झारखंड के वीर शहीद : वीर गाथाओं का संकलन

झारखंड के वीर शहीद

झारखंड की धरती रत्नगर्भा है। इसके गर्भ में जहाँ बहुमूल्य खनिजों का अकूत भंडार है, तो वहीं तल पर वनसंपदाओं का आगार। यहाँ की धरती हरे-भरे वनों से आच्छादित पहाड़ियों और पठारों से समृद्ध तो है ही, अत्यंत उर्वरा और शस्य श्यामला भी है। इस धरती पर अनेक ऐसे वीरों और वीरांगनाओं ने जन्म लिया है, जिन्होंने मातृभूमि की आन-बान-शान और सम्मान के लिए अपनी जान तक की कुरबानी दे दी है। उन्हीं वीर सपूतों में शामिल हैं-रघुनाथ महतो, तिलका माँझी, तेलंगा खड़िया, अर्जुन सिंह, जग्गू दीवान, कुर्जी मानकी, पोटो सरदार, गोनो पिंगुआ, बुधु भगत, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पांडेय गणपत राय, टिकैत उमराँव सिंह, शेख भिखारी, सिदो, कान्हू, चाँद, भैरव, फूलो, झानो, बिरसा मुंडा, गया मुंडा, जतरा टाना भगत आदि। देश के स्वाधीनता दिवस के ‘अमृत महोत्सव’ के अवसर पर प्रस्तुत पुस्तक में इन्हीं बलिदानी सपूतों की वीरगाथा को सँजोने का प्रयास किया गया है। इसकी प्रथम प्रेरणा प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के उस भाषण से मिली, जिसमें उन्होंने लेखकों से अपने क्षेत्र के स्वाधीनता सेनानियों पर पुस्तक लिखने का आह्वान किया था।

झारखंड के वीर शहीद : वीर गाथाओं का संकलन

ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार रघुनाथ महतो ने सन् 1769 ई. में उस समय आजादी का आंदोलन छेड़ा था, जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार से लेकर सत्ता तक पहुँच चुकी थी और देश के विभिन्न भागों में अपने पाँव जमाने के प्रयास में जी-जान से जुटी थी। इस क्रम में कंपनी के कारिंदों ने भय और लालच का खेल शुरू कर दिया था और आम जनता पर उसका विपरीत प्रभाव पड़ने लगा था। कंपनी की सरकार ने जनता से लगान की वसूली प्रारंभ कर दी थी और उसकी सहायता के लिए जमींदारों और शोषकों का एक वर्ग खड़ा हो चुका था। अंग्रेजों ने लोगों की गरीबी का लाभ उठाते हुए, यहाँ की जमीन की मिल्कियत में भी हेरा-फेरी शुरू कर दी थी। लगान का भुगतान करने में विलंब होने पर वे जनता की जमीन जब्त कर बेचने भी लगे थे। लगान चुकाने के लिए आम लोग सूदखोर महाजनों के जाल में फँसकर तबाही की ओर बढ़ने लगे थे। इसी के विरोधस्वरूप रघुनाथ महतो के नेतृत्व में जबरदस्त आंदोलन प्रारंभ हुआ। ठीक उसी कालखंड में तिलका माँझी ने भी कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन छेड़ दिया। इसलिए अंग्रेजों के खिलाफ देश में पहले सशस्त्र आंदोलन का नायक तिलका माँझी को माना जाता है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि इन वीर स्वाधीनता सेनानियों की ओर देश के इतिहासकारों की दृष्टि नहीं जा सकी थी। परिणाम यह हुआ कि इनके संबंध में अभी तक सर्वमान्य ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त नहीं होते। कुछ इतिहासकारों ने इनके संबंध में व्यापक शोध कर अपने इतिहास ग्रंथों में इन पर प्रकाश डाला है, किंतु कई स्वाधीनता सेनानियों के मामले में उनके बीच मतैक्य के बजाय मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना की स्थिति ही परिलक्षित होती है। कई मामलों में तो बात चार अंधों द्वारा हाथी को स्पर्श कर उसके संबंध में की जानेवाली चर्चा की तरह हो जाती है। तिलका माँझी को कुछ इतिहासकारों ने पहाड़िया माना है। उनका यह भी कहना है कि तिलका माँझी का असली नाम जबरा पहाड़िया था, लेकिन झारखंड, विशेषकर संथाल परगना के इतिहासकारों ने इस बात पर जोर दिया है कि जबरा पहाड़िया और तिलका माँझी दो व्यक्ति रहे हैं। उनका यह भी तर्क है कि पहाड़िया जनजाति समाज में माँझी उपनाम नहीं होता। इसी प्रकार कई स्वाधीनता सेनानियों के व्यक्तित्व, जन्मस्थान तथा जन्म वर्ष को लेकर इतिहासकारों के मत भिन्न हैं। सर्वमान्य ऐतिहासिक तथ्यों के लिए झारखंड के इतिहास पर विशेष शोध किए जाने की आवश्यकता है।

झारखंड के वीर शहीद
यह पुस्तक उन वीर शहीदों के जीवन के कई अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालती है, जिनसे जनसाधारण अभी तक अनभिज्ञ रहा है.

‘झारखंड के वीर शहीद’ शीर्षक इस पुस्तक में झारखंड के सोलह स्वनामधन्य स्वाधीनता सेनानियों के जीवन-वृत्त पर आधारित वीर गाथाएँ संकलित हैं। यह उन सपूतों के साधारण से असाधारण बनने और मातृभूमि की अस्मिता की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने की करुण गाथा है, जो स्वयं जलकर स्वाधीनता की ऐसी ज्योति जगा गए, जो पूरे देश में फैल गई और 15 अगस्त, 1947 को हमारा देश गुलामी की जंजीरों को काटकर स्वाधीन हुआ। इन वीर गाथाओं की प्रासंगिकता वर्तमान में भी उतनी ही है, जितनी तब थी। इसलिए कि उनमें वर्णित बहुत सारी परिस्थितियाँ देश की आजादी के 75 वर्षों के बाद भी ज्वलंत हैं और समाधान की बाट जोह रही हैं। झारखंड की धरती से उठे इस स्वाधीनता आंदोलन को बड़े फलक तक पहुँचानेवाले बिरसा मुंडा स्वभावत: संत थे। अपनी जनसेवा के कारण जनसाधारण के बीच भगवान् का दर्जा पा चुके थे। वे समस्या का शांतिपूर्वक हल निकालने के पक्षधर थे, लेकिन अंग्रेजों, तब की मिशनरियों, सूदखोर महाजनों और शोषक जमींदारों ने कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दीं कि उन्हें अपने अनुयायियों को अस्त्र-शस्त्र उठाने की अनुमति देनी पड़ी। बिरसा मुंडा सहित अधिकतर स्वाधीनता सेनानियों को अंग्रेजों ने मौत के घाट उतार दिया, क्योंकि हर स्वाधीनता सेनानी के कालखंड में गद्दारों की सक्रिय टोलियाँ अंग्रेजों का साथ देती रहीं। वैसी टोलियाँ आज भी हमारे समाज में मौजूद हैं, जिनसे सावधान रहना भी आसान नहीं है।
झारखंड के वीर शहीद
देश और समाज के भूले-भटके लोगों को राह दिखाने के लिए प्रकाश-स्तंभ स्थापित करने का विनम्र प्रयास है यह पुस्तक.

इस पुस्तक की रचना के क्रम में कई प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ा। हालाँकि ऐतिहासिक कथावस्तु पर साहित्यिक कृति की रचना के समय इस प्रकार की चुनौतियों का प्रकट होना कोई असामान्य घटना नहीं है। साहित्यकार उन्हीं चुनौतियों के बीच अपने विवेक से रचना का मार्ग प्रशस्त करता है। स्वयं को उस कालखंड में ले जाता है और उस व्यक्तित्व को ढूँढ़ निकालता है, जिस पर रचना करनी होती है। फिर साहित्यकार टुकड़े-टुकड़े में बिखरी ऐतिहासिक तथ्य रूपी इंटों को सहेजता है और किंवदंतियों तथा कल्पना की सीमेंट से उन्हें जोड़कर अपनी रचना का महल खड़ा करता है। मुझे भी कुछ वैसा ही करना पड़ा है।

-डॉ. विनय कुमार पांडेय.

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झारखंड के वीर शहीद
लेखक : डॉ. विनय कुमार पांडेय
पृष्ठ : 192
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
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