भगत सिंह की पिस्तौल की खोज

भगत सिंह की पिस्तौल की खोज

मैंने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन शहीद भगत सिंह पर पुस्तक लिखूँगा। लगता था कि मुझ जैसा इनसान प्रेम पर लिखेगा, उसकी सुंदरता पर लिखेगा। फिर सोचा कि क्या कोई प्रेम मातृभूमि के प्रेम से बड़ा हो सकता है...और वे नायक जिन्होंने इस प्रेम के लिए अपनी जान तक कुरबान कर दी...उनका क्या?

इस पुस्तक को सामने लाने का विचार नवंबर 2016 में उस समय आया, जब मैंने भगत सिंह की खोई हुई पिस्तौल को खोज निकाला। उन्होंने इसका इस्तेमाल अंग्रेज पुलिस अफसर जे.पी. सांडर्स को लाहौर में दिसंबर 1928 में मारने के लिए किया था। पिस्तौल का अंतिम लिखित रिकॉर्ड 1931 में मिलता है, जबकि इसे हिफाजत में रखने के लिए पुलिस को सौंपा गया था।

इस पिस्तौल को मैंने जब इंदौर में बी.एस.एफ. ऑफिसर्स के सामने हाथ से छुआ तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए। लगा, जैसे गले में कुछ अटक गया है। बहुत भावुकता में मैं उस हथियार को छू रहा था, जिसे ‘शहीद-ए-आजम’ ने इस्तेमाल किया था। अपने साथ रखा था।

हालाँकि मैं पिस्तौल को खोजने के मिशन में कामयाब हो गया था, लेकिन तब भी कुछ ऐसा था, जो इसकी प्रासंगिकता के बारे में कहना शेष था। मैंने पाया कि भगत सिंह ने इसके अलावा कभी किसी हथियार का इस्तेमाल किसी को भी मारने के लिए नहीं किया था। क्यों...? क्या आजादी को पाने के तरीकों को लेकर उनके भीतर किसी तरह का कोई बदलाव हुआ था? मैंने शहीद भगत सिंह को जानने का प्रयास किया। उनके विचारों को समझने की कोशिश की कि वे किस तरह देश को आजाद कराना चाहते थे? क्रांति को लेकर उनकी सोच क्या थी? हिंसा और अहिंसा की परिभाषा उनके लिए क्या थी?

मैंने इस बात को ध्यान में रखा कि फाँसी के तख्ते पर चढ़ाए जाने के इतने बरस बाद भी इस शहीद के सम्मान में लोगों के सिर क्यों झुक जाते हैं? उनके व्यक्तित्व की वे कौन सी करिश्माई खूबियाँ हैं, जो लोगों के दिलों को छूती हैं? इन सारे सवालों को लेकर जब मैं उस पिस्तौल को खोजने और पाने के सफर पर लिखने बैठा तो जल्दी ही मेरा कथानक विषय से आगे इस बात तक पहुँच गया कि वे आज भी कैसे उस देश में ज्यादा प्रासंगिक हैं, जहाँ धर्म, संप्रदाय और जातियों की संवेदना वोटबैंक की राजनीति के आधार के तौर पर तय हो चुकी है।

भगत सिंह द्वारा एक बार पिस्तौल का प्रयोग देश में क्रांति का प्रतीक बन गया, जबकि उनके पास खून-खराबे का रास्ता अपनाने और जारी रखने के सारे कारण मौजूद थे। लेकिन उन्होंने ऐसा न करने का फैसला किया। और तब सबसे बड़े अस्त्र के रूप में सामने आई उनकी कलम और यह जज्बा कि वे जो लिख रहे थे, वह क्रांति के लिए ज्यादा मजबूत और प्रभावी हथियार साबित होंगे। निस्संदेह, वे किसी भी अन्य अहिंसक के मुकाबले ज्यादा बड़े, लेकिन कम आँके गए अहिंसक थे।

दुःखद है कि आजादी के बाद देश में एक के बाद एक आती गईं सरकारों ने मशीनरी और काम करनेवालों की तादाद पर तो विचार किया, लेकिन उनके विचारों को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। लाखों अन्य भारतीयों की तरह मैं भी सोचता हूँ कि अगर वे और जीते, तो आज हमारे देश की तसवीर क्या बेहतर न होती? या फिर हम जो वास्तव में उनको मानते हैं, उन धूर्त और चालाक राजनेताओं को नहीं समझ पाए, जिन्होंने आजादी के बाद भगत सिंह जैसे महान् शहीदों के विचारों को पीछे छोड़ दिया। मैं यह बताना चाहूँगा कि इस पुस्तक को लिखने का मकसद किसी तरह की हिंसा का महिमामंडन करना नहीं है, बल्कि मैं इसके जरिए एक 23 साल के युवा की बौद्धिकता को समझने और समझाने की कोशिश कर रहा हूँ। भगत सिंह पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर मैंने इस पुस्तक के जरिए उनके मन की उस समझ को शब्दों में उतारने की कोशिश भी की है, जो मेरे हिस्से आई।

मैं आज यह बहुत विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि उन्होंने न केवल विचारों की धरोहर, बल्कि ऐसा नक्शा भी युवाओं के लिए छोड़ा, जिस पर चलकर समाज को धर्म की बेड़ियों से मुक्त कराया जा सके। जहाँ सबको एक जैसे अधिकार और अवसर प्राप्त हो सकें।

-जुपिंदरजीत सिंह

भगत सिंह की पिस्तौल की खोज
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1. शुरुआत

मुश्किल से आठ बरस का बच्चा खेत में सूखी लकड़ियाँ और टहनियाँ बो रहा है। यह दृश्य 1915 में लायलपुर जिले के बंगा गाँव (अब पाकिस्तान) के एक खेत का है।

“क्या कर रहे हो?” पिता किशन सिंह ने पूछा।

“मैं बंदूकें बो रहा हूँ।” बालक ने बिना उनकी ओर देखे जवाब दिया।

हैरान पिता ने हँसी रोकते हुए पूछा, “बंदूकों का क्या करोगे?”

“मैं इनसे अपने देश को आजाद कराऊँगा, ताकि मेरे चाचाजी घर वापस आ सकें।” आँखों में दृढ़ संकल्प लिये बालक ने जवाब दिया।

यह बच्चा भगत सिंह था। गदरी इनकलाबियों के परिवार में जनमे इस बालक ने बहुत जल्दी देश के दुश्मनों का सामना करने के लिए जरूरी बंदूक की ताकत का अंदाजा लगा लिया था। सदियों पहले वे भारत में सस्ती काली मिर्च के व्यापार के लिए पहुँचे थे, क्योंकि इसकी असली उपजवाले देश हॉलैंड ने मसालों के दाम बेतहाशा बढ़ा दिए थे।

दक्षिण भारत में व्यापार के लिए पाँव जमाने के बाद वे शासक बन गए और 25 करोड़ भारतीयों को गुलाम बना लिया। यही वे कारण थे कि ब्रिटिश साम्राज्य ने भारतीय उपनिवेश को अपने मुकुट में मणि की तरह माना था।
उस बच्चे ने खेत में जो छोटा सा बीज बोया था, दरअसल यही अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का बीज भी था। उसने इस सोच को खाद-पानी दिया और एक दिन हथियार हाथ में लेकर आजादी पाने की राह पर बढ़ते हुए फाँसी के तख्ते को चूम लिया। उस वक्त भगत सिंह की उम्र महज तेईस बरस, पाँच महीने और चौबीस दिन थी। उन्हें महान् होना ही था। उन्होंने गदर आंदोलन के नायकों करतार सिंह सराभा और मदन लाल ढींगरा जैसे वीरों से प्रेरणा ली थी। भगत सिंह ने क्रांति की मशाल जलाई थी और वे शहीदों में शेर जैसी गर्जनावाले चंद्रशेखर आजाद जैसों के समकक्ष थे।

जिस चाचा के बारे में बालक भगत सिंह ने बंदूक बोने के समय बात की थी, वे थे-अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह। दोनों क्रांतिकारी थे। अजीत सिंह गिरफ्तारी से बचने के लिए विदेश चले गए और स्वर्ण सिंह गदर आंदोलन में हिस्सा लेने के आरोप में जेल काट रहे थे। भगत सिंह ने अंग्रेजों के जुल्म के प्रति पनपे आक्रोश और गुस्से को .32 बोर कोल्ट पिस्तौल यू.एस.ए. नं. 168896 के जरिए दुश्मनों पर उतारा था और हँसते-गाते फाँसी के तख्ते की ओर बढ़ गए थे। इस युवक ने अपने घर में चाचियों को रोते-दुःख भोगते देखा था। उसने जलियाँवाला बाग के बारे में सुना था। उसने ‘पंजाब केसरी’ लाला लाजपत राय के सिर को भेदती लाठी की आवाज को महसूस किया था...इन सब बातों से उपजा आक्रोश आखिरकार इस पिस्तौल के जरिए उस वक्त बाहर निकला, जब 17 दिसंबर, 1928 को लाहौर पुलिस स्टेशन में उसने पाँच गोलियाँ असिस्टेंट पुलिस सुपरिंटेंडेंट जॉन सांडर्स के शरीर में उतार दी थीं। इससे सिर्फ एक माह पहले ही लालाजी ने पुलिस की लाठी से हुए जख्मों की ताब न सहते हुए प्राण दे दिए थे।

भगत सिंह और उनके साथियों ने सोचा था कि वे जे.ए. स्कॉट (जिसने अंग्रेजों द्वारा गठित साइमन कमीशन का विरोध कर रही भीड़ की अगुआई करते हुए लाला लाजपत राय, जो ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ के नारे लगा रहे थे, पर लाठीचार्ज के आदेश दिए थे।) पर गोली चला रहे हैं। जिस व्यक्ति यानी जयगोपाल को जे.ए. स्कॉट की पहचान और पता लगाने के लिए कहा गया था, वह दरअसल इसमें चूक गया था और इधर भगत सिंह व राजगुरु प्रतिशोध ले चुके थे सांडर्स को मारकर।

अगले दिन एक लाल पोस्टर बाँटा गया, जिसमें कहा गया था-‘हम तीस करोड़ भारतीयों के प्रिय नेता लाला लाजपत राय को एक मामूली पुलिस अधिकारी स्कॉट द्वारा मारा जाना दरअसल हमारे देश का अपमान है। यह हम युवाओं और हमारे देश के पौरुष को एक चुनौती जैसा था। आज हमने दुनिया को दिखा दिया है कि हिंदुस्तानी न तो मुर्दा हैं और न ही उनकी रगों में खून की जगह पानी दौड़ रहा है।’

भगत सिंह हमेशा अपने साथ पिस्तौल रखा करते थे। सेंट्रल असेंबली दिल्ली में बम फेंकने के बाद वे जब पकड़े गए तो भी पिस्तौल के साथ ही पकड़े गए थे। बैलिस्टिक जाँच, जो कि उन दिनों में आसान नहीं थी, से शायद उस समय ऐसा पहली बार ही हुआ हो कि यह साबित हो सका कि 168896 नंबरवाली पिस्तौल से ही भगत सिंह ने सांडर्स की हत्या की थी। उस मामूली पिस्तौल से भगत सिंह ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया था और इसके बाद क्रांतिकारियों ने इसी राह को पकड़ते हुए प्रेरणा ली थी। लेकिन यही पिस्तौल, जिसका इतना महत्त्व था, आखिरी बार भगत सिंह के मुकदमे के आखिर में देखी गई थी। ब्रिटिश जज ने सी.आई.डी. के डी.एस.पी. नियाज अहमद को पिस्तौल, पुलिस ट्रेनिंग अकादमी फिल्लौर (जो कि अब भारतीय पंजाब के जालंधर जिले में है) भेजने का आदेश देते हुए सुपुर्द की थी।

पिस्तौल के बारे में यही अंतिम प्राप्त जानकारी मिलती है। लेकिन जैसा कि हमेशा पुलिस के मामलों में होता है, अदालती आदेश के बाद पिस्तौल फिल्लौर पुलिस ट्रेनिंग अकादमी तक पहुँची ही नहीं। यह बात भी इस घटना के 86 बरस बाद तब पता चलती है, जब हम इसकी पड़ताल करने फिल्लौर अकादमी पहुँचकर उनके रिकॉर्ड्स देखते हैं।

1980 और 90 में इतिहासकार और शोधार्थियों ने भगत सिंह के योगदान के बारे में बात करनी शुरू की, जिन्हें इस समय तक भारतीय सरकार द्वारा शहीद का दर्जा नहीं दिया गया था। शोधार्थियों ने उनसे संबंधित निशानियों और यादगारी चीजों को भी ढूँढ़ना शुरू किया था, लेकिन कोई भी उस पिस्तौल के बारे में पता नहीं लगा सका। पंजाब पुलिस और अन्य अधिकारियों ने इस संबंध में उनकी कोई मदद नहीं की। उनकी ज्यादातर दरख्वास्तों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। जानकारी के अभाव में इस पिस्तौल के बारे में कई तरह की अफवाहें फैलीं। कुछ का कहना था कि वह पिस्तौल ब्रिटिश जज द्वारा कभी पुलिस को सौंपी ही नहीं गई। कुछ कहते थे कि अब भी वह लाहौर (पाकिस्तान) कोर्ट के मालखाने में पड़ी है। किसी ने तो यह भी कहा कि पिस्तौल तस्करी करके देश से बाहर भेज दी गई है और किसी दिन इंटरनेशनल नीलामी में नजर आएगी। हद तो यह थी कि कुछ ने यह तक कहा कि पंजाब पुलिस के किसी अधिकारी ने ही उसे अपने घर में छिपाकर रखा हुआ है।

बहुत बातें हुईं, अफवाहें फैलीं, लेकिन शोधार्थियों और इस खोज में दिलचस्पी रखनेवालों की वजह से यह मुद्दा हमेशा ज्वलंत रहा और आखिरकार हम इसे खोजने में कामयाब हुए।

भगत सिंह की पिस्तौल की खोज
2. पहला सुराग

19 अक्तूबर, 2016 का दिन था। मेरी सहयोगी सारिका शर्मा ने ‘द ट्रिब्यून’ पृष्ठ-1 पर जो लिखा, उसने मेरे पत्रकारी जीवन की दिशा बदलकर रख दी। सारिका दरअसल कुछ समय से भगत सिंह के जीवन से जुड़े दस्तावेज और रिकॉर्ड्स को देख रही थीं। वे रिसर्चर अपर्णा वैदिक की रिसर्च पर एक सीरीज कर रही थीं, जो संभवत: पहली ऐसी भारतीय थीं, जिन्होंने लाहौर (पाकिस्तान) में भगत सिंह के मुकदमे से संबंधित कागज देखे थे। मैं इस सीरीज को बहुत गंभीरता और दिलचस्पी के साथ देख रहा था, लेकिन उस दिन मेरी उत्सुकता सीमा लाँघ गई। वे उसी विषय पर बात कर रही थीं, जो मुझे काफी समय से परेशान कर रहा था।

विषय था-भगत सिंह की पिस्तौल, जिससे उन्होंने सांडर्स को मारा था।

सारिका ने अपनी रिपोर्ट में सीधा पूछा था-भगत सिंह की पिस्तौल कहाँ है?

...मैं सोच रहा था कि कहाँ और कब मैंने इसके बारे में पढ़ा है? मैंने फिर से पढ़ा, लेकिन याद नहीं आया कि कहाँ। यह खबर देखिए, जिसके बारे में मैं बात कर रहा हूँ-

भगत सिंह फाइल पार्ट-4

लाहौर केस से जुड़ी चीजें कहाँ हैं?

सारिका शर्मा
ट्रिब्यून न्यूज सर्विस
चंडीगढ़, अक्तूबर 19

वह पिस्तौल कहाँ है, जिससे सांडर्स को मारा गया था? आठ दशक बीत जाने के बाद पंजाब स्टेट आर्काइव्स में पड़ी 160 पेज की फाइल कुछ अहम तथ्य बता रही है कि वह पिस्तौल या तो लाहौर किले में, लाहौर ग्वालमंडी पुलिस मालखाने में या पंजाब पुलिस अकादमी फिल्लौर में हो सकती है।

फाइल नं. 76 और 77 के मुताबिक पिस्तौल की संभावित लोकेशन के बारे में जानकारी मिलती दिखती है। इसमें कहा गया है कि 1929 में लाहौर षड्यंत्र केस का ट्रायल भुगत रहे क्रांतिकारियों के पास से बरामद हुए सामान, जिसमें कि सांडर्स को मारने के लिए इस्तेमाल हुई पिस्तौल भी शामिल थी, की कुल संख्या 825 थी।

बरामद किए गए सामान को मुख्यत: चार श्रेणियों में बाँटा गया। इसमें गैर-लाइसेंसी हथियार, बम, बम बनाने का सामान, कुछ केमिकल्स, विस्फोटक, कुछ प्रतिबंधित पुस्तकें शामिल थीं। फाइल में यह भी दर्ज है कि बम, हथियार, विस्फोटक, कपड़े, बरतन, पुस्तकें, फोटो, पत्र, नोटबुक्स और बाकी छिटपुट निजी सामान केस में पेश किए गए। बरामद की गई पुस्तकों की संख्या 300 थी।

76 व 77 नंबर फाइलों के रिकॉर्ड के अनुसार न केवल भगत सिंह की पिस्तौल, बल्कि हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारियों द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे सभी हथियार या तो लाहौर या फिर फिल्लौर में जमा किए गए होंगे। हाल ही में हरियाणा की एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में इतिहास की एक प्रोफेसर अपर्णा वैदिक ने इन रिकॉर्ड्स को देखा।

भगत सिंह की .32 बोर पिस्तौल को भी उस समय केस प्रॉपर्टी बनाया गया था। इसका नंबर था—168896।

चंडीगढ़ के प्रकाशक और लेखक हरीश जैन कहते हैं-“अब तक यह बात स्पष्ट हो गई है कि पिस्तौल रिकॉर्ड्स के साथ तो नहीं थी। लाहौर फाइल्स से मिली जानकारी के आधार पर अगर गंभीर प्रयास किए जाएँ तो भगत सिंह की पिस्तौल का पता लगाया जा सकता है।”

रिकॉर्ड्स के अनुसार 9 अक्तूबर, 1930 यानी फैसले के दो दिन बाद, लाहौर षड्यंत्र केस ट्रिब्युनल के रजिस्ट्रार मलिक फतेह खान ने लाहौर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के पास एक संदेश भेजा कि ट्रिब्युनल प्रेसिडेंट के आदेशानुसार लाहौर षड्यंत्र केस से जुड़ा सब सामान मालखाने में जमा करवाने के लिए आपके सुपुर्द कर दिया जाए। उन्होंने यह भी दरख्वास्त की कि मजिस्ट्रेट, डिस्ट्रिक्ट नाजिर (डिप्टी कमिश्नर के सहयोगी) को इन सारे सामान के लिए एक कमरा मुहैया कराने के लिए भी हुक्म दें।

8 अक्तूबर, 1930 को लिखे गए एक और खत में जे.एम. एवर्ट, जो बाद में इंटेलीजेंस ब्यूरो के मुखिया बने, ने सी.आई.डी. के डी.आई.जी. को यह सारा सामान सुरक्षित रखने के लिए लिखा था, ताकि इस सामान को आनेवाले दिनों में नए भर्ती हुए जवानों को अपराधियों के केस जाँचने की ट्रेनिंग देने के लिए इस्तेमाल किया जा सके। उन्होंने कहा कि सामान को स्पेशल ट्रिब्युनल रजिस्ट्रार की इजाजत से फिल्लौर म्यूजियम में रखा जा सकता है। जब इस सामान को अकादमी के प्रिंसिपल प्राप्त कर लें तो वे सारे सामान पर लेबल लगाकर उसकी विस्तृत जानकारी दें।

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भगत सिंह की पिस्तौल की खोज
लेखक : जुपिंदरजीत सिंह
अनुवाद : शायदा
पृष्ठ : 176
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
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