प्रभात प्रकाशन ने भारतीय शूरवीरों की शौर्यगाथाओं पर कुछ बेहद खास पुस्तकें प्रकाशित की हैं जिनमें चिरंजीव सिन्हा की दो पुस्तकें-‘जरा याद उन्हें भी कर लो’ और ‘रक्त का कण-कण समर्पित’ , ऋषि राज की पुस्तक ‘देशभक्ति के पावन तीर्थ’, ब्रिगेडियर बी. एस. मेहता की ‘टैंकमैन’ तथा मेजर जनरल शुभी सूद की पुस्तक 'भारतीय सेना के शूरवीर' शामिल हैं।
देशभक्ति के पावन तीर्थ / ऋषि राज
यह पुस्तक समावेश है यात्रा-वृत्तांत और वीरों से जुड़े ऐतिहासिक स्थलों का, जिसमें लेखक ने प्रयास किया है कि वे अत्यंत रोचक तरीके से आज की पीढ़ी को हमारे देश के स्वर्णिम इतिहास से अवगत करवाएँ। इस पुस्तक की शुरुआत 1857 की क्रांति से जुड़े स्थानों जैसे की बैरकपुर (पश्चिम बंगाल), वेल्लोर (तमिलनाडु) और मेरठ से की गई, जहाँ से आजादी की लौ प्रज्वलित हुई थी। भारत में इन जगहों के इतिहास पर तो आपको कई पुस्तकें मिल जाएँगी, पर यात्रा-वृत्तांत के साथ इतिहास के इस अनूठे मेल पर ऐसी पुस्तक शायद पहली बार प्रकाशित हो रही है।
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टैंकमैन / ब्रिगेडियर बी. एस. मेहता
सन 1947 तक गैर-लड़ाकू करार दिए गए और भारतीय सेना में योद्धाओं के रूप में शामिल होने से वंचित अदर इंडियन क्लासिक्स (ओ.आई.सी.), घुड़सवार सेना के सी स्क्वाड्रन का हिस्सा थे। महत्त्वाकांक्षी पीटी-76 उभयचर टैंकों से सुसज्जित होने के कारण उन्हें पूर्वी पाकिस्तान से आनेवाले खतरे का मुकाबला करने के लिए महत्त्वपूर्ण बोयरा इलाके के पास कबोदक नदी को पार करने का निर्देश दिया गया। 21 नवंबर, 1971 को पाकिस्तानी सेना के जो उम्दा फौजी थे और डींगें हाँकते थे कि एक पाकिस्तानी सैनिक तीन भारतीय सैनिकों के बराबर है, गरीबपुर में उनका टैंक बनाम टैंक के मुकाबले से पाला पड़ा। एक ही झटके में चौदह अमेरिकी एम-24 चाफी टैंक वाली तीन (अलग-अलग) बख्तरबंद स्क्वाड्रन पूरी तरह तबाह कर दी गईं और पैदल सैनिकों की दो बटालियन बुरी तरह रौंद दी गईं। वहीं दो पीटी-76 टैंकों के नुकसान के बदले तीन साब्रे एफ-86 जेट मार गिराए गए। भारतीयों और मुक्ति वाहिनी को सबक सिखाने के लिए जनरल एएके नियाजी ने जिस सबसे बड़े हमले की योजना बनाई थी, वह धुआँ-धुआँ हो गई। 45वीं घुड़सवार सेना ने भारतीय इतिहास में एक नया अध्याय लिख दिया था।
300 से 700 मीटर के इलाके में लड़ी गई लड़ाई ने एक स्क्वाड्रन के हाथों दूसरी स्क्वाड्रन की पूरी तबाही की एक अद्भुत मिसाल कायम की। इसने अजेय होने के पाकिस्तानी भ्रम को तोड़ दिया और जनरल याहया खान समेत उनके जनरलों की मंडली में खलबली मचा दी। सातवाँ बेड़ा जब तक बंगाल की खाड़ी में दाखिल होता, तब तक पाकिस्तान के 93,000 सैनिक मित्र वाहिनी (भारत-बांग्लादेश की संयुक्त सेना) के आगे आत्मसमर्पण कर चुके थे, और बांग्लादेश आजाद हो चुका था।
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जरा याद उन्हें भी कर लो / चिरंजीव सिन्हा
साधारणतया भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का कालखंड 1857 से 1947 तक माना जाता है, लेकिन विदेशी शासन का सबल प्रतिरोध इससे 332 वर्ष पहले सन् 1525 में ही प्रारंभ हो गया था, जब कर्नाटक के उलल्लाल नगर की रानी अब्बका चौटा, जो अग्निबाण चलानेवाली भारतवर्ष की अंतिम योद्धा थी, ने बढ़ते पुर्तगाली आधिपत्य को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था।
इस संग्रह में 1525 से 1947 अर्थात् लगभग सवा चार सौ वर्षों तक अनवरत प्रवहमान रहे विश्व के सर्वाधिक लंबे समय तक चले स्वतंत्रता संग्राम का वर्णन किया गया है। सबसे कम आयु में माँ भारती के लिए बलिदान होनेवाले ओडिशा के 12 वर्षीय बाजीराव राठउत के अमर बलिदान को पढ़कर भला कौन किशोर और युवा रोमांचित नहीं होगा! दुर्गा भाभी तमाम बंदिशों को धता बताते हुए किस चतुराई से भगत सिंह को अंग्रेजों की नाक के नीचे से लाहौर से कलकत्ता निकाल ले गईं, यह आज भी मिशन शक्ति की प्रेरणा है। तात्या टोपे की बिटिया मैना देवी ने जनरल आउट्रम के सामने झुकने की जगह जिंदा आग में जलना स्वीकार किया और अजीजन बाई ने यह दिखाया कि समाज का हर तबका चाहे वह तवायफ ही क्यों न हो, देश की आजादी के लिए मर-मिटने को तैयार रहता है।
भारतवर्ष के ऐसे ही 75 वीरों और वीरांगनाओं का दाँतों तले उँगली दबाने सदृश अनछुआ वर्णन जो इन अनजाने क्रांतिवीरों के प्रति स्वाभाविक श्रद्धा और सम्मान सृजित करेगा।
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भारतीय सेना के शूरवीर / मेजर जनरल शुभी सूद
बाल अपराधों के तेजी से बढ़ने के साथ साथ अपराध करने के तौर तरीके भी बदल रहे हैं। यदि इन बच्चों का ध्यान सशस्त्र सेनाओं के सर्वोच्च बलिदान कर देनेवाले या निश्चित मौत के मुँह से बिना खरोंच के लौट आए उन अनेक शूरवीरों की हैरान कर देनेवाली शौर्यमयी घटनाओं तथा उनके पीछे के जज्बे पर केंद्रित हो जाए तो यह बच्चों को ऐसे शूरवीरों के नक्शेकदम पर चलने के लिए उनके भीतर उपजे प्रेरणादायक विचार की एक खुराक का काम कर सकता है। जहाँ पाँच गोरखा राइफल्स के सूबेदार किशनबीर सिंह नगरकोटी ने चार बार आई ओ एम जीतकर इतिहास रचा, वहीं सारागढ़ी के युद्ध में 21 सिख जवानों को प्रथम श्रेणी आईओएम से सुसज्जित किया जाना अपने आप में दुर्लभ, गौरवशाली और अप्रतिम घटना है।
यह पुस्तक देश के स्कूली बच्चों को ध्यान में रखकर लिखी गई है। जो उनमें देशभक्ति, शूरवीरता, निडरता और परस्पर सहयोग की भावना जाग्रत् करती है।
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रक्त का कण-कण समर्पित / चिरंजीव सिन्हा
आज बराबरी और सम्मान के जिस मुकाम पर हम खड़े हैं, वहाँ हम यों ही नहीं पहुँचे हैं। इसके लिए हमें अनगिनत कुरबानियाँ देनी पड़ी हैं, लाखों जवानियाँ काल-कोठरी के पीछे खुशी- खुशी कैद हुई हैं। उनमें से कुछ को ही हम जानते हैं और बाकियों की स्मृति कस्बों एवं गाँवों में सिमटकर रह गई है।
यह पुस्तक ऐसे ही गुमनाम स्वातंत्र्य साधकों के बारे में है, जिन्होंने अपना सर्वस्व भारतमाता की स्वाधीनता के लिए हँसते-हँसते न्योछावर कर दिया, पर वे इतिहास की नामचीन क्या, साधारण सी पुस्तकों का भी हिस्सा नहीं बन सके। चिरंजीव सिन्हा की पुस्तक ' रक्त का कण-कण समर्पित” उत्तर प्रदेश के गुमनाम स्वाधीनता सेनानियों की प्रेरक गाथाओं का पठनीय संकलन है।
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