'रिपोर्टिंग इंडिया' भारतीय पत्रकारिता जगत् में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले, प्रेम प्रकाश के जीवन और समय का एक रोचक वर्णन है। एक फोटोग्राफर, फिल्म कैमरामैन और स्तंभकार के रूप में प्रकाश ने अपने लंबे और शानदार कैरियर के दौरान देश-विदेश की प्रमुख घटनाओं को कवर किया और इस दौरान प्राकृतिक आपदाओं, युद्धों, सैन्य तख्तापलट और उग्रवाद के गवाह भी बने।
यह पुस्तक प्रकाश के बेमिसाल काम की सराहना करती है, जिसमें उनके व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन की विस्तृत जानकारी दी गई है। साथ ही उनकी ओर से कवर की गई सबसे प्रभावशाली खबरों की यादें भी ताजा करती है, जिनमें 1962 के भारत-चीन युद्ध से लेकर पाकिस्तान के खिलाफ 1965 और 1971 के युद्ध और आपातकाल से लेकर इंदिरा गांधी की हत्या तक शामिल हैं । साथ ही, लाल बहादुर शास्त्री की दुर्भाग्यपूर्ण ताशकंद यात्रा से लेकर बांग्लादेश की मुक्ति और जवाहरलाल नेहरू के निधन से लेकर नरेंद्र मोदी के उत्थान तक की खबरें शामिल हैं।
पढ़ने में बेहद दिलचस्प यह पुस्तक भारतीय इतिहास के कुछ निर्णायक क्षणों को जीवंत बना देती है।
इस पुस्तक के लेखक हैं प्रेम प्रकाश जिनके सबसे महत्त्वपूर्ण योगदानों में ए.एन.आई. (ANI) समाचार एजेंसी है, जिसे उन्होंने सन् 1971 में स्थापित किया। ’90 के दशक में रॉयटर्स ने ए.एन.आई. में एक हिस्सेदारी खरीदी और बाद में जल्दी ही वह दक्षिणी एशिया की प्रमुख ऑडियो-वीडियो यानी दृश्य-श्रव्य समाचार एजेंसी बन गई। आज ए.एन.आई. दुनिया की सबसे बड़ी संस्था है, जिसके अंतर्गत लगभग 300 संवाददाता एवं कैमरामैन कार्यरत हैं। लगभग 100 देशों से अधिक के सभी अंतरराष्ट्रीय समाचार संगठन भारतीय खबरें ए.एन.आई. से प्राप्त करते हैं।
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मेरी लंबी पेशेवर यात्रा सन् 1952 से आरंभ हुई, जब मैं बंबई से इतालवी जहाज ‘एम.वी. नेपच्यूनिया’ से इटली के लिए रवाना हुआ। फिर वहाँ से गाड़ी द्वारा मैं स्विट्जरलैंड और अंत में ग्रेट ब्रिटेन गया। उन बंदरगाहों में एक अदन था। यहाँ विदेश में एक युवा भारतीय के रूप में मुझे यह जानकर गर्व होता है कि मेरे देश की उच्च प्रतिष्ठा थी। वहाँ मुद्रा के रूप में भारतीय रुपए को सारी दुकानों व बाजारों में खुशी से स्वीकार किया जा रहा था। किसी भी व्यापारी की दिलचस्पी पौंड या अमेरिकी डॉलर में नहीं थी। रुपया उनकी पसंद की मुद्रा थी।
यूरोप में भी मुझे यह जानकर खुशी हुई कि भारत, मेरा नया स्वतंत्र देश, जवाहरलाल नेहरू के सक्षम नेतृत्व में समृद्धि की ओर आगे बढ़ रहा था। जिस-जिस से भी मैं वहाँ मिला, उसने इस बात का सम्मान किया।
मैं स्विट्जरलैंड, मोरल री-आर्मामेंट मुहिम द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए वहाँ गया, जहाँ मैंने एक फोटोग्राफर के रूप में कार्य किया। जल्दी ही मैं वहाँ व्यस्त हो गया-दिन-रात काम करते हुए, इस दिलचस्प सम्मेलन में शामिल होने आए दुनिया भर के प्रतिनिधियों की रिपोर्टिंग करने के लिए। इसके बावजूद मुझे उस देश में घूमने का समय मिल ही गया। इस दौरान मैं ज्यूरिख शहर घूमने गया, जहाँ मेरी मुलाकात ए.टी. फिस्टर से हुई, जिन्होंने ‘ए.टी.पी.’ नामक अंतरराष्ट्रीय फोटो एजेंसी स्थापित की थी। उन्होंने मुझे इस एजेंसी में भारतीय प्रतिनिधि के तौर पर शामिल होने के लिए आमंत्रित किया; एक ऐसा पद, जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
ए.टी.पी. ज्यूरिख में स्थित था, जो स्विट्जरलैंड का वित्तीय केंद्र था। वहाँ शहर में बैंकों की अद्भुत संख्या थी, जिनमें से उनके कई ग्राहक धनी भारतीय थे। रुपया एक वजनदार मुद्रा थी और उस समय भारत से धन की आवाजाही पर कोई प्रतिबंध नहीं था।
स्विस घड़ियों की प्रसिद्धि के बारे में सुनकर मैंने कुछेक घड़ियों के कारखानों का दौरा किया और मेहनती तकनीशियनों से मिलकर मैं काफी प्रभावित हुआ। मैंने कुछ कम कीमत की घड़ियाँ खरीदीं, जितनी मेरी तनख्वाह मुझे इजाजत दे रही थी। मैंने अपने लिए, अपने माता-पिता और छोटे भाई के लिए घड़ियाँ खरीदीं।
स्विट्जरलैंड में मैंने एक और खोज की-शराब (Wine) और सेब के सिरके (Cider) की। लंबे समय तक काम करने के बावजूद हम में से कुछ युवा थोड़ा बाहर घूमने चले जाते थे। कॉक्स गाँव के निकट एक ऐसी ही पिकनिक पर मैं भी पहली बार गया। मैंने पहली बार वाइन और सेब के सिरके का स्वाद चखा। भारत में बेशक, हमने वाइन के बारे में सुन रखा था, लेकिन ज्यादातर भारतीय तेज शराब पीना पसंद करते थे। वाइन एक प्रकार से सरल खमीर उठा हुआ जूस था। बहरहाल, मुझे इसका स्वाद काफी पसंद आया और इन वर्षों में दोस्तों की महफिल में मैं कभी-कभी वाइन का आनंद लेता रहा। आज भारत कुछ बहुत अच्छी वाइन का उत्पादन करता है और यहाँ तक कि इसका निर्यात भी करता है।
स्विस दौरे में मैंने एक और महत्त्वपूर्ण सबक सीखा, मैंने परिश्रम करने का आनंद लिया। मैंने कभी भी, एक दिन के लिए भी, स्वयं में लगातार काम करते हुए सुस्ती या थकावट महसूस नहीं की। इसका मतलब था कि मैं अपना काम सीख रहा था, अनुभवी कार्यकर्ताओं को देख और उन्हें सुन रहा था।
स्विट्जरलैंड से मैं यूरोप गया और अंतत: लंदन जा पहुँचा। वहाँ पहुँचते ही मुझे झटका-सा लगा। यहाँ ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी ने भारत की पहचान केवल सपेरों, हाथियों और राजकुमारों की धरती से अधिक कुछ न देखकर मैं चौंक गया। यह विश्वास इतना गहरा था कि भारत के प्रति इस विकृत दृष्टिकोण को किसी भी तर्क से बदला नहीं जा सकता था। इस अनुभव के बाद मैंने और भी दृढ़ता से तय कर लिया कि मैं अपना अधिकांश समय यह सुनिश्चित करने में लगाऊँगा कि भारत एक जीवंत, ऊर्जावान् एवं आधुनिक राष्ट्र के रूप में खड़ा है और उसे उसी स्वरूप में पहचाना जाए।
उस वर्ष के अंत में, जब मैं घर लौटा, मैंने बी.एल. शर्मा के साथ एक मुलाकात की, जो उस समय भारत सरकार में तत्कालीन प्रमुख सूचना अधिकारी थे। मैंने उनसे ए.टी.पी. फोटो एजेंसी में बतौर भारतीय प्रतिनिधि के रूप में मुझे मान्यता दिए जाने की माँग की।
इस प्रकार, मेरा पेशेवर कॅरियर आरंभ हुआ। वर्ष 1953 के आरंभ में मुझे भारत सरकार द्वारा इसकी अनुमति प्राप्त हो गई। इसने देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक मेरी पहुँच को आसान कर दिया। प्रधानमंत्री के आसपास के अधिकारी मिलनसार और सहयोगी थे। मैंने उनसे प्रधानमंत्री के जीवन के एक दिन का फोटो फीचर शूट करने की अनुमति चाही। श्री भट्ट, प्रमुख सूचना अधिकारी, ने इस विचार को नेहरूजी तक पहुँचाने का वादा किया। नेहरू अपने दोस्तों में ‘नेहरूजी’ के नाम से जाने जाते थे।
यह मेरे लिए सुखद आश्चर्य की बात थी कि मुझे जल्दी ही श्री भट्ट से बुलावा आ गया। उन्होंने मुझे प्रधानमंत्री आवास में उन लोगों से मिलने के लिए आमंत्रित किया, जो इस कार्य में मेरी मदद कर सकते थे।
प्रधानमंत्री आवास में मेरी मुलाकात सबसे पहले जिस व्यक्ति से हुई, वे थीं बिमला सिंधी, जो पश्चिमी पाकिस्तान की शरणार्थी थीं और अब प्रधानमंत्री के निजी स्टाफ में थीं। मैं उन्हें तब से जानता था, जब से वे मेरे पिता की फोटो शॉप अजंता फोटो स्टूडियो में नियमित रूप से आती रही थीं। मेरे पिता का स्टूडियो 72 क्वींसवे, अब जनपथ, नई दिल्ली में स्थित था। (जहाँ बाद में मैंने अपना व्यवसाय ‘एशियन फिल्म्स’ शुरू किया और जहाँ सन् 1957 में मैंने ‘विसन्यूज’ के भारतीय ब्यूरो की स्थापना की, जो एक अंतरराष्ट्रीय टेलीविजन समाचार एजेंसी है।)
प्रधानमंत्री नेहरू के आवास पर मेरा सबसे मित्रवत् स्वागत यशपाल कपूर द्वारा किया गया, जो नेहरूजी के निजी स्टाफ का हिस्सा थे। मुझे ‘बच्चे’ संबोधित कर यशपालजी ने एकदम सहज कर दिया, जो ‘बेटा’ के समान शब्द है। सारी उम्र मेरा जिक्र करते हुए उन्होंने इसी शब्द का प्रयोग किया। यह देख मुझे अत्यंत हैरानी हुई कि प्रधानमंत्री का स्टाफ कितना भरोसेमंद और अनौपचारिक था!
उस शाम जब नेहरूजी घर पहुँचे, तब यशपालजी और बिमला सिंधी ने प्रधानमंत्री से मेरा परिचय करवाते हुए वस्तुत: मेरा हाथ थाम लिया। मैं उस प्रतिक्रिया को कभी भूल नहीं पाया, जिस नजर से नेहरूजी ने मुझे देखा...मैं देखने में बहुत छोटा था और प्रधानमंत्री के जीवन के एक दिन का दस्तावेजीकरण करने में अनुभवहीन लग रहा था। परंतु अच्छी बात यह थी कि उन्होंने ‘न’ नहीं कहा, या उनके स्टाफ ने मेरी सिफारिश की या मेरे युवा लड़का होने पर वे मेरे प्रति दयालु हुए। मैं इस बात से अत्यंत उत्साहित था कि प्रधानमंत्री ने मुझ पर ध्यान दिया। इसके लिए मैं उनकी स्वीकृति के लिए प्रतीक्षा करने के लिए भी तैयार था। कुछ ही हफ्तों के बाद, जब मैंने यशपालजी को नियत तारीख देने के लिए तंग करना शुरू किया, तब उनका जवाब होता, “इतनी जल्दी क्या है? चलो, एक कप चाय पिओ।” लेकिन मुझे मेरी समय-सीमा को पूरा करने में चिंता होने लगी।
मुझे मालूम था कि होली एक ऐसा त्योहार है, जो भारत के पहले प्रधानमंत्री को प्रिय था। यह दो दिवसीय रंगों का त्योहार है, जिसे भारतीय वसंत के आगमन पर एक-दूसरे पर रंग और पानी डालकर मनाते हैं। यह एक फोटोग्राफर के लिए खुशी की बात है। हर साल इस त्योहार के समय बहुत से लोग तीन मूर्ति भवन के लॉन में इकट्ठा होते, जो प्रधानमंत्री का आधिकारिक निवास है। नेहरूजी आनेवाले लोगों से खुले रूप से मिलते और उनके साथ उत्सव में शामिल होते। उन्हें रंगों में सराबोर हो और मौज-मस्ती का लुत्फ उठाते हुए देखना अच्छा लगता था। तब वे अपने कुछ कैबिनेट सहयोगियों के घरों का दौरा करते और उनके साथ खुशी के माहौल में शामिल होते।
मैंने होली खेलते हुए प्रधानमंत्री की कई तसवीरें लीं और फिर उनसे मिलने आए महत्त्वपूर्ण आगंतुकों के साथ फोटो लेने का भी मौका मिला। यह मेरे कॅरियर की शानदार शुरुआत थी। लेकिन जल्दी ही मैं स्थिर फोटोग्राफी से दुनिया की चल तसवीरों एवं न्यूजरील्स की ओर बढ़ गया।
सन् 1957 में मुझे दुनिया की पहली वैश्विक टेलीविजन समाचार एजेंसी का संस्थापक सदस्य होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ‘ब्रिटिश कॉमनवेल्थ इंटरनेशनल न्यूजफिल्म एजेंसी’ (BCINA) नामक संस्था, जिसे राष्ट्रमंडल प्रसारकों यूनाइटेड किंगडम की बी.बी.सी. एवं रैंक संगठन, ऑस्ट्रेलिया की ए.बी.सी. और कनाडा की सी.बी.सी. द्वारा स्थापित किया गया था।
बी.सी.आई.एन.ए. का लक्ष्य अपने तीन स्वामी प्रसारकों द्वारा विश्वव्यापी समाचारों की विस्तृत सूचनाओं को प्रदान करना और उन्हें टी.वी. नेटवर्क के द्वारा सारे विश्व में बेचना था। दुर्भाग्य से, बी.सी.आई.एन.ए. नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पकड़ नहीं बना पाया। इसके लिए कई बार ‘ब्रिटिश’ शब्द प्रयुक्त किया गया और कुछ देशों ने इसका प्रयोग करने से इनकार कर दिया। बी.सी.आई.एन.ए. की टेलीग्राफिक पहचान ‘विसन्यूज’ थी, जिसे इस कंपनी के नाम के तौर पर अपनाया गया। शुरुआत से ही इस एजेंसी ने सभी महत्त्वपूर्ण विश्व केंद्रों में अपना ब्यूरो स्थापित कर लिया। दिल्ली भी उनमें से एक थी।
‘विसन्यूज’ विश्व की पहली टेलीविजन समाचार एजेंसी बनी, जो हर समाचार को दुनिया के हर कोने तक पहुँचाती थी। जिस समय इसकी शुरुआत हुई, उस समय कोई भी उपग्रह, इंटरनेट, वीडियो या इलेक्ट्रॉनिक उपकरण उपलब्ध नहीं थे। इसका मतलब है कि अंतरराष्ट्रीय टेलीविजन समाचार फिल्म को एयर कार्गो के द्वारा आगे बढ़ाया जाता, जो एक धीमी और बोझिल प्रक्रिया थी, लेकिन जो उस समय अच्छे से काम करती थी।
जब लंदन में ‘विसन्यूज’ की स्थापना पर चर्चा हुई, तब मैंने ऐसी व्यवस्था तैयार की, जिसमें मैं भारत में ‘विसन्यूज’ ब्यूरो के लिए एशिया की विस्तृत सूचनाओं के लिए काम करूँगा, ताकि पत्रकारिता के अन्य प्रयासों को जारी रख सकूँ। इस प्रकार, मैं एशियाई फिल्मों का प्रबंधन करने में सक्षम हुआ, जो आज बन गई-एशियन न्यूज इंटरनेशनल (ANI)।
‘विसन्यूज’ एशिया के प्रमुख के रूप में मुझे ‘विसन्यूज’ के कार्यालय को विभिन्न केंद्रों में खोलने का कार्य सौंपा गया, जिसकी शुरुआत सिंगापुर से की गई। बेशक, बाद में वह कार्यालय ‘विसन्यूज’ द्वारा निर्मित सामग्री के वितरण का क्षेत्रीय केंद्र बन गया, हालाँकि उन दिनों सिंगापुर भारत के किसी छोटे से शहर के समान था, जो बाद में एशियाई वित्तीय और वाणिज्य का दिग्गज बन गया।
सिंगापुर से मैं जकार्ता की ओर चला गया, जो इंडोनेशिया की राजधानी है, एशिया के कद्दावर स्वतंत्रता सेनानी सुकर्णो जिसके राष्ट्रपति थे। जकार्ता से मैं हांगकांग गया, जो उस समय एक सुस्त-सा शहर था; लेकिन जल्दी ही शीतयुद्ध के दौरान उसे महत्त्व मिलने लगा।
लेकिन जब ‘विसन्यूज’ का विस्तार हो रहा था, उस समय क्षेत्रीय शीतयुद्ध, भारत-पाक तनाव, तिब्बत में अशांति, भारत की उच्च हिमालयी सीमाओं में चीन की घुसपैठ आदि मसले भी आरंभ हो गए। इन नए आयामों की नए ढंग से रिपोर्टिंग करने पर मैंने अपना ध्यान केंद्रित करना शुरू किया। एशिया में ऐसे ‘गरम मुद्दों’ की संख्या बढ़ने लगी थी।
भारत अब वास्तविक राजनीति के क्षेत्र में आगे बढ़ने लगा था। पाकिस्तान ने सोवियत संघ के खिलाफ शीतयुद्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका का साथ दिया। बदले में पाकिस्तान को बड़े पैमाने पर सशस्त्र बल एवं हथियार मिलने लगे। पेशावर अमेरिकी वायु सेना के गुप्त अड्डे के रूप में सामने आया, जहाँ से U-2 के जासूसी विमान सोवियत संघ के लिए उड़ान भर सकते थे।
जवाहरलाल नेहरू ने भारत की सीमाओं पर चीनी महत्त्वाकांक्षाओं को रोकने के लिए चीन के साथ कूटनीति और मित्रता का इस्तेमाल किया। नेहरूजी ने चीनी प्रधानमंत्री झोउ एनलाई का हाथ थामा और उन्हें अपने साथ तटस्थ आंदोलन में शामिल कर लिया। उस समय चीन को अभी साम्यवादी चीन के रूप में संयुक्त अमेरिका और अधिकांश पश्चिमी देशों द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं हुई थी।
क्या कोई और तरीका था, जिससे चीन के साथ अपने संबंधों को भारत सँभाल सकता? इस प्रश्न का उत्तर लंबे समय तक इतिहास में झूठ ही साबित होगा। परंतु उस समय देश यह मानता था कि अगर नेहरू को लगता है कि यह भारत के हित में सर्वोत्तम है तो ऐसा ही होना चाहिए।
भारतीयों को नेहरू की विदेश नीति पर अंधा भरोसा था। इसके विपरीत सोचना उनके अपने राष्ट्रीय नायक के प्रति विश्वासघात करना होगा। जब तक भारत चीन के असली इरादे से वाकिफ होता, उसने अक्साई चिन की ओर से तिब्बत के लिए शॉर्टकट के रूप में एक सड़क बना ली। भारत ने इस क्षेत्र की उपेक्षा की थी और नेहरू ने संसद् में बोलते हुए इसे एक ऐसे क्षेत्र के रूप में वर्णित किया, जहाँ ‘घास का तिनका तक नहीं उगता था।’ जाहिर सी बात है कि जमीन का बंजर होना इस क्षेत्र को नजरअंदाज करने का पर्याप्त कारण नहीं था, जबकि यह एक रणनीतिक क्षेत्र था। परंतु आश्चर्य की बात है कि मीडिया ने इस संबंधी अधिक प्रश्न पूछने में बहुत झिझक दिखाई और तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
भारत को चीन के साथ अपने संबंधों को लेकर सबसे बड़े संकट का सामना सन् 1962 में करना पड़ा, जब दोनों देशों के बीच तनाव एक नए उच्च स्तर पर पहुँच गया। इसकी शुरुआत भारतीय सीमा पुलिस के गश्ती दल की चीनी सैनिकों द्वारा हत्या किए जाने से हुई। चीन द्वारा ऐसा व्यवहार किए जाने के बावजूद भारत ने अपनी सेना को अपनी सीमाओं पर नहीं भेजा। भारतीय पुलिस द्वारा गश्त को पर्याप्त माना गया। हालाँकि, चीनियों ने पहले ही अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी। उस समय भारत ने लौटती हुई सेना के साथ लड़ने जैसी काररवाई दिखाई।
27 मई, 1964 को नेहरूजी का निधन हो गया। कई मायनों में वह व्यक्ति टूट चुका था, जिसे अहसास होने लगा कि वह भारत को छोड़ रहा है-एक ऐसा देश, जिसे वह सबसे अधिक प्यार करता था, जिसके अनेक मसले अभी भी अनसुलझे थे। उसने सन् 1962 में चीन युद्ध से मिली पराजय के बाद भारतीय सेना की शक्ति-सामर्थ्य और गौरव को बहाल करने के लिए स्वयं के लिए मौत को गले लगा लिया।
लाल बहादुर शास्त्री नेहरू के उत्तराधिकारी बने। जैसाकि अपेक्षित था, पाकिस्तान के नए बने सैन्य शासक जनरल अयूब खाँ ने भारत के विनम्र दूसरे प्रधानमंत्री के बारे में अधिक नहीं सोचा। उसने अपना पहला उत्तेजक कदम कच्छ के रण में उठाया, जो भारत के पश्चिमी तट गुजरात का एक दलदली क्षेत्र था। उस साहसिक कदम के बाद अयूब खाँ ने संपूर्ण स्तर पर भारत के साथ युद्ध छेड़ दिया, जिसके दौरान लाहौर को रौंद डालने की धमकी देते हुए भारतीय सेना ने सीमा पार की।
प्रधानमंत्री के रूप में शास्त्रीजी का कार्यकाल बहुत छोटा रहा। सन् 1966 में ताशकंद में पाकिस्तान के साथ शांति वार्त्ता के दौरान उनकी आकस्मिक मृत्यु होने पर नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री कार्यालय में बिठा दिया गया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने उसका विरोध किया। उन्हें उम्मीद थी कि इंदिरा गांधी उनके फरमान का पालन करेंगी, परंतु उन्होंने साफ इनकार कर दिया।
इस कारण, सन् 1969 में पार्टी दो हिस्सों में टूट गई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसने भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में देश का नेतृत्व किया था, के विभाजन की बात ने देश को स्तब्ध कर दिया। लेकिन इंदिरा गांधी मजबूत इरादोंवाली थीं। भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री बन उन्होंने अपने विरोधियों का मुकाबला बाघिन समान किया और तीन बार प्रधानमंत्री बन देश-सेवा की।
मैं इन सभी घटनाओं में शामिल रहा, जिन्होंने भारतीय इतिहास को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
’60 के दशक में टेलीविजन प्रौद्योगिकी के विकास के परिणामस्वरूप समाचार एवं दृश्य सामग्री के वितरण के तरीके में तेजी से बदलाव आने लगा। टेलीविजन समाचारों को प्रसारित करने का मुख्य माध्यम बनता गया। सुबह के समाचार-पत्र की बजाय दैनिक टी.वी. समाचार बुलेटिन सूचना का पसंदीदा स्रोत बन गया। यह एक चुनौती थी, जिसके बारे में मेरा मानना है कि ‘विसन्यूज’ एवं एशियन फिल्म्स की मुलाकात बहुत अच्छे तरीके से हुई, जिसने उन्हें नए टेलीविजन युग में अग्रणी रूप से स्थापित कर दिया।
वर्ष 1971 में भारत में टी.वी. की पैठ में भारी वृद्धि देखी गई। दूरदर्शन तसवीरें प्रसारित करने के लिए उपग्रहों का इस्तेमाल करने लगा, सार्वजनिक सेवा प्रसारक तकनीकी रूप से उन्नत हो राष्ट्रीय टेलीविजन नेटवर्क बन गया। यहाँ समाचारों के लिए बहुत भूख थी। अभी दशकों पहले भारत में काम करते हुए निजी टी.वी. चैनलों को अनुमति दी गई।
पाकिस्तान में सन् 1971 के आम चुनावों के नतीजों ने सिद्ध कर दिया कि पाकिस्तान की जनता ने सेना और जुल्फिकार अली भुट्टो को सिरे से नकार दिया था। बंगाली शेख मुजीबुर्रहमान बहुमत के नेता के रूप में उभरे, जिन्होंने उचित रूप से पाकिस्तान का प्रधानमंत्री होने का दावा किया। परंतु उनके दावे को पाकिस्तानी सेना और जुल्फिकार अली भुट्टो ने एकदम से खारिज कर दिया, जिस कारण पूर्वी पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर सैन्य काररवाई की गई। अवामी लीग के नेताओं, जिन्होंने मुजीबुर्रहमान का समर्थन किया था, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
पाकिस्तानी सेना ने वहाँ की हिंदू आबादी को पूर्वी पाकिस्तान की ओर खदेड़ना शुरू कर दिया। भारत में अवामी लीग के प्रति सहानुभूति थी। जल्दी ही भारत में लगभग 10 लाख लोगों को शरणार्थी शिविरों में रखा गया था। भारत ने निर्वासित बँगलादेश की सरकार को मान्यता दे दी। दिसंबर में भारत-पाक युद्ध छिड़ गया, जिसके परिणामस्वरूप भारत की जीत हुई और 16 दिसंबर, 1971 को 93,000 से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों ने बड़े पैमाने पर आत्मसमर्पण कर दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह किसी भी सेना द्वारा किया गया सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था। इसने पूर्वी पाकिस्तान का अंत कर दिया, क्योंकि बँगलादेश का जन्म हुआ था। मुजीबुर्रहमान द्वारा किए गए सत्ता पर उनके वास्तविक दावे से इनकार करने के कारण अंतत: पूर्वी पाकिस्तान में स्वतंत्रता की लड़ाई हुई और बँगलादेश के रूप में एक नए राष्ट्र का जन्म हुआ।
मैं उस समय के अंत में हफ्तों तक पूर्वी पाकिस्तान में रहा। वहाँ मैंने घटनाओं और इतिहास को प्रत्यक्ष बनते हुए देखा।
वर्ष 1973 तक मैंने दिल्ली में उत्पादक-मूलक एक स्वतंत्र टेलीविजन कार्यक्रम की स्थापना की। भारत के पास उस समय तक केवल टी.वी. नेटवर्क था, जो राज्य के स्वामित्व वाला दूरदर्शन था; लेकिन मैं अभी भी दुनिया को भारत की कहानी सुनाने के लिए अपनी स्वतंत्र टी.वी. समाचार सेवा शुरू करने के सपने के लिए प्रतिबद्ध था।
वर्ष 1991 में जब भारत में उपग्रह क्रांति आई, तब अचानक से स्वतंत्र टी.वी. समाचार चैलनों का विस्फोट हुआ। माॅस्को, हांगकांग, फिलीपींस जैसे स्थानों से संचारित चैनलों को उपग्रहों के माध्यम से जोड़कर पूरे भारत में प्रसारित किया जाने लगा। हालाँकि, भारत सरकार को स्वतंत्र टी.वी. चैनल पसंद नहीं थे, परंतु अब वही चैनल भारत की सीमाओं से परे यहाँ जुड़ रहे थे।
भारत का पहला स्वतंत्र टेलीविजन समाचार बुलेटिन माॅस्को से सिद्धार्थ श्रीवास्तव के ए.टी.एन. चैनल द्वारा लिंक किया गया। उन्हें ‘विसन्यूज’ एवं ए.एन.आई. से नियमित समाचार सेवा प्राप्त होती रही। ‘विसन्यूज’ बाद में रॉयटर्स ने अपने अधीन ले लिया और यह ‘रॉयटर्स टेलीविजन’ बन गया। मैं एक कदम और आगे बढ़ा। रॉयटर्स का ए.एन.आई. के साथ गठबंधन कर इस उपमहाद्वीप के समाचार सारी दुनिया में वितरित किए जाने लगे। इसका वर्णन पुस्तक में किया गया है।
एक प्रमुख ब्रिटिश संवाददाता ने एक बार टिप्पणी की थी कि भारत में कोई पूर्ण विराम नहीं है। यह बात निश्चित रूप से भारतीय समाचार और राजनीति पर लागू होती है। निश्चित रूप से, मैं पहले से अधिक व्यस्त होता गया। उस समय अफगानिस्तान में चल रहा युद्ध प्रमुख रुचि बन गया। (सन् 1978 के बाद मैंने बहुत समय अफगानिस्तान में बिताया और सारे देश की यात्रा कर वहाँ की प्रमुख घटनाओं को कवर किया।) समाचार अब वास्तविक समय में स्थानांतरित किए जा रहे थे। प्रतिदिन टी.वी. समाचार चैनलों के साथ नई तकनीक का उदय हुआ। सभी चैनल्स अपने दर्शकों को लाइव खबरें देने के लिए हाथ-पैर मारने लगे थे।
मैंने निम्नलिखित अध्यायों में ’60 के दशक से नई शताब्दी तक भारत की रिपोर्टिंग करने के अपने अनुभवों को सुसंगत वर्णन द्वारा बुनने का प्रयास किया है। एक सक्रिय पत्रकार के रूप में मेरे कॅरियर का विस्तार पाँच दशक तक फैला। उसके बाद मैं ए.एन.आई. का मार्गदर्शन करने लगा। मैंने अपनी आँखों से भारत को उभरते, मजबूत होते और फलते-फूलते देखा।
यह मेरे द्वारा देखी गई बड़ी प्रगति का प्रत्यक्षदर्शी विवरण है। यह पत्रकार के रूप में मेरी और वर्ष 1947 के बाद से देश को बनता देखने की कहानी है। अब हम जो रोमांचक बदलाव देख रहे हैं, यह उसका भी विवरण है, जिसमें भारत के अपने भाग्य की ओर बढ़ने की गति और आधुनिक दुनिया में राजनीतिक एवं प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में बढ़ने के साथ इससे ए.एन.आई. की नियति को भारत की प्रमुख टेलीविजन समाचार एजेंसी के रूप में परिलक्षित होते देखने की भी प्रत्यक्ष गवाही है।
-प्रेम प्रकाश.
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रिपोर्टिंग इंडिया
लेखक : प्रेम प्रकाश
अनुवाद : जसविंदर कौर बिंद्रा
पृष्ठ : 235
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पुस्तक लिंक : https://amzn.to/3c79c4V
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