मेक्सिको शहर के एक होटल के कमरे में मैं मोटे गद्देवाले बिस्तर पर एक विश्व-विजेता के एहसास के साथ जाकर लेट गया। अमूमन कोई मैच जीतने के बाद मुझे नींद नहीं आती, लेकिन आज रात मैंने नींद के बहाने को भी छोड़ दिया।
यह 30 सितंबर, 2007 और कुछ घंटों की बात है, जब मुझे निर्विवाद रूप से विश्व-विजेता का टाइटल दिया गया था। यह एक ऐसी जीत थी, जिससे कई लोगों के मुँह बंद होने वाले थे। फिर भी, मैं इस बात पर हैरान था कि मैं अपनी खुशी के मामले में ज्यादा स्वच्छंद, गौरवान्वित या कहें, थोड़ा बेतरतीब क्यों नहीं था।
मेरा पेट अब भी मेक्सिकन खाना गमबास अल पिल पिल-यानी झींगे का एक बारबे क्यू व्यंजन, जिसे लहसुन व मिर्च के तेल से तैयार किया जाता है और लाल मिर्च ग्वाकामोल के साथ खाया जाता है-खाकर भरा हुआ था। विश्व चैंपियनशिप टूर्नामेंट के आयोजक जॉर्ज और वेरॉनिका सैजिआंट ने मुझे और मेरी टीम को एक आलीशान हवेली में बने उम्दा मेक्सिकन रेस्त्राँ में जीत की खुशी में भोजन कराया था। अरुणा, मेरे प्रशिक्षक नीलसन और मेरे दोस्त हैंस-वॉल्टर श्मिट सभी वहाँ मौजूद थे। यह एक छोटा सा परिवार सरीखा समूह था। मैंने एक चॉकलेट केक काटा, जिस पर सफेद फ्रॉस्टिंग से लिखा हुआ था-‘फेलिसीदादेस’, यानी ‘बधाई हो’। बाहर पारंपरिक मेक्सिकन संगीत नाटक ‘मारियाचिस’ चल रहा था।
37 वर्ष की उम्र में विश्व चैंपियनशिप में यह मेरी दूसरी जीत थी। इससे पहले मैंने तेहरान में वर्ष 2000 में जीत हासिल की थी, लेकिन यह जीत नई और प्रामाणिक प्रतीत हो रही थी। चेस समुदाय का रवैया मेरी तेहरान की उपलब्धियों को लेकर उपेक्षापूर्ण रहा था (निश्चित तौर पर थीम यही थी-हाँ, तुम विश्व-विजेता हो) और तभी से एक कष्टदायक भावना ने मुझे परेशान किया हुआ था। मैं इस बात को लेकर कशमकश में था कि क्या उन्होंने यह रुख मुझे व्याकुल करने के लिए अपनाया है, या वे वाकई इस बात पर यकीन करते हैं कि मैं इस प्रतिष्ठा के लायक ही नहीं था? यह करीब-करीब ऐसा था, मानो मेरे तेहरान में हासिल किए विश्व-विजेता के टाइटल को वर्गीकृत, लेबल और रैंक कर दिया हो और मैं इस वर्ग में सबसे नीचे हूँ।
यह उस एहसास सरीखा है, मानो फिनिश लाइन में किसी धावक की छाती पर सबसे पहले रिबिन तो छू गया हो, लेकिन उससे फिर भी यह कह दिया जाता है कि तुम्हें अब भी कुछ लैप्स पार करने हैं।
विश्व-विजेता के मेरे रुतबे पर शतरंज की दुनिया में इस विभाजन ने प्रश्नों की एक झड़ी-सी लगा दी थी। उस समय तक पूर्व चैंपियन गैरी कास्पारोव और उनके टाइटल के प्रतिद्वंद्वी नाइजेल शॉर्ट ने वर्ष 1993 में खेल की विश्व प्रशासकीय इकाई फेडरेशन इंटरनेशनल दि इशेक, यानी एफ.आई.डी.ई. से अपना नाता तोड़ लिया था। इसके बाद से वैश्विक शतरंज पहले जैसा नहीं रहा। दोनों खिलाड़ियों ने अपना विश्व चैंपियनशिप का मैच एक नई इकाई प्रोफेशनल चेस एसोसिएशन (पी.सी.ए.) के अंतर्गत खेला, जिसे दोनों ने मिल-जुलकर बनाया था; हालाँकि यह इकाई फंड की कमी के कारण सन् 1995 में मेरे कास्पारोव के खिलाफ मैच खेलने के बाद बंद हो गई थी, लेकिन यह तनातनी जारी रही।
दोनों पक्षों में किसी एक को चुनने में मैंने खुद को मजबूर नहीं पाया। मैंने महसूस किया कि दोनों ही गुटों के लोग स्वयं के लिए उन गुटों में थे और मैं नहीं चाहता था कि मैं किसी की भी कहानी का हिस्सा बनूँ। मैं एक ऐसे परितंत्र में भ्रमित था, जहाँ शीर्ष खिलाड़ियों को या तो रूसियों का समर्थन हासिल था, जैसे क्रैमनिक या मध्यवर्ती और सत्ता द्वारा प्रायोजित, जैसे बुल्गारिया के वेसेलिन टोपालोव। उस समय मैं खुद के बारे में सोचूँ, यही समझदारी भरी बात थी। शतरंज की राजनीति से दूर रहने का मेरा तर्क साधारण-सा था--आप किसी पक्ष को इसलिए चुनते हैं, क्योंकि आपको लगता है कि वे मसीहा हैं और आपका उद्धार करेंगे; जबकि आपके प्रतिद्वंद्वी समूह में हर एक आपसे बुरी तरह नफरत करता है और दूसरे कई लोगों के विपरीत, मेरा साथ देने के लिए किसी तरह का कोई संस्थान नहीं था। जाहिर-सी बात है कि कई लोगों ने उस दौर में मेरे सुरक्षित होकर चलने के लिए आलोचना भी की; हालाँकि व्यक्तिगत तौर पर यह एक अच्छा फैसला था। मैं ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ, जो शतरंज के साथ-साथ तीन और मोरचों पर लड़ाई लड़ूँ। अगर मेरे दिमाग में राजनीति हावी हो जाती तो मेरा शतरंज का खेल फीका पड़ जाता; और मैं इस बात को भलीभाँति जानता था कि एक बार मेरा प्रदर्शन फीका पड़ जाएगा तो मैं सब के लिए महत्त्वहीन हो जाऊँगा। उस समय वही ठीक था, जो मैंने किया-दुनिया का मुँह बंद करके शतरंज खेलना।
शुरुआत में, यह विभाजन एक अच्छी चीज बनकर आया। हमारे पास प्रतिस्पर्धा से लेकर विजेता तक हर चीज के दो सेट थे। वर्ष 1995 तक यह काफी व्यवस्थित ढंग से प्रगतिशील होता मालूम पड़ा; लेकिन एक बार जब पी.सी.ए. गायब हो गया, तब खेलों के आयोजन में अच्छी-खासी कमी देखने को मिली। धीरे-धीरे हमने महसूस किया कि झगड़े में फँसे दोनों संगठनों ने मात्र इस खेल पर काला धब्बा ही लगाया और शतरंज की दुनिया को एक दलदल वाली जगह में धकेल दिया।
शतरंज की राजनीति से दूर रहने का मेरा तर्क साधारण-सा था--आप किसी पक्ष को इसलिए चुनते हैं, क्योंकि आपको लगता है कि वे मसीहा हैं और आपका उद्धार करेंगे; जबकि आपके प्रतिद्वंद्वी समूह में हर एक आपसे बुरी तरह नफरत करता है और दूसरे कई लोगों के विपरीत, मेरा साथ देने के लिए किसी तरह का कोई संस्थान नहीं था। जाहिर-सी बात है कि कई लोगों ने उस दौर में मेरे सुरक्षित होकर चलने के लिए आलोचना भी की; हालाँकि व्यक्तिगत तौर पर यह एक अच्छा फैसला था। मैं ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ, जो शतरंज के साथ-साथ तीन और मोरचों पर लड़ाई लड़ूँ। अगर मेरे दिमाग में राजनीति हावी हो जाती तो मेरा शतरंज का खेल फीका पड़ जाता; और मैं इस बात को भलीभाँति जानता था कि एक बार मेरा प्रदर्शन फीका पड़ जाएगा तो मैं सब के लिए महत्त्वहीन हो जाऊँगा। उस समय वही ठीक था, जो मैंने किया-दुनिया का मुँह बंद करके शतरंज खेलना।
इस बीच, कास्पारोव की एक प्रतिस्पर्धी और एक आयोजक को ढूँढ़ने की जद्दोजहद जारी रही और उन्होंने सुझाव दिया कि मैं जून 1999 में उनके साथ एक मैच खेलूँ। लेकिन प्रस्तावित मैच को महीनों पहले ही रद्द कर देना पड़ा, क्योंकि उसके लिए कोई आयोजक ही नहीं मिला; हालाँकि अगले साल मार्च में इस प्रस्ताव को पुनर्जीवन मिला। इस बार मैं चौकस था और चूँकि इसका संगठन एवं स्पॉन्सरशिप के विवरण व्यापक तौर पर खाके के रूप में ही थे, इसलिए मैंने यह मैच खेलने से इनकार कर दिया। इसके बाद यह मौका क्रैमनिक के हाथ लगा, जिन्होंने कास्पारोव के साथ खेलने के लिए हामी भर दी और तेहरान में मेरे एफ.आई.डी.ई. विश्व-विजेता बनने से एक महीना पहले, यानी नवंबर 2000 में वे कास्पारोव को हराकर क्लासिकल विश्व-विजेता बन गए। इस मैच को ब्रेन गेम्स ने प्रायोजित किया था।
तेहरान के ठीक बाद, अवचेतन स्तर पर, मैंने एक विजेता के रूप में अपने को साबित करने के लिए संघर्ष किया। आनेवाले दिनों में ऐसा कोई बड़ा मैच नहीं था, जहाँ मैं स्वयं को साबित कर पाता। यह वाकई निराशाजनक था, क्योंकि शतरंज की दुनिया की फूट और इसमें मौजूद समस्याएँ वाकई मेरी गलती की वजह से नहीं थीं। वर्ष 2003 में क्रैमनिक के खिलाफ एक दो-गेमवाले नॉकआउट फाइनल के जरिए विश्व रैपिड चैंपियनशिप जीतना भी मेरी कहानी को बदलने में कम ही मददगार रहा। विश्व चैंपियन के तौर पर मेरा संदर्भ आने पर वैसे तो मेरे लिए ‘लेकिन’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता था, अब वह ‘आह, ठीक है; यह तो महज रैपिड चेस है’ में तब्दील हो गया।
कास्पारोव ने वर्ष 2005 में शतरंज की दुनिया से संन्यास ले लिया। तब भी वे दुनिया के नंबर एक शतरंज खिलाड़ी थे। शतरंज की दुनिया को एक करने के प्रयासों में एफ.आई.डी.ई. ने उस व्यक्ति की तरफ रुख किया, जिसने कास्पारोव को परास्त किया था-क्रैमनिक। विश्व इकाई ने साइकिल चैंपियन टोपालोव और क्रैमनिक के बीच वर्ष 2006 में एक बेतुका मैच रखा। यह मैच क्रैमनिक ने जीता।
इसके बाद क्रैमनिक ने एफ.आई.डी.ई. को अपने इर्द-गिर्द घुमाया। उन्होंने माँग की कि जो कोई भी मेक्सिको में होनेवाले आठ खिलाड़ियों के दोहरे राउंड रॉबिन वाले 2007 विश्व चैंपियनशिप टूर्नामेंट को जीतता है, वह उनके खिलाफ आगामी वर्ष मैच खेलेगा (12 सर्वश्रेष्ठ गेम्स)।
क्रैमनिक की टीम मेक्सिको में होनेवाले टूर्नामेंट के दौरान व्याकुल थी। उन्होंने वर्ष 2008 की विश्व चैंपियनशिप के लिए मेरे साथ समझौता करने की कोशिश में हड़बड़ी दिखाई। मैं एलेक्जेंडर ग्रीसचुक के खिलाफ तीसरे और अंत से ठीक पहले वाले दौर में हाथियों की लड़ाई के अंतिम चरण में करीब-करीब हार ही गया था, जब क्रैमनिक के मैनेजर कार्सटन हेंसल एक साल बाद होनेवाले मैच के लिए अनुबंधात्मक शर्तों पर चर्चा करने और उसका खाका खींचने के लिए अरुणा से मिलने की कोशिश करने लगे। मैं 8 प्वॉइंट्स के साथ अंत से पहले वाले दौर का अकेला लीडर था और मेरा टाइटल जीतना तय था। बोरिस गेलफैंड 7 अंकों के साथ मेरे पीछे थे। उनका प्रस्ताव मेरे आसन्न विश्व चैंपियन स्तर को खारिज करता था। उनका प्रस्ताव करीब-करीब ऐसा था, जैसे वे कह रहे हों कि मैं चैंपियन के टाइटल पर तभी अपनी दावेदारी जता सकता हूँ, जब मैं क्रैमनिक को हरा दूँ।
अरुणा ने स्वयं इस अनुबंध को सँभाला। वे अपनी बात पर टिकी रहीं और तुरंत किसी अनुबंध पर तुरंत ‘हाँ’ करने से इनकार कर दिया। अरुणा ने सुझाव दिया कि अगर उन्हें इतनी ही हड़बड़ी है तो मेरी बजाय उन्हें गेलफैंड के साथ मैच आयोजित करना चाहिए। यह पहले से ही एक सरासर अनुचित सौदा था। मैंने मेक्सिको व तेहरान में नॉकआउट और टूर्नामेंट फॉर्मेट दोनों का एफ.आई.डी.ई. विश्व चैंपियनशिप टाइटल जीत लिया था। इसके बावजूद मुझे इस तरह का मैच खिलाए जाने की बात की जा रही थी, जिसमें मुझे अपनी अहमियत साबित करने के लिए उस खिलाड़ी के खिलाफ मैच खेलना था, जो विश्व चैंपियनशिप टूर्नामेंट में मुझसे पीछे था। ज्यादा विचित्र बात यह थी कि क्रैमनिक की टीम ने यह प्रस्ताव रखा था कि मुझे किसी भी स्थिति में चैंपियनशिप के दौरान जर्मन में कोई भी बात नहीं करनी है। मेरा जर्मनी के शहर बाड सॉडेन में एक घर था। मैं शतरंज बुंडेसलीगा में अकसर अपनी उपस्थिति दर्ज कराया करता था और वहाँ अकसर स्थानीय टी.वी. चैनलों में नजर आता था, इसलिए जर्मन भाषा में बात करने की मेरी क्षमता औसत से ऊपर थी। क्रैमनिक केवल रूसी और अंग्रेजी भाषा में ही बात कर सकते थे, इसलिए मैं यह अच्छी तरह देख सकता था कि क्यों स्थानीय प्रेस के साथ मेरा संवाद उन्हें परेशान कर सकता था। निश्चित तौर पर, हमें इस माँग को स्वीकार करने के पीछे कोई तर्क समझ में नहीं आया। हम दृढ़ निश्चयी थे कि हमें अपने क्षेत्र को चिह्नित करना था और यह बात उन तक भलीभाँति पहुँचानी थी कि वे विश्व चैंपियन के मेरे रुतबे को ऐसे ही हलके में नहीं ले सकते।
केवल रूसी खिलाड़ियों का दस्ता ही हमारे लिए परेशानियाँ पैदा नहीं कर रहा था। मेक्सिको में मेरी जीत के बाद हुई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मेरी शंकाओं को अधिक सुस्पष्ट करने के लिए नियुक्त एक पत्रकार ने मुझसे पूछा कि क्या मैं बॉन में मैच के लिए तैयार हूँ? यह करीब-करीब ऐसा था, मानो कुछ मिनटों पहले मेरे द्वारा जीता गया टाइटल महत्त्वहीन था, हालाँकि मैं भी उसे एक अच्छा सा जवाब दे सकता था, फिर भी मैंने अपने दाँतों को भींचते हुए उसे काफी सभ्यतापूर्ण तरीके से इसका जवाब दिया।
उस रात बाद में, जब मैं अपने होटल सुइट की मेज पर बैठा तो इस बात को लेकर थोड़ा चिंता-मुक्त था कि मुझे तेज घंटी वाले अलार्म की आवाज पर नहीं उठना और अगले दिन कोई गेम भी नहीं है। फिर भी, मेरे दिमाग में यह विचार चल रहा था कि ठीक बारह महीने बाद मुझे क्रैमनिक के खिलाफ खेलना होगा। यह विशिष्ट तौर पर आरामदायक विचार नहीं था। वर्ष 1989 में क्रैमनिक के खिलाफ अपने पहले मैच से मेक्सिको तक अपने द्वारा खेले गए 50 मैचों में मैं उनसे चार बार जीता था और छह बार हारा था। हम दोनों के बीच खेले गए बाकी 40 गेम बेनतीजा रहे। अगर मैं बॉन में हार जाता तो विश्व-विजेता का मेरा टाइटल मेरे हाथ से फिसल जाता और यह बात जल्द ही भुला दी जाती कि मैंने कभी यह टाइटल जीता भी था। कुछ ऐसे खिलाड़ी होते हैं, जिनसे हारना आपको सबसे ज्यादा अखरता है। मेरे लिए क्रैमनिक उन्हीं में एक थे। जब कभी मैं उनसे हारा तो मैंने खुद को मानसिक तौर पर बहुत कोसा।
हमारे खेलने की शैली एक-दूसरे के एकदम उलट है। मैं मुख्य तौर पर 1.ई4 खिलाड़ी था, जबकि वे 1.डी4 के खिलाड़ी के तौर पर जाने जाते थे। दोनों शुरुआत में सफेद प्यादों से चलते थे। वहाँ आसीन दूसरा खिलाड़ी, जो 1.डी4 या रानी के प्यादे से शुरुआत करता है, के विपरीत राजा के प्यादे से शुरुआत या 1.ई4 से शुरुआत करनेवाला अमूमन उन धुआँधार खिलाड़ियों द्वारा चुना जाता है, जो गेम में जल्द ही पहल करने की सोच रहे हों। 1.डी4 की चाल उन लोगों की पसंदीदा चाल होती है, जिन्हें लंबी और रणनीति वाली लड़ाई पसंद होती है। मेरी रणनीति तेज धार पर चलने की थी, जहाँ हर चाल में मैं संतुलन को महत्त्व देता हूँ और छोटे प्यादों पर हमला बोलो। श्रम और मंथर गति से चलकर 1.ई4 के जरिए अपना रास्ता बनाने से खुले रास्तों के न मिलने और रास्ते में आनेवाले रोड़ों की संभावनाएँ भी बढ़ जाती हैं, जैसा कि कास्पारोव के साथ हुआ था, जब वर्ष 2000 में उन्होंने क्रैमनिक के खिलाफ मैच खेला था। उस दौरान उन्हें ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा था। 1.डी4 के साथ 1.ई4 के लिए उनके पसंदीदा हथियार-पेट्रोफ डिफेंस की भी मैं धार कमजोर कर देता। पेट्रोफ डिफेंस काले प्यादों के लिए सममित (सिमेट्रिकल) शुरुआत है, जिसे भेद पाना बहुत कठिन है और स्पैनिश शुरुआत का बर्लिन रूपांतरण काले प्यादों के लिए एक मजबूत, लेकिन कम करके आँकी जानेवाली शुरुआत है, जो ठंडे बस्ते में चली गई थी, जब तक कि क्रैमनिक ने इसे कुछ नए विचारों के साथ पुनर्जीवित नहीं किया। यह उनकी कुछ बड़ी रचनात्मक उपलब्धियों में एक थी, जिसका इस्तेमाल उन्होंने विश्व चैंपियनशिप के मैच के दौरान कास्पारोव को चार ड्रॉ पर रोककर किया।
मैं 1.ई4 को लेकर उतना हठी नहीं था, जितना कि पूर्व चैंपियन महान् बॉबी फिशर थे, जिन्हें इस स्थिति में अपनी चाल के बारे में बताते हुए उद्धृत किया गया था। मैंने अपने शुरुआती खेलों में रानी के प्यादे से शुरुआत में दिलचस्पी ली थी; हालाँकि इस तरह के प्रयास व्यापक तौर पर तेजी से हमला करनेवाले साबित हुए, मैंने मोटे तौर पर 85 बार सफेद पक्ष से शुरुआत की।
हालाँकि, किंग के प्यादे से ओपनिंग करना एक खिलाड़ी के तौर पर मेरी पहचान थी, जब किसी टूर्नामेंट में मेरा कोई प्रशंसक अपना चेसबोर्ड मेरे आगे लाकर रख देता तो मैं समचतुर्भुज पर ही अपने हस्ताक्षर करता था। मेरे विरोधी मुझे यहीं ढूँढ़ने की उम्मीद किया करते थे। मुझे इस बात पर कोई शंका नहीं थी कि क्रैमनिक ने भी ऐसे ही कुछ की उम्मीद की थी।
मैं इस बात पर अचंभित था कि अगर मैं किसी ओपनिंग में पूरी तैयारियों के साथ अपने मोहरों को चारों तरफ छितराना चाहता था, तब ऐसे में मैं उस चाल को निष्पादित नहीं कर पाता था। यह कुछ-कुछ एक चट्टान से पानी निचोड़कर निकालने के समान था। मैं अमूमन अपने चुने हुए रास्ते से हटकर दूसरा रास्ता चुनने की कल्पना मात्र से इस ऊर्जा का एहसास कर सकता था। यह करीब-करीब एक आविर्भाव की तरह था, जिससे मेरे मस्तिष्क में यह भाव कौंधा कि कदाचित् मैं क्रैमनिक के ही प्यारे तरीके से ओपनिंग कर सकता हूँ और फिर 1.डी4 को उन्हीं के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता हूँ। यह एक आंतरिक भावना थी, एक आवेग था, जिसमें अपराध-बोध का कोई दर्द नहीं था। मैं कुछ नया करने का इच्छुक था और इस भावना के साथ यह जोखिम उठाने को भी तैयार था कि यह चाल अपरिहार्य है। मैं तो यही कहूँगा कि मैं इसके परिणामों को लेकर पूरी तरह अधीर हो गया था।
अनकहे विचारों की मेरी रेल तब बाधित हुई, जब मेरा दरवाजा खुला और नीलसन अंदर आए। नीलसन से मेरी पहली मुलाकात तब हुई थी, जब वर्ष 2001 की विश्व चैंपियनशिप के दूसरे राउंड में हम एक-दूसरे के खिलाफ खेले थे। इसे मैंने अपने काले प्यादों के साथ जीता था। उस वक्त मैंने नोटिस किया था कि उनकी शुरुआती तैयारी बहुत अच्छी थी। खेल हारने के बाद भी वे बहुत गर्मजोशी, दोस्ताना और अपनी हार की बात से बेपरवाह दिखे। हमने बातचीत की और वर्ष 2005 में जब मैंने सैन लुइस में होनेवाली विश्व चैंपियनशिप प्रतिस्पर्धा में उनका सहयोग लेना चाहा तो वह इसके लिए तुरंत तैयार हो गए। तब से वह मेरी तरफ ही बने रहे। टूर्नामेंट के लिए उन्होंने अनगिनत दौरे किए और घर पर अरुणा द्वारा बनाए दही-चावल और पनीर बटर मसाला चाव से खाया। मैं खेल को लेकर अपने विचार उनके साथ साझा किया करता था। वह एक ऐसे साथी थे, जो तब तक अनसुलझे प्रश्नों को मेरे सामने प्रस्तुत करते थे, जब तक कि मैं यह न बता दूँ कि इस योजना में झोल है या फिर, मैं उस योजना की पूर्णता को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो जाता था।
“मैं क्रैमनिक के खिलाफ 1.डी4 से शुरुआत क्यों नहीं कर सकता?” मैंने अपने छोटे से दर्शक वर्ग से आधा-स्वयं और आधा-वक्तव्य देनेवाले अंदाज में पूछा। अरुणा और नीलसन ने एक-दूसरे को देखा और चुपचाप मेरे तर्क सुनने का इंतजार करने लगे। मैंने उनसे तुरंत तो कुछ नहीं कहा, लेकिन मेरी घोषणा ने नीलसन को हैरान कर दिया था। लंबे-चौड़े नीलसन मेज के ऊपर झुक गए। उन्होंने मेरे इस विचार को न तो सिरे से नकारा और न ही इसे सरसरी तौर पर खारिज किया। उन्होंने सुझाव दिया कि हम क्रमबद्ध ढंग से इसके नफा-नुकसान को देखते हैं। बेड के पायताने की ओर बैठी अरुणा शायद यह सोच रही थीं कि नींद पूरी नहीं होने की वजह से मैं बड़बड़ा रहा हूँ। यह स्थिति उस शतरंज खिलाड़ी की हो सकती है, जो लगातार एक पखवाड़े से मैच खेल रहा हो। वे शायद इस बात को लेकर निश्चिंत थीं कि मेरे दिमाग में आया यह आक्रामक विचार अगली सुबह नाश्ते तक छू-मंतर हो जाएगा।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
अगले दिन मेक्सिको चैंपियनशिप के समापन समारोह के दौरान मंच पर खड़े होने पर मेरे दाएँ कंधे पर चटक गुलाबी रंग का एक सेरापा (मेक्सिकन संस्कृति का शॉल जैसा लंबा एक वस्त्र, जो किसी को सम्मानित करते समय ओढ़ाया जाता है) लपेटा गया। मेरे गले में गोल्ड मेडल था और मेरा पदक मेरे हाथ में। मुझे इस बात का आभास था कि क्रैमनिक वहाँ मौजूद दर्शकों के बीच हैं। मैंने खुद से कहा, ‘मुझे अपने आवेग पर काबू पाना चाहिए; काल्पनिक सीढ़ी पर चढ़ना चाहिए, फिर उसे एक तरफ धकेलकर बगैर इसके सहारे ऊपर चढ़ना चाहिए।’ यह तकनीक असमंजस का उत्कृष्ट मारक है और यह सुनिश्चित करने का अकेला रास्ता है कि आप आगे बढ़ते रहें। अकसर जब भी मैं किसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में होता हूँ तो ऐसा करता हूँ। निराशावादी स्थिति में मैं किसी ऐसी अतार्किक योजना को आत्मसात् करता हूँ, जो थोड़ी कम मुश्किल, लेकिन लाभप्रद योजना से थोड़ी कम आसान हो। मैं तब तक कोई फैसला नहीं करता, जब तक कि बहुत देरी न हो जाए। तब तक मैं इतना आगे बढ़ चुका हूँ कि वहाँ से वापस लौटना असंभव हो जाए।
मैंने क्या किया, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। मैं जानता था कि क्रैमनिक के साथ होनेवाले मैच के लिए मैं पूरी तरह समर्थ नहीं था, क्योंकि मैं अपने विरोधी के खिलाफ उसी के पसंदीदा हथियार का इस्तेमाल करके युद्धभूमि में उतर रहा था। बेशक, मेरे पास क्रैमनिक की पसंदीदा ओपनिंग में पारंगत होने के लिए पर्याप्त समय था; लेकिन वह इसके विशेषज्ञ थे और मैं कितना भी चाहूँ, उनके समक्ष दक्षता हासिल नहीं कर सकता था। यह ओपनिंग मेरी चिर-परिचित नहीं थी और इसलिए मैं इसे बेफिक्र होकर नहीं खेल सकता था। शतरंज में आगे बढ़ने की गुंजाइश सदैव रहती है। इसके लिए आपको लगातार नई चालों और लाइंस का अभ्यस्त होना पड़ता है, क्योंकि खेले जा रहे हर नए खेल को प्रकाशित किया जाता है और यह सामान्य ज्ञान में परिवर्तित भी होता है। प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए नए तरीकों को सीखना और मौजूदा स्थिति में उनका इस्तेमाल करना अनिवार्य हो जाता है। फिर भी, खिलाड़ी अपने पसंदीदा तरीके से ओपनिंग करना पसंद करते हैं। यह भी ठीक है, क्योंकि कदाचित् वे जान-पहचान वाले तौर-तरीके से जुड़े रहना बेहतर समझते हैं। इसका कारण जानना मुश्किल नहीं। या तो वे इन ओपनिंग में निपुण होते हैं या फिर उनकी इनसे कई यादें जुड़ी हुई होती हैं।
मुझे इस बात की अधिक चिंता नहीं थी कि मैंने स्वयं के द्वारा कम इस्तेमाल की गई ओपनिंग का पर्याप्त अध्ययन नहीं किया है। दरअसल, इसे खेलने के कई छोटे एंगल थे, जिनका अन्वेषण नहीं किया गया था। ऐसे कई प्रश्न थे, जिनके उत्तरों से मैं परिचित नहीं था और इसके विभिन्न परिणाम निकलकर सामने आ सकते थे। अगर यह योजना फेल हो जाती तो मैं एक बेवकूफ और मंद बुद्धि कहलाता।
हालाँकि, लंबे समय की कूटनीति के लिए की गई भविष्यवाणी स्पष्ट तौर पर सबसे खराब होती है। इस सब में आपका रवैया खुद आपके फैसले में तुरुप का पत्ता साबित होता है। मेरे दिमाग में कौंधने के बाद से ही मैंने इस निर्णय की पूरी जिम्मेदारी ले ली थी, अब चाहे मेरे इस निर्णय का परिणाम सही होता या गलत। मैंने फैसला किया कि मैं नकारात्मक विचारों को अपने दिमाग को परेशान नहीं करने दूँगा। मैंने इस स्थिति को कुछ इस तरह से देखा, अगर मुझे किसी अनिश्चित स्थिति में ला दिया जाए। ऐसे में, इस बात की अच्छी संभावनाएँ होंगी कि मैं इन परिस्थितियों में अपने खेल में सुधार ला पाऊँ। वजह यह है कि मैं अपने खेले पिछले मैचों में स्थापित मिसालों के बोझ से मुक्त हो जाऊँगा। मेरे लिए प्राथमिक आकर्षण था-मैच को उत्साह के साथ खेलना और यह चाव कि मैंने कम-से-कम जोखिम उठाने की हिम्मत तो की। मैंने इसे काफी स्वतंत्र होने जैसा पाया। कभी-कभी कला और खेल के लिए जरूरत से अधिक सोचना और आखिरी बिंदु तक योजना बनाने की बजाय कुछ कर गुजरना बेहतर होता है। बेशक, सामान्य रूप से उबाऊ और रोजमर्रा में इस्तेमाल क्षेत्रों की बजाय ताजा, नए और गर्मजोशी से भरे क्षेत्रों में थोड़ी सी असावधानी भी मुश्किल पैदा कर सकती है। लेकिन अगर मैच में मैं कहीं अटक भी जाता तो कम-से-कम नई उबाऊ स्थिति में अटकता, न कि पुरानी उबाऊ स्थिति में। अंदर-ही-अंदर मैं यह बात अच्छी तरह जानता था कि अगर मैं इस नए निर्णय से खुद को जोड़ नहीं पाता और अपने कॅरियर में कोई जोखिम नहीं उठाता तो मुझे खुद से घृणा होने लगेगी, शतरंज से घृणा होने लगेगी।
क्योंकि मेक्सिको का घाव हाल ही में मिला था, इसलिए मैड्रिड से करीब 50 कि.मी. दूर एक शांत शहर कोलाडो मेडिआनो में मौजूद अपने घर के सफेद रसोईघर में खड़े हुए मेरा दिमाग तेजी से दौड़ रहा था। वर्ष 2006 के मध्य में, हमारे दोस्त फ्रेडरिक फ्राइडेल, जो शतरंज के सॉफ्टवेयर और समाचारों वाली फर्म चेसबेस के सह-संस्थापक थे, ने मुझे यह बताने के लिए बुलाया कि कैसे क्रैमनिक बॉन मैच में अपनी तमाम शर्तें लागू करने के लिए दबाव डाल रहे हैं। उस समय मैं घर पर व्यायाम करके खुद को तौलिए से पोंछ रहा था और समझौते की भेदभावपूर्ण प्रकृति से चिढ़ा हुआ था। मैं अरुणा के पास किचन में गया और उन्हें यह बात बताई। हम दोनों ही इस बात पर सहमत थे कि जो हो रहा है, वह सरासर गलत हो रहा है। एक खिलाड़ी इस निर्लज्जता के साथ खुल्लमखुल्ला अपने विशेषाधिकारों का प्रदर्शन कर रहा है। उस दौरान मेरी सहानुभूति मेक्सिको के भविष्य के विजेता के साथ थी। उस विजेता को स्वयं को चैंपियन कहलाने के लिए एक साल बाद होनेवाले अगले मैच को जीतकर दिखाना पड़ता। उस खिलाड़ी के दुःख की कल्पना करते हुए उस समय मेरे मन में यही विचार आए थे। अच्छी बात यह है कि मुझे इसके बारे में फिलहाल चिंता करने की जरूरत नहीं है। यह तब तक मेरी समस्या नहीं है, जब तक कि वाकई यह मेरी समस्या नहीं बन जाती।
लेकिन पता चला कि वह खिलाड़ी मैं ही था।
-विश्वनाथन आनंद.
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माइंड मास्टर
लेखक : विश्वनाथन आनंद
अनुवाद : रंजना सहाय
पृष्ठ : 288
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
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