मधुबाला : एक प्रेम कहानी का अन्त

मधुबाला : एक प्रेम कहानी का अन्त
‘इस अनूठी पुस्तक में दिलीप कुमार की जन्म से लेकर अब तक की जीवन-यात्रा का वर्णन किया गया है। इस प्रक्रिया में उन्होंने स्पष्ट रुप से अपनी बातचीत और संबंधों -जो व्यापक स्तर पर विविध लोगों से रहे हैं और इनमें केवल पारिवारिक ही नहीं, अपितु फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों के साथ-साथ राजनीतिज्ञ भी शामिल हैं -का स्पष्ट रुप से विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।’

मधुबाला और दिलीप कुमार

‘मुझे मधु के लिए बुरा लगा और मैंने यह दुआ की कि उसके अन्दर वह कूवत पैदा हो कि वह कम से कम पेशेवर मोर्चे पर अपने हितों की रक्षा कर सके बजाय इसके कि बिना सोचे-समझे हर वक़्त अपने अब्बा की ख़्वाहिशों के सामने झुकती रहे। इस तरह की अधीनता का बुरा असर न केवल उसके पेशेवर मान-सम्मान पर पड़ा बल्कि उसकी सेहत के ऊपर भी पड़ा।’ 

इसमें कोई शक नहीं था कि अनारकली के रोल के लिए मधुबाला का चुनाव बिल्कुल सही था। अपने चुस्त दिमाग़ के कारण उन्होंने जल्दी ही किरदार की बारीकियों को समझ लिया था। यह सच है कि जब 1950 के दशक में 'मुग़ल-ए-आज़म' (1960) की शूटिंग चल रही थी तो हमारी शादी को लेकर अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था। आम धारणा से बिल्कुल उलट उसके अब्बा अताउल्ला ख़ान इस शादी के ख़िलाफ़ नहीं थे। उनकी अपनी प्रोडक्शन कम्पनी थी और वे इस बात से बहुत ख़ुश थे कि एक छत के नीचे दो-दो स्टार हो जायेंगे। अगर मैंने इस सिचुएशन को अपने नज़रिये से न देखा होता तो वही होता, जैसा वे चाहते थे। मैं और मधुबाला ज़िन्दगी भर उनकी प्रोडक्शन कम्पनी के लिए हाथों-में-हाथ लिये गाने गाते रहते। जब मुझे मधु से उनके अब्बा के इरादों के बारे में पता चला तो मैंने उन दोनों को यह बात समझा दी कि मैं अपने काम और अपनी जाती ज़िन्दगी को अलग-अलग रखना पसन्द करता था। कोई फ़िल्म चुनने और काम करने का मेरा अपना तरीक़ा था और मैं इसमें किसी तरह की ढिलाई नहीं बरतता था, भले ही वह मेरा ख़ुद का प्रोडक्शन हाउस क्यों न हो। यह सब जानकर उनके अब्बा को एक झटका-सा लगा और उन्होंने मधु को यह बात समझानी शुरू कर दी कि मैं कितना अकड़ू और घमण्डी इन्सान हूँ। मैंने पूरी सच्चाई और ईमानदारी के साथ उन दोनों को यह समझाने की कोशिश की कि मैं उनकी भावनाओं की क़द्र करता था, लेकिन हम दोनों के लिए ही यह अच्छा था कि हम अपनी जाती और पेशेवर ज़िन्दगियों को अलग-अलग रखें। लेकिन मधु अपने अब्बा का साथ देती रहीं और मुझे यह समझाने की कोशिश करती रहीं कि शादी के बाद धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा। मेरा अपना दिल यह कह रहा था कि ये इस तरह के हालात थे कि अगर मैं इनमें फँस जाता तो अपने काम और करियर को लेकर मेरी बरसों की मेहनत और लगन पर पानी फिर जाता। उनके अब्बा के साथ मेरी कई बैठकें हुईं और हर बार वह ख़ामोश बैठी रहीं। उन्होंने मेरी परेशानी को समझने या उसे सुलझाने की कोई कोशिश नहीं की। हालात बिल्कुल भी ख़ुशगवार नहीं थे और हमारे रिश्ते एक ऐसी मंज़िल की तरफ़ बढ़ रहे थे जिसके आगे सभी रास्ते बन्द थे। ऐसे हालात में यही बेहतर था कि हम शादी न करने का फ़ैसला करें और एक-दूसरे को फिर से सोचने का मौक़ा देने के बारे में सोचना भी छोड़ दें। तब तक मैं किसी भी ऐसे रिश्ते में न उलझने का पक्का मन बना चुका था जिसमें किसी का भी भला नहीं होने वाला था ।

हम अलग हुए तो मुझे एक राहत-सी महसूस हुई, क्योंकि तब तक मुझे यह भी महसूस होने लगा था कि दो अदाकारों के रूप में साथ-साथ काम करना बहुत अच्छी बात थी, लेकिन शादी के मामले में यह बात बहुत अहमियत रखती थी कि कोई औरत पाने से ज़्यादा देने के लिए तैयार हो। मैं अपने परिवार के लिए अम्माँ की लगन और समर्पण भावना को देखते हुए बड़ा हुआ था और एक औरत के तौर पर भी उनकी कोई कमी या कमज़ोरी नहीं थी।

हम अलग हुए तो मुझे एक राहत-सी महसूस हुई, क्योंकि तब तक मुझे यह भी महसूस होने लगा था कि दो अदाकारों के रूप में साथ-साथ कम करना बहुत अच्छी बात थी, लेकिन शादी के मामले में यह बात बहुत अहमियत रखती थी कि कोई औरत पाने से ज़्यादा देने के लिए तैयार हो। मैं अपने परिवार के लिए अम्माँ की लगन और समर्पण भावना को देखते हुए बड़ा हुआ था और एक औरत के तौर पर भी उनकी कोई कमी या कमजोरी नहीं थी।
दिलीप कुमार : वजूद और परछाईं

मेरे दिल में अब बार-बार यह बात उठने लगी थी कि मैं दूसरे के मीठे जज़्बातों का बदला चुकाने के इरादे से यह शादी करना चाहता था, न कि इसलिए कि मुझे सचमुच ही एक जीवनसाथी की ज़रूरत महसूस होने लगी थी। सबसे बड़ी बात यह थी कि मैं किसी ऐसे इन्सान के साथ ज़िन्दगी भर नहीं रह सकता था जिसकी ज़रूरतें मेरी ज़रूरतों से इतनी अलग हों। मुझे यह भी पता चला कि वह कुछ दूसरे साथी कलाकारों में भी दिलचस्पी लेती रहती थीं, हालाँकि यह कोई बड़ा मसला नहीं था। मैं ख़ुद भी उन दिनों जज़्बाती उथल-पुथल के दौर से गुज़र रहा था।

हमारी जुदाई का मुझ पर वैसा कोई असर नहीं पड़ा, जैसा अख़बार वाले शोर मचा रहे थे। उस ज़माने के पत्रकार आज की तरह बेक़ाबू  तो नहीं थे, लेकिन झूठ को सच बनाने में वे भी पीछे नहीं थे। किसी ने भी सच्चाई जानने की कोशिश नहीं की। कुछ गॉसिप मैग्ज़ीनों ने तो दावे के साथ यहाँ तक लिख दिया कि मैंने ज़िन्दगी भर कुँवारा रहने का फ़ैसला कर लिया था क्योंकि मेरा दिल टूट गया था। मैं अपने काम और परिवार की ज़िम्मेदारियों में इतना उलझा हुआ था कि किसी को क्या जवाब देता। लेकिन मैं यहाँ साफ कर देना चाहता हूँ कि मैंने कुँवारा रहने का फैसला इसलिए किया था क्योंकि मेरे छोटे-छोटे भाई-बहन थे, जिनकी ज़िम्मेदारी मेरे कन्धों पर थी। मुझे बहनों की शादी करनी थी और यह देखना था कि मेरे भाई-बहनों को दुनिया की सारी ख़ुशियाँ मिलें ।

मैंने अपने घर को पत्नी के साथ साझा करने के ख्याल को दिल से ही निकाल दिया। मुझे अपने भाई-बहनों को उनके पैरों पर खड़ा करना था। अम्माँ रही नहीं थीं और आग़ा जी अपनी बढ़ती उम्र के असर को छिपाते रहने के बावजूद अब कुछ ज़्यादा नहीं कर पाते थे। वे ऐसे आदमी नहीं थे कि कुर्सी से उठने के लिए किसी को हाथ बढ़ाने के लिए कहें या सीढ़ियों से उतरने में किसी की मदद माँग लें। हर सुबह वे तैयार होकर काम के लिए निकल जाते । अयूब साहब और अम्माँ के जाने के बाद वे अन्दर से ही नहीं जिस्मानी तौर पर भी कमज़ोर हो गये थे।

हमारी जुदाई के बाद एक अफ़वाह यह भी फैली थी कि मधुबाला को दिल की बीमारी हो गयी थी। सच्चाई यह थी कि डॉक्टरी जाँच से पता चला था कि यह जन्मजात बीमारी थी। उस ज़माने में दिल की बीमारियों के लिए आज की तरह अच्छे इलाज नहीं थे। बड़े दुख की बात है कि उनकी हालत बिगड़ने लगी और वह फ़िल्मों की शूटिंग के वादों को ठीक से पूरा नहीं कर पायीं।

-दिलीप कुमार.


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दिलीप कुमार : वजूद और परछाईं
लेखक : दिलीप कुमार
प्रस्तुति : उदयतारा नायर
अनुवाद : प्रभात रंजन
हिंदी अनुवाद संपादन : युगांक धीर
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 422
पुस्तक लिंक : https://amzn.to/3VPtxgx
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