किन्नर : सेक्स और सामाजिक स्वीकार्यता

किन्नर / प्रियंका नारायण
एक अभिलाषा, जो इस पुस्तक में आरंभ से अंत तक है, वह यह है कि ‘सभी उम्र के लोग सीखने की इच्छा रखें।’ कुछ लोग कहते हैं कि वयस्क व्यक्ति की परिपक्वता से ही मनुष्य अपने लिए सत्य को पहचान पाता है। मुक्त विश्वविद्यालयों से संबंधित अनुभव, जो भारत और अन्य स्थानों पर प्राप्त किए गए हैं, उससे यह पता चलता है कि शिक्षा-उपयोगी वस्तुओं के साथ-साथ शिक्षकों की आदर व नम्रतापूर्ण उपस्थिति, अधिक उम्र के लोगों को पढ़ने के लिए आदर्श वातावरण उपलब्ध कराते हैं।

बचपन की कुछ अस्पष्ट-सी यादें ज़ेहन में उतर रही थीं, तब जबकि लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की ‘मैं हिजड़ा…मैं लक्ष्मी’ अभी-अभी समाप्त हो हथेलियों में अटकी हुई थी। आँखें खुली थीं लेकिन क्या देख रही थी पता नहीं…। मस्तिष्क में विचार चल रहे थे लेकिन स्पष्ट कुछ भी नहीं था। सब उलझ गये थे। विचारों की न तो कोई दिशा थी न कोई निष्कर्ष-सब गड्डमड्ड। होंठ खुले थे-कुल मिलाकर अवाक् की स्थिति। अगले कई दिन ऐसे ही बीते।

पूरी किताब पढ़ने के दौरान आँखों में कई बार झिलमिली उतर आती और थोड़ी देर तक वहाँ अटकर दूधिया और पीली रौशनी में सात रंग बनाती, तैरती, सब धुँधला कर देती, फिर धीमे-धीमे सूख जाती। कभी-कभार ऐसा भी हुआ कि एकाध झिलमिली आँखों से टप्प से सीधे किताब पर कूद जाती और फिर स्याह दाग छोड़ती, अन्तर की गहन पीड़ा का साक्ष्य देती अपने क्षणिक अस्तित्व की सार्थकता पर दम्भ भरती हुई शून्य की ओर प्रस्थान कर जाती। यह तब था जबकि आमतौर पर मेरा और मेरे क़रीबियों का मानना था कि मेरी आँखों में कभी आँसू नहीं आते हैं।

दरअसल हिजड़ा समुदाय के बारे में इस किताब के हाथ लगने से पहले अगर मुझसे कोई पूछता तो मेरे पास बस यही जवाब था कि हाँ! वे घर पर आते तो हैं, जब बच्चे का जन्म होता है या फिर यह कि देखा है-ट्रेन में आते हैं, पैसे माँगने। क्योंकि मोतिहारी जैसे छोटे शहरनुमा क़स्बों में सिग्नल या ट्रैफ़िक सिस्टम बड़े महानगरों की तरह नहीं हैं कि सिग्नल पर वे दिखें। वाराणसी में स्थितियाँ थोड़ी अलग हैं लेकिन इतना तो तय है कि यहाँ भी वे धड़ल्ले-से नहीं दीखते। सच कहूँ तो मेरे जे़हन में इनकी कोई तस्वीर ही नहीं थी। बचपन में ये हमारे लिए कौतूहल का विषय हुआ करते थे। जैसे ही घर में कोई मुस्कुराते हुए आकर कहता कि बाहर ‘आये’ हैं। हम पूछने लगते कि कौन आया है? कौन आया है? …सामान्यतः हमें कोई उत्तर नहीं मिलता और प्रत्युत्तर में मुस्कुराते हुए सभी बाहर की तरफ़ हो लेते। कभी-कभार बस ये होता कि अरे ‘वो’ आये हैं ‘वो’…जो ताली मारते हैं…बाहर नाच रहे हैं…चल देखने और हँसते हुए निकल लेते। आज लगता है कि ये सिर्फ़ हमारे ‘बचपने’ का कौतूहल नहीं है, बल्कि यह समाज का ‘कौतूहल’ है। वास्तव में हिजड़ा समुदाय को लेकर समाज आज भी अपने ‘बचपने’ के ‘कौतूहल’ को बनाये हुए है। न तो हम उस ‘कौतूहल’ का समाधान ही दे पा रहे हैं और न इस ‘कौतूहल’ से निकल ही पा रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि जब पहली बार वर्ष 2016 में इस विषय पर शोध के लिए मैंने विश्वविद्यालय में प्रस्ताव दिया तो कहा गया कि ‘सही नहीं है। हिन्दी में तो उनको ‘किन्नर’ भी नहीं कहते।’ मैंने मन-ही-मन दुहराया-‘हिजड़ा कहते हैं न।’ हालाँकि मैं इसे कह नहीं पायी क्योंकि हमारे यहाँ हिन्दी विभाग में आज भी लड़कियों से मध्यकाल के ‘सतीत्व’ की उम्मीद की जाती है। ऐसे में मैं उच्छृंखल यह ‘सात्विक’ मर्यादा कैसे तोड़ पाती? हालाँकि आश्चर्य और घृणा दोनों एक साथ पनपती हैं कि भारत में उच्च शिक्षा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले और हिन्दी के क्षेत्र में दम्भ भरने वाले इस विश्वविद्यालय में लड़कियों को लेकर इतनी कुण्ठा क्यों है और वह भी आज के दौर में।

वास्तव में इस किताब की ओर प्रेरित होने का बड़ा कारण यह भी था। जब लक्ष्मी जी की किताब ख़त्म हुई तो उस समय विचारों के गड्डमड्ड हो जाने के पीछे की एक स्थिति यह भी थी कि इस विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में लड़कियों की स्थिति आज भी ‘वस्तुमूलक’ है। वे सजावटी सामान से ऊपर नहीं समझी जातीं। सेमिनार, संगोष्ठियों में वे रंगोली बनाने, गुलदस्ता देने और पानी के बोतल पहुँचाने के काम आती हैं। किसी गोष्ठी में वे वक्तव्य रख सकें, इतना क़द नहीं है उनका और ग़लती से किसी का हुआ भी तो ‘दूसरे’ तरह के राजनीतिक प्रयोगों का मुहरा होती हैं। शतरंज की बिसात पर बस उन्हें आगे किया जा रहा होता है। विश्वविद्यालय की ऐसी ही बेकार की स्थितियों ने कहीं-न-कहीं उस दर्द और उपेक्षा को समझने में मदद की जो आज ‘तृतीय प्रकृति’ झेल रहा है। जब आज आज़ादी क्या बल्कि सभ्यता के इतने पड़ावों के बाद भी ‘आधुनिक भारत’ के तथाकथित ‘उच्च शिक्षा’ वाले संस्थानों में लड़कियों की ऐसी स्थिति है जहाँ विरोध में स्वर उठने पर चाहे वह अकादमिक या रोज़मर्रा की छेड़खानी को लेकर हो, वहाँ का ‘इंटैलेक्चुअल’ समाज सीधे उसके बिस्तर की कल्पनाएँ और कहानियाँ गढ़ने लगता है। भूल जाते हैं लोग कि सभ्यता किसी के कमरे में झाँकने की इजाज़त नहीं देती, ऐसी स्थितियों में ‘तृतीय प्रकृति’ के बारे में तो सोचा ही नहीं जा सकता। जब समाज में शैक्षणिक दायरे में ये स्थितियाँ हैं तो बाक़ी समाज की कल्पना आप ख़ुद ही कर सकते हैं।

ख़ैर! इन्हीं स्थितियों के बीच यह किताब लिखी गयी। या यूँ कहें कि यह एक कोशिश है ‘तृतीय प्रकृति’ के दर्द और उनकी स्थिति को समझने की। इस किताब में यदि आप केवल तथ्यात्मक या परिचयात्मक जानकारियों के लिए आयेंगे तो आपको निराशा होगी। यह किताब मूल रूप से तथ्यों और हिजड़ा समुदाय की वर्तमान स्थितियों के पीछे के सत्य को विश्लेषित करने की कोशिश करती है। उस लम्बी परम्परा और उसके पीछे के कारणों को खँगालने की कोशिश करती है जिसने इन्हें आज भी हाशिये पर ही बनाये रखा है।

आप कह सकते हैं इस बीच कई किताबें प्रकाशित हुई हैं। ऐसे में यह किताब क्यों? दरअसल हिन्दी में जो पुस्तकें आयी हैं उनमें से अधिकांश पुस्तकों का आयाम या तो आत्मकथात्मक है या उन पर केन्द्रित उपन्यास है। यहाँ उनके निजी जीवन के संघर्ष सामने आते हैं जिनका आधार सामान्यतया संवेदनात्मक होता है। हालाँकि, हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि उनके जीवन संघर्षों और संवेदनाओं के बीच से ही उन्हें समझने के कई आयाम हमारे सामने खुलते हैं। जैसे-लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की आत्मकथा ‘मैं हिजड़ा…मैं लक्ष्मी’ को ही लें या मानोबी बन्द्योपाध्याय की ‘A gift of goddess laxmi’ या फिर वर्ष 2018 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से पुरस्कृत ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’। इन पुस्तकों से हमें जीवन के गहरे संघर्ष, उनकी संवेदनात्मक स्थितियों को समझने का मौक़ा मिलता है। इसके साथ किताब लिखे जाने तक अंग्रेज़ी में भी कई किताबें आयी थीं जो इनके सन्दर्भ में संक्षिप्त सूचनाएँ देती हैं। इन्हीं वर्षों में हिन्दी में कई कहानी संग्रह (पूर्व की कहानियों के संकलन या स्वलेखन) या अनूदित कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए है। कहीं धर्म को लेकर विमर्श हुए हैं तो कहीं इतिहास को आधे-अधूरे तरीक़े से रखने की कोशिश की गयी है लेकिन अधिकांश किताबें एक ही बात को बार-बार रख रही हैं। कई आलेखों को देखने पर भी लगा कि 15 अप्रैल 2014 से लेकर आज भी स्थितियाँ जस की तस बनी हुई हैं, बातें वहीं पर हैं जहाँ से शुरू हुई थीं। अधिकांश आलेख एक ही तरह के तथ्य रख रहे हैं। मिथकों के नाम गिनाते हैं, वात्स्यायन के यहाँ इनका उल्लेख ‘तृतीय प्रकृति’ के रूप में है, मुग़ल काल में इनकी स्थिति सम्मानजनक थी लेकिन बात आज तक इससे आगे नहीं बढ़ पायी है।

किन्नर / प्रियंका नारायण

वास्तविकता यह है कि सूचनात्मक प्रसार के अलावा ‘क्यों’ और ‘कैसे’ जैसे प्रश्नों पर कोई बात नहीं हो पायी है। इससे भी आगे निकलें तो हम ‘किन्नर’ कहें या ‘हिजड़ा’ इस शब्दजाल से ही नहीं निकल पा रहे हैं। तमाम संस्थाएँ-संगठन काम कर रहे हैं, किताब-आलेख लिखे जा रहे हैं लेकिन अभी तक मूल विषय पर बात नहीं हो पा रही है। आख़िर समाज में किन्नर या हिजड़ा आये कैसे? आप कहेंगे प्रजनन से, लेकिन हिजड़ा होना अपने आप में न केवल प्रजनन बल्कि सांस्कृतिक प्रक्रिया भी है। और अगर ऐसा है तो ये अवधारणाएँ जन्मी कैसे? इनके बीज कैसे पड़े? इन्होंने आकार कैसे लिया? आख़िर कब और क्यों सेक्स को इनकी जीविका के रूप में निर्धारित कर दिया गया? गर्भ में आख़िर कौन-सी स्थितियाँ पनपती हैं कि इनका जन्म होता है? फिर पुराणों में (क्योंकि वे कथात्मक से ज़्यादा सूत्रात्मक और मन्त्र रूप हैं) जो वर्णन आता है किस हद तक इनकी चर्चा, सामाजिक स्थिति और इनकी क्या सम्भावनाएँ हैं और कैसे आगे चलकर इनसे सन्दर्भित भावनाएँ बदलती हैं, इस किताब में इन सब पर विस्तार से बात की गयी है। संवेदनाओं को टटोलने के साथ तथ्यों को गहराई से खँगालने की कोशिश की गयी है। साथ ही यह किताब ‘सेक्स’ को आधार कारण के रूप में समूची परम्परा के साथ रखकर विवेचना करती है कि कैसे ‘कामकला’ के विकास के साथ किन्नरों को समाज से अलग किया गया। इस तथ्य के आधार पर अभी तक बातों को रखने या समझने की कोशिश नहीं की गयी है जबकि इनकी आत्मकथाओं में ‘सेक्स’ और उससे जुड़े उत्पीड़नों या घुटन का ज़िक्र सबसे ज़्यादा होता है। यहाँ कामशास्त्र की पूरी परम्परा के साथ वात्स्यायन के विवेचन और निष्कर्ष को सामने रखकर समझने की कोशिश की गयी है। इसके अलावा सर्वेक्षण के माध्यम से इस समाज को समझने की कोशिश करते हुए साक्षात्कार इसका महत्त्वपूर्ण भाग है। कुल मिलाकर इस किताब के माध्यम से हिजड़ा या किन्नर समुदाय के ‘होने के कारण’ पक्ष को सामने लाने की कोशिश है।

इस किताब को लिखने में भी कम बाधाएँ नहीं आयीं। पहले यह किताब सम्पादित की जाने वाली थी लेकिन समय बीतता गया और कई लोग हाथ खड़े करते चले गये। कई बार ऐसा हुआ कि आँकड़ों के निष्कर्ष नहीं निकल पाये और अन्तिम समय में सारे आँकडे़ मुझे सुपुर्द कर दिये गये। इस तरह जो किताब सम्पादित होने वाली थी, हो न सकी। कुछ आलेख पसन्द नहीं आये, कुछ अच्छे लगे तो उनकी संख्या दो-तीन रह गयी थी। ऐसे में एकबारगी किताब का विचार मैंने लगभग-लगभग छोड़ दिया। इसी बीच प्रभात रंजन जी सामने आये और उनके प्रोत्साहन पर यह किताब फिर से शुरू हुई। लेकिन फिर दिक़्क़त-कहाँ से शुरू करें? समस्या बनी रही। अन्त में पूरी किताब पर दुबारा काम करना पड़ा। इसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ही छात्र साकेत बिहारी पाण्डेय सामने आये और किताब पर बहस जारी रखने की माँग रखी। मेरे लिए भी लगभग दो वर्ष की अवधि में अब तक पहली स्थिति सामने आयी जब किसी ने मदद के लिए हाथ बढ़ाया। अन्य विषयों पर कई आलेख लिखवाने और उनका स्तर देखने के बाद मैंने उन्हें इस पुस्तक के दूसरे अध्याय-‘किन्नर: एक जीववैज्ञानिक अध्ययन’ को साथ लिखने का न्योता दिया और सहलेखन में अपनी भूमिका के साथ उन्होंने पूरा न्याय किया। और यह किताब निकल पड़ी।

इस किताब के लेखन में मेरी गुरु प्रो. चन्द्रकला त्रिपाठी की भूमिका काफ़ी महत्त्वपूर्ण रही। जहाँ अन्य लोग शोध और हिजड़ा समुदाय को लेकर मज़ाक़ बनाते रहे वहीं वे हर स्थिति में साथ बनी रहीं। विश्वविद्यालय स्तर के कार्यक्रम के लिए न केवल उन्होंने महिला महाविद्यालय में हमें अपनी सहमति प्रदान की बल्कि इस पूरे कार्यक्रम और किताब लेखन के दौरान सुरक्षात्मक कड़ी की तरह साथ जुड़ी रहीं। प्रो. त्रिपाठी के अतिरिक्त प्रो. बलिराज पाण्डेय जो लगातार चर्चा और प्रोत्साहन से हमारे धैर्य को बनाये रखते। प्रो. पद्मिनी, प्रो. अरुण सिंह, प्रो. धु्रव सिंह और के.जी. चौधरी जी (सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय) के समय-समय पर मार्गदर्शन से इनकार नहीं किया जा सकता, आभार। इन सबके साथ मेरे मित्र राजा रामचन्द्र पाठक, वीरू सोनकर और आस्था सिंह के मित्रतापूर्ण सम्बल का ऋण नहीं चुकाया जा सकता है। ये ऐसे मित्र हैं जिन्हें मैं अपनी फक्कड़ी में भले ही छोड़ कर भाग जाऊँ लेकिन ये दुनिया के किसी भी छोर से मुझे ढूँढ़ निकालें और मुझसे काम करा ले जायें। इस किताब के लेखन से पहले से लेकर लेखन के बाद की प्रक्रिया में भी ये निरन्तर साथ बने रहे। इन सबके साथ डॉ. राजीव कुमार वर्मा का भी आभार-जिनका घर और कार्यालय हमारे कार्य को आगे बढ़ाने की सबसे मुफ़ीद जगह होती।

और सबसे अन्त में मैं अपने पिता, अपनी माँ, अपने बड़े भाइयों और दीदी के स्नेह को धन्यवाद देती हूँ जिनके कारण मैं आज ये सब कर पायी क्योंकि समाज को केवल उजला पक्ष दिखता है लेकिन अँधेरे पक्षों के भागी तो यही होते हैं। मेरे साथ इनका संघर्ष और मुझ पर इनका विश्वास मुझसे कहीं बड़ा है।

-प्रियंका नारायण

किन्नर : सेक्स और सामाजिक स्वीकार्यता
लेखक : प्रियंका नारायण
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 200
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