विवाह के बारे में अपने देश में खयाल काफी दृढ़ और परस्पर विरोधी मान्यताएँ लिये हुए हैं। अंग्रेजी में जिसे पैराडॉक्स (विरोधाभास) कहते हैं, ऐसा सामान्य बुद्धि और साधारण समझ से विपरीत लगे, ऐसा, या दो परस्पर विरोधी बातों का समर्थन करनेवाली यह संस्था है।
कुछ लोग मानते हैं कि विवाह मनुष्य को बाँधता है और बँधा हुआ संबंध गंध भी मारने लगता है। विवाह के साथ ही स्वामित्व, यानी स्वामी होने का भाव भी प्रदिष्ट होता है। एक समय जब दो व्यक्ति एक-दूसरे को बेहद प्रेम करते थे, चाहते थे और एक-दूसरे के बिना जी नहीं सकते थे, ऐसे दो व्यक्ति विवाह के बाद एक-दूसरे के साथ रह भी नहीं सकते।
छोटी-छोटी बातों में खड़े होते झगड़े, अपेक्षाएँ, शंका-कुशंका और दूसरी कितनी प्रकार की समस्याएँ जीवन को तहस-नहस कर डालती हैं। ‘सप्तपदी’ के सात मंत्र, जो एक-दूसरे का हाथ पकड़कर बोले गए होते हैं, उसका कुछ भी व्यक्ति याद नहीं रखता है। एक-दूसरे के प्रति खड़े हुए-होते जाते मन-मुटाव, दु:ख और उसके साथ बढ़ता जाता अंतर, विवाह को जबरदस्ती उठाया जानेवाला बोझ बनाकर दो व्यक्तियों के साथ-साथ पूरे परिवार के लिए भयानक पीड़ा खड़ा कर देता है।
मित्रो, रिश्तेदार या दूसरे शुभचिंतक सलाह तो देते हैं, लेकिन उनके पीछे उनके अपने अनुभव और मान्यताओं की परछाईं दिखाई दिए बिना नहीं रहती।
विवाह सिर्फ दु:ख, पीड़ा या समस्या है, ऐसा भी नहीं है। विवाह से जुड़ी अनेक कविताएँ या ‘विवाह’ शब्द के साथ खड़ी होती रोमांटिक कल्पनाएँ आज भी युवकों को आकर्षित करती हैं।
प्रेम में डूबा हर व्यक्ति विवाह को ही जीवन का अंतिम ध्येय समझता है। प्रेम में डूबा हरेक व्यक्ति यही मानता है कि रोमांस की या प्रेम की यह मनोदशा हमेशा ऐसी ही बनी रहेगी। इस समय जो दीवानगी या इच्छा है, वही हमेशा हमारे बीच धड़कती रहेगी। दूसरे लोगों का विवाह देखने के बाद भी प्रेम में डूबे दो व्यक्ति ऐसा ही सोचते हैं कि “हमारा विवाह दूसरों की अपेक्षा अलग ही होगा!”
लेकिन विवाह के एक वर्ष से आरंभ करके सात वर्ष के समय के दरम्यान सभी विवाह लगभग सामान्य विवाह जैसे ही हो जाते हैं। रोमांस की और 'आदर्श विवाह' की सभी कल्पनाएँ, सभी वचन और प्रतिज्ञाएँ धीरे-धीरे पिघलती छूटती हुई दिखाई देती हैं। एक-दूसरे पर दोषारोपण-आक्षेप करने की शुरुआत होती है और वैवाहिक जीवन ध्वंस हो जाने के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराते पति-पत्नी धीरे-धीरे एक-दूसरे से विपरीत दिशा में प्रवास करने लगते हैं।
अगर समाज ने ही यह संस्था खड़ी की हो तो वैदिक काल से ही विवाह को एक बंधन के रूप में क्यों देखा जाता है? जो विवाह आदर्श विवाह के रूप में माने गए हैं, ऐसे विवाहों में भी समस्याएँ क्यों खड़ी होती रही हैं?
अगर श्रीराम और सीता का विवाह आदर्श माना जाता है तो किसलिए राम सीता की अग्नि-परीक्षा करते हैं? और उसमें भी निर्दोष साबित हुई सीता का किसलिए त्याग करते हैं?
वैशाली से विवाह किए होने के बावजूद क्यों कर्ण द्रौपदी की इच्छा रखता है? भानुमती का पति दुर्योधन किसलिए द्रौपदी के स्वयंवर में उसे जीतने का प्रयास करता है? पति का छद्म रूप लेकर पत्नी के साथ 'संबंध' करने के उदाहरण पुराणों में कम नहीं हैं।
विवाहेतर संबंध किसलिए इतना आकर्षक शब्द है?
संबंध बिना का विवाह समाज को स्वीकार्य है, परंतु विवाह बिना का संबंध समाज की संस्कृति की नींव को क्यों हिलाता है?
डब्ल्यू.जे. टर्नर का एक वाक्य हमें विचलित कर डाले, ऐसा है-“मैरिज इज बट रनिंग हाऊस शेरिंग, फूड एंड कंपनी वॉट इज दिस टु डू बीथ लव ऑर द बॉडीज ब्यूटी?”
(विवाह अर्थात् क्या? घर चलाना। साथ खाना और साँस लेते रहना। प्रेम, रोमांस या शरीर के सौंदर्य जैसे अद्भुत आनंद के साथ ऐसे सामाजिक विवाह को क्या लेना-देना हो सकता है?)
जबकि जॉन हैय बैथ ने कहा है कि “मैरिज इज घास्टली पब्लिक कन्फेशन ऑफ स्ट्रिक्टली प्राइवेट इंटेंशन।”
(निजी इच्छाओं और आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए एकदम बेशर्म सार्वजनिक स्वीकृति-पत्र अर्थात् विवाह।)
रजनीश कहते हैं कि "इनसान सभी कुछ सीख गया, खाना-पीना या समाज में जीना, दो कदम चलना और विकास की तमाम प्रकार की प्रक्रियाओं में से गुजर चुका है; लेकिन आज तक वह विवाह संस्था को स्वीकार नहीं सका है, क्योंकि यह संस्था किसी भी प्रकार से प्राकृतिक अथवा मानव की प्रकृति के अनुकूल नहीं है।"
जर्मन लेखक फ्रांज काफ्का ने विवाह-विरोधी बहुत से विधान किए हैं। बार-बार सगाई करके विवाह के समय गुम हो जानेवाला चिंतक और लेखक विवाह से डरता था। उन्होंने लिखा है कि-“विवाह का विचार ही मुझे डराता है। प्रेम में डूबना मुझे अच्छा लगता है; लेकिन एक ही स्त्री के साथ सारी जिंदगी रहने का विचार ही भय को प्रेरित करता है। मैंने देखा है कि अधिकांश शादियाँ थोड़े ही समय के व्यतीत होने पर डरावनी बन जाती हैं। मैं अपने प्रेम से विहीन होना नहीं चाहता, लेकिन मेरे जीवन की स्त्रियाँ इस बात को समझ नहीं सकती हैं।...उनके लिए विवाह ही हरेक बात का हल है, ऐसा अब मुझे लगने लगा है।”
मारिया रिल्के, बर्नार्ड शॉ और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे लोगों ने भी दृढ़तापूर्वक विवाह संस्था में अपने अविश्वास को प्रकट किया है। बर्ट्रेंड रसेल ने डोरा ब्लैक के साथ तलाक लेने के लिए उस पर बहुत ओछे आरोप लगाए थे। उनकी पहली पत्नी एलिस के साथ भी उनका विवाह बहुत ही दु:खपूर्ण रूप से पूरा हुआ था।
पैंतीस वर्ष के चार्ली चैपलिन ने अपनी सोलह वर्ष की प्रेमिका को दूसरा विवाह करने की सलाह दी थी। लीटा ने चार्ली चैपलिन के साथ जबरदस्ती विवाह किया था। दो संतान होने के बावजूद वह विवाह टिका नहीं रह सका था।
ऐसे समर्थ चिंतक और अपनी विशेष मान्यताएँ रखनेवाले लेखकों, विचारकों, दर्शन-शास्त्रियों, साधुओं अथवा स्टार और सेलिब्रिटीज भी विवाह के बारे में बहुत ऊँचे अभिप्राय नहीं रखते हैं। तब एक सवाल खड़ा होता है कि विवाह क्या सचमुच ही कोई पीड़ादायक परिस्थिति है? अगर सचमुच ऐसा है तो समाज किसलिए विवाह के लिए इतना आग्रह रखता है? समाज की व्यवस्था या संस्कृति क्या सिर्फ विवाह की नींव पर ही टिकी है? अगर हाँ, तो फिर उसमें इतनी पीड़ा किसलिए है?
हर व्यक्ति यह चाहता है कि उसका विवाह आदर्श विवाह हो। अपने जीवनसाथी के साथ सुख और आनंद से जीने की हरेक की इच्छा होती है। इस संसार का कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो अपने विवाह को तोड़ने या परिवार को बिखेर देने के लिए तैयार हो। इसके बावजूद विवाह संस्था की नींव हिल रही है।
दो व्यक्ति जब विवाह करते हैं, तब एक कल्पना होती है साथ जीने की, संघर्ष करने की, घर बसाने की, संतानों को जन्म देने की, संतानों का लालन-पालन करने की, साथ-साथ बूढ़ा होने की, संतानों की संतानों को भी पालने की...हर विवाह लंबे समय तक साथ रहने के लिए ही स्वीकार किया जाता है।
किसी भी रिश्ते को, विवाह के अलावा के रिश्तों को भी सामान्य परिश्रम एवं ध्यान की आवश्यकता होती है; लेकिन विवाह एक ऐसा विशिष्ट संबंध है, जिसका ध्यान न रखा जाए तो वह एकदम टूट जाता है। इस ध्यान और कोशिश की, सेवा की कोई परिभाषा नहीं है। विवाह को 'आदर्श' बनाने का कोई स्वीकृत फ़ॉर्मूला नहीं है। गणित के सवालों की तरह निश्चित जवाब प्राप्त करने के लिए की जानेवाली कोई निश्चित विधि या रीति विवाह के विषय में काम नहीं आती है।
इसके बावजूद विवाह को सफल बनाया जा सकता है। दो व्यक्ति सुख और संतोष के साथ जी सकते हैं। स्नेह जीवनपर्यंत अनंत और अविरत बना रहे, ऐसी संभावनाएँ हैं ही! बिखर चुके एवं टूट चुके लगते, मृतप्राय हो गए विवाह भी फिर से नवपल्लवित हो सकते हैं।
आवश्यकता है, थोड़ी समझदारी की, थोड़ी स्वीकारोक्ति की, आपत्ति स्वीकार करने की, थोड़े प्रयत्न की और थोड़े समाधान की।
इस ‘थोड़े’ की मात्रा हरेक विवाह में, हरेक व्यक्ति की आवश्यकता और प्रकृति के अनुसार बदलती रहती है; लेकिन अगर इन चार ही बातों को योग्य रीति से, योग्य समय पर और योग्य मात्रा में उपयोग में लिया जाए तो संसार का कोई भी विवाह दु:खी, बंधनकर्ता, बोझ रूप या मुश्किल नहीं रहेगा, ऐसा मेरा अनुभव है।
इस पुस्तक के प्रकरण पाठक को धीरे-धीरे एक अलग ही दुनिया में ले जाएँगे। यहाँ आपको आपके द्वारा की गई गलतियाँ समझ में आएँगी। आप कहाँ और किस प्रकार से गलत थे, यह भी आपका मन समझेगा। लेकिन वहीं पर रुक मत जाने, सिर्फ भूल को स्वीकार कर लेने से परिस्थिति बदल नहीं सकती। उस भूल में से बाहर निकलने का प्रयत्न भी करना ही पड़ता है।
कल शाम तक की तमाम भूलों को पहचानकर आज सुबह से उन भूलों को अपने जीवन में से जमा-घटा करोगे तो ही एक आदर्श संबंध प्राप्त होगा।
विवाहेतर संबंधों में समाधान करना, झूठ बोलना, अपने आप को एवं दूसरों को धोखा देना...असुरक्षा की पीड़ा में से गुजरना और साथ-ही-साथ समाज की नजर में नीचे गिरना, बच्चों की नजर में भी गुनहगार साबित होना-इन सब को सहन करने की बजाय जिस संबंध को अपने मन से समाज के सामने यानी विरुद्ध स्वीकार किया है, उस रिश्ते में छुपी उलझनों को ढूँढ़कर दूर करने से शायद अधिक शांतिमय और सुखमय जीवन मिल सकता है।
यह पुस्तक ‘गीता’, ‘कुरान’, ‘बाइबल’ या ‘ग्रंथ सािहब’ नहीं है। इस पुस्तक को पढ़ने से कोई चमत्कार नहीं होगा-जादुई लकड़ी नहीं फिरेगी। यह पुस्तक पढ़ लेने से आपका वैवाहिक जीवन बिगड़ा होगा तो सुधर नहीं जाएगा और होना होगा तो आदर्श विवाह भी साबित नहीं होगा।
इस पुस्तक में कुछेक ऐसे अनुभव हैं, कुछेक ऐसी जानकारियाँ एवं वैज्ञानिक पद्धतियाँ हैं, जिन्हें आपको समझकर, पहचानकर अपनाना पड़ेगा। अगर आपको अपना वैवाहिक जीवन सुखमय बनाना है तो आपका अपना फॉर्मूला इस पुस्तक में दी गई जानकारियों, सूचनाओं और अनुभवों के आधार पर ढूँढ़ निकालना पड़ेगा।
संक्षेप में, यह एक परोसी गई थाली है। आपको किस प्रकार से, क्या और कितना खाना है, यह तो स्वयं ही तय करना पड़ेगा। अपने स्वयं के हाथ से खाना भी पड़ेगा और कौर को चबाकर गले से उतारने के बाद पचाना भी पड़ेगा।
जिस संबंध को आपको जीना है, उस संबंध को किस प्रकार से जीने से शांति और सुख मिलेगा, कोई बता भी सकता है, यानी दिशा-निर्देश कर सकता है; लेकिन उस दिशा में चलकर जाना तो आपको खुद ही होगा। आपके बदले में कोई प्रवास करे, आपके बदले में कोई खा ले, कोई दवाई ले ले अथवा आपके बदले में आपका वैवाहिक जीवन कोई सुधार सके, यह संभव ही नहीं है।
मानवमात्र को सुख और स्वीकार की खोज होती है।
शांति उसका परम ध्येय होता है।
इन्हें प्राप्त करने के लिए कहीं भी बाहर जाने की, भटकने की अथवा शोध करने की जरूरत नहीं होती। ये तीनों तत्त्व आपके अंदर ही हैं। आपकी त्वचा, खून और मांस की तरह ये आपके अस्तित्व का भाग हैं। अपने अंदर से इसे ढूँढ़कर उसे अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाना, यह आपका दायित्व है।
ईसा मसीह ने जिस प्रकार कहा है, ‘जिसने पाप न किया हो, वह पहला पत्थर मारे।’ हम सभी अगर इस वाक्य को याद रखकर जीने का प्रयत्न करेंगे तो शायद कोई एक-दूसरे पर पत्थर नहीं मारेगा!
-काजल ओझा वैद्य.
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आई लव यू
लेखक : काजल ओझा वैद्य
पृष्ठ : 232
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
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