दुर्गेश पांडेय के कहानी संग्रह 'कचहरी की चकल्लस' में मुकद्दमेबाजी और हमारे देश की अदालतों की कार्यशैली और व्यवस्था का व्यंगात्मक चित्र प्रस्तुत किया गया है। कहावत है कि कोई भी अस्पताल और अदालत में अपनी मर्जी से नहीं जाना चाहता। मुकद्दमेबाजी को बीमारी बताने वालों का कहना है कि जैसे नई-नई बीमारियां आ रही हैं उसी तरह नये-नये मुकद्दमे आ रहे हैं।
लेखक का कहना है कि कचहरी की खासियत यह है कि यहाँ हर किरदार की एक कहानी है जिसमें मुख्य पात्रों के अलावा भी बहुत कुछ है। वादकारी, वकील, जज तो चेहरा भर हैं। कचहरी के कर्मचारियों, मुंशियों को भी छोड़िए यहाँ के गेट पर चना-चबेना बेचने वालों की कहानियाँ भी हैं। इन सभी को मिलकर बनती है कचहरी। किताब के लेखक स्वयं एक अपर जनपद एवं सत्र न्यायाधीश हैं। उन्होंने 'कचहरी की चकल्लस' नामक पुस्तक में कई खट्टे-मीठे अनुभवों का रुप देने का प्रयास किया है। उसके लिए उन्होंने हास्य-व्यंग्य की भाषा शैली का प्रयोग कर पुस्तक को मनोरंजक तथा पठनीय बना दिया। पुस्तक में लेखक ने छह अलग-अलग तरह के मुकदमों की मजेदार भाषा में कहानियाँ लिखी हैं।
'तारीख़ पर तारीख़...' कहानी से :
'कचहरी के मुकद्दमे केवल ज़मीन जायदाद या किसी अपराधी को दंडित करने के मुकद्दमे भर नहीं होते। भारत विशेषकर ग्रामीण भारत में लोग मुकद्दमों को अपनी व्यक्तिगत हार-जीत और मान-सम्मान के साथ जोड़ कर देखते हैं। हर मामला न्याय-अन्याय की लड़ाई नहीं होता।'
पुस्तक में 'वकील की नेतागीरी','मियाँ-बीवी और कद्दु' जैसी कहानियाँ बेहद पठनीय हैं। इस संग्रह का प्रकाशन मैंड्रेक पब्लिकेशंस ने किया है।
कचहरी की चकल्लस
लेखक : दुर्गेश पांडेय
प्रकाशक : मैंड्रेक पब्लिकेशंस
पृष्ठ : 110
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