोशलिज़्म एंड बारबरिज़्म– फ्रॉम दि अमेरिकन सेंचुरी टू द क्रासरोज्स (2001, मंथली रिव्यू प्रेस) में भूमण्डलीकरण को अमेरिकी नेतृत्व में वैश्विक दादागिरी भरे साम्राज्यवाद का एक नया ऐतिहासिक चरण कहा है, जिसमें घोर घातक सम्भावनाएँ अन्तर्निहित हैं।

लेकिन अब भूमण्डलीकरण या उदारवाद के तीस साल बाद की स्थितियों को देखें तो काफ़ी हद तक हेनरी किसिंजर की बातें सही होती जा रही हैं कि इस दौर से  परम्परागत राजनीतिक व सामाजिक सुरक्षा की प्रणाली कमज़ोर हुई है। इससे राजनीति में कट्टरपन्थ बढ़ा है और राजनीति धार्मिक रूप से रूढ़ हो रही है। अब  सवाल उठता है कि ये घातक सम्भावनाएँ समाज को किस दिशा में ले जा रही हैं। यह अध्ययन का विषय है। क्या समाज में अब किसी नये तरीक़े और नयी वजहों से आन्दोलित होने की सम्भावना है।

-अकु श्रीवास्तव.
(लेखक और वरिष्ठ पत्रकार)

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उत्तर-उदारीकरण के आन्दोलन 
लेखक : अकु श्रीवास्तव
पृष्ठ : 384 
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 
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