"सोचा नहीं था कि पाँच किताबें कभी लिख पाऊँगा" -ब्रजेश राजपूत

"सोचा नहीं था कि पाँच किताबें कभी लिख पाऊँगा" -ब्रजेश राजपूत

आमतौर पर ये कम ही देखा जाता है कि टेलीविजन के पत्रकार लगातार लिखते हैं फिर चाहे वो कॉलम हो या किताबें। भोपाल में रहने वाले और एबीपी न्यूज में लंबे समय से स्टेट ब्यूरो संभाल रहे ब्रजेश राजपूत इस मामले में अलग हैं। पिछले सात सालों में वे पाँच किताबें लिख चुके हैं। इनमें दो किताबें मध्यप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनावों पर तो, दो किताबें टेलीविजन के पर्दे के पीछे की छिपी हुई कहानियों पर हैं। दो साल पहले एमपी में हुए सत्ता परिवर्तन पर भी उनकी रोचक किताब 'वो सत्रह दिन' प्रकाशित हुई थी जिसे बहुत दिलचस्पी से पढ़ा गया।

इन दिनों ब्रजेश राजपूत अपनी नयी किताब 'ऑफ़ द कैमरा' लेकर आये हैं जिसमें टीवी रिपोर्टिंग के किस्से हैं। ये वो किस्से हैं जिनको उन्होंने टीवी रिपोर्टिंग के दौरान देखा और बाद में विस्तार से इन पर लिखा। ये किस्से कोरोना काल की करूण कथाएँ हैं तो सत्ता परिवर्तन की उठापटक और बदलावों में कितना और क्या बदला ये बताते हैं। 'ऑफ द कैमरा' किताब के इन पैंसठ किस्सों को पढ़कर आपको घटनास्थल पर खड़े होने का अहसास तो होगा ही, किस्सों में समाये दर्द को भी पाठक महसूस कर पायेंगे। समय पत्रिका ने लेखक ब्रजेश राजपूत से बात की :

सात साल में पाँच किताबें वो भी नेशनल टीवी जैसे तेज माध्यम में काम करते हुए। आमतौर पर काम के दौरान लिखने का समय निकालना आसान नहीं होता। आप झटपट तरीके से कैसे लिख लेते हैं?

इसे झटपट लिखना तो नहीं कहेंगे वक्त तो लगा ही लिखने में मगर आप देखेंगे कि मैंने ऐसा कुछ नहीं लिखा जो मैंने किया ना हो। मध्यप्रदेश विधानसभा के 2013 और 2018 के दो चुनाव करीब से कवर किये तो लगा कि चुनावों में कई जगहों पर जाकर जो देखा-समझा है उसी को लिख दिया जाये। टीवी में दो दशकों से हूँ तो लंबा अनुभव घूम-घूम कर हुआ है। बहुत कहानियाँ की हैं जिनको लिखकर सुनाना चाहता था तो वो वक्त मिलते ही कभी फेसबुक पर तो कभी स्थानीय अखबार में लिखता रहा और दो संग्रह उनको ही जोड़ा तो निकल आये। दो साल पहले कमलनाथ सरकार गिरने का घटनाक्रम करीब से देखा। उस घटनाक्रम के किरदारों को करीब से जानता था तो उनसे बातचीत होती रही, उसे भी लिखा। और मैं खुशनसीब हूँ कि मेरे इन किस्सों या चुनाव की रिपोर्टिंग को छापने के लिए प्रकाशक आसानी से तैयार हो गये। इस तरह पाँच किताबों का गुलदस्ता सा बन गया। मगर सोचा नहीं था कि पाँच किताबें कभी लिख भी पाऊँगा। बीच में मैंने एक पीएचडी भी की है जो अपने आप में किसी ग्रंथ से कम नहीं होता। इसे आप पाँच किताबें और एक ग्रंथ कह सकते हैं।

हैरानी होती है कि इतनी तेज गति से लिखते हैं। आपके पास कोई समय-प्रबंधन का फार्मूला हो तो जरूर बतायें।

हम टीवी पत्रकारों के पास समय-प्रबंधन तो होता नहीं। हर नया फोन नयी कहानी और जिम्मेदारी या व्यस्तता दे जाता है। कई बार घर पर फुर्सत से बैठे हैं और देश के किसी भी हिस्से में जाने की फरमाईश आ जाती है। ऐसे में सारे प्रबंधन धरे रह जाते हैं। हाँ, यह जरूर है कि जो खबरें हम करते हैं उनको जहन में रखते हैं, फिर वक्त मिलते ही उसको लिखकर किसी अखबार या सोशल मीडिया साइट पर डाल देते हैं जिससे वो एक रिकार्ड हो जाता है। कभी-कभी जब लिखने का कोई असाइनमेंट मिल जाता है तो अपने काम के अलावा सब कुछ भुला कर लिखने लग जाते हैं फिर चाहे सुबह जल्दी जागना पड़े या रात में देर से सोना पड़े, सब मंजूर है। ये जरूर है लिखने से जो राहत मिलती है वह बहुत आनंद देती है। इसी आनंद की आस में लिखे जाते हैं मगर लिखने का विषय भी होना चाहिये।

ब्रजेश राजपूत की किताबें

हमने अक्सर फिल्मों के सीक्वेल देखे-सुने हैं। 'ऑफ द स्क्रीन' के बाद 'ऑफ द कैमरा'।  आपको किताब के सीक्वल का विचार कैसे आया? ये किताब पिछली किताब से कैसे अलग है?

सोचा जब फिल्मों के सीक्वल बन रहे हैं तो किताबों के क्यों नहीं। 'ऑफ द स्क्रीन' के बाद 'ऑफ द कैमरा'। आगे भी कुछ 'आफ द' लिखूंगा मगर आपने पूछा है कि इसमें क्या नया है। तो आपको बता दूँ कि इस किताब में मैंने अपनी पुरानी किताबों जैसा सपाट और दिलचस्प किस्से नहीं लिखे। इसमें मैंने दोहराव से अपने को बचाया है। कुछ नये प्रयोग किये हैं लिखने में। प्रथम पुरुष यानी कि परकाया प्रवेश की कला की मदद से कभी बच्चा तो कभी महिला बनकर लिखा है। यदि अपने वरिष्ठों को श्रद्धांजलि लिखी है तो उसमें भी कुछ नयापन और नया शिल्प उपयोग किया है। पत्रकार राजकुमार केसवानी के बारे में लिखने के लिए उनकी किताबों की मदद ली। किताबों ने बताया कि उनके मालिक की शख्सियत क्या थी। कहानियों में तथ्यों के साथ भावनाओं को उभारा है। इमोशनल खबरें ज्यादा है। जिनको पढ़कर पाठक भुला नहीं पायेगा। ये मेरा दावा है।

लिखने के अपने सुख-दुख और परेशानियाँ होती हैं। आपको नहीं लगता जिनके बारे में लिख रहे हैं वो आपसे नाराजगी से पेश आयेंगे। खासकर राजनेता क्योंकि आपकी कहानियों के किरदार नेता-मंत्री भी कम नहीं हैं।

देखिये ये सारी सच्ची कहानियाँ हैं। इनके अधिकतर किरदार ज़िन्दा हैं और मैं आपसे कहूँगा कि बहुत ईमानदारी से इनको सच्चाई के साथ लिखा गया है। वस्तुनिष्ठ होकर किसी का पक्ष या विपक्ष बनने की कोशिश नहीं की गयी है। इसलिये ये कहानियाँ आनंद देती हैं और किसी को चुभती नहीं है। इस वजह से किसी की नाराजगी का सवाल नहीं उठता और फिर कोई नाराज भी हो तो हम उसे मना लेंगे क्योंकि मेरे लेखन का मकसद अपना महिमामंडन कर किसी को नीचा दिखाना नहीं है।

चूंकि मैं लंबे समय से लिख रहा हूँ तो अब मेरे आसपास के लोग और नेता भी मानने लगे हैं कि मेरे लेखन मे कोई दुराव-छिपाव या फिर कोई एजेंडा नहीं होता। इससे पहले की मेरी किताब 'वो सत्रह दिन' तो पूरी तरह से राजनीतिक उठापटक पर थी मगर मुझसे किसी नेता ने शिकायत नहीं की कि आपने हमारे बारे में गलत लिखा या बुरा लिखा। दरअसल लिखने का एक तरीका भी होता है बिना बहुत कुछ लिखे सब कुछ लिख देना तो वो अनुभव से आ जाता है। फिर भी लेखन के अपने खतरे हैं तो वो हम पत्रकार और लेखक को उठाना ही पड़ते हैं।

ब्रजेश राजपूत

'ऑफ़ द कैमरा' में आपने किस विषय को प्रमुखता से उठाया है और क्यों?

दरअसल ये पिछले दो-तीन साल के संकलित किस्से हैं। इस दौरान कोरोना की पहली, दूसरी, तीसरी लहर आयी। साथ ही मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन की सुनामी भी आयी थी। तो ये किताब इस मुद्दे से अछूती नहीं रह सकी। कोविड के दुख-दर्द, तकलीफ, पीड़ा, विस्थापन और उसके बाद टीकाकरण की खुशी के किस्से तो हैं ही, कमलनाथ सरकार के गिरने, फिर उसके बाद होने वाले उपचुनावों में जो रोचकता देखी उसको लिखने की कोशिश की है। उसके साथ-साथ कुछ ऐसे किस्से हैं जो रिपोर्टिंग के दौरान मिल गये। जैसे भोपाल के गौरव शर्मा और सौरभ शर्मा का किस्सा। ये दोनों जुड़वा और हूबहू हमशक्ल हैं इनकी पत्नियाँ भी हमशक्ल हैं। ये रोचक किस्सा है। कैसे मिले, कैसे इन पर लिखा। कुछ किस्से किताबों के है जिनमें जार्ज आरवेल की 1984, केसवानी जी की मुगले आजम। कोशिश ये रही कि रोचकता बनी रहे किताब कहीं से भी उबाऊ ना हो।

ब्रजेश राजपूत

क्या ये किताब पत्रकारिता के छात्रों के काम की है खासकर टीवी में रिपोर्टर बनने को उत्सुक लोगों के लिये?

बिलकुल मैंने इस किताब में और पहले की 'ऑफ द स्क्रीन' में टीवी पत्रकारिता पढ़ाई तो नहीं है मगर किसी घटना को कैसे कवर किया जाता है। कैसे उस दौरान उतार-चढाव आते हैं, उनसे रिपोर्टर कैसे निपटता है, ये सब कुछ विस्तार से अंजाने में ही बताया है। इसे पढ़कर छात्र जान पायेंगे कि वो छोटी सी कुछ सेकेंड की कहानी के पीछे कितने घंटे की भागदौड़ और पसीना बहाया गया है। इसलिये मैं तो कहूँगा कि पत्रकारिता के विद्यार्थी इसे जरूर पढ़ें और अपने साथियों को पढ़ने को भी कहें।

आजकल के युवा सोशल मीडिया और व्हाट्सएप में अपना वक्त ज्यादा देते हैं आपको लगता है ऐसी किताबों से उनका रुझान किताबों की ओर बढ़ेगा।

ये सच है कि व्हाट्सएप अब ज्यादा वक्त खाता है। हर उम्र का व्यक्ति इसमें उलझा रहता है। ऐसे में किताबों के लिए वक्त निकालना कठिन है मगर मेरा मानना है कि लेखन इतना दिलचस्प हो कि किताब हाथ में लेकर उसे बार-बार पढ़ने का मन करे तो युवा वर्ग किताबें जरूर पढ़ेगा। यही आज के दौर के हम लेखकों के सामने चुनौती है। व्हाट्सएप टीवी रिमोट जैसा हो गया है जो हर घड़ी चैनल चेंज करता है। चैनल या किताब पर वही रुकेगा जिसे वहां कुछ रोचक कुछ नया मिलेगा।

अब इसके बाद आपके पिटारे में क्या है?

अभी तो पिटारे में बहुत कुछ है मगर फिलहाल इस किताब पर पाठकों से मिल रही प्रतिक्रिया का आनंद ले रहा हूँ। हालांकि मध्यप्रदेश के अगले साल आने वाले विधानसभा चुनावों के साथ मध्यप्रदेश की राजनीति पर भी विस्तार से लिखना चाहता हूँ। मगर ये सब संभव होगा जब वक्त मिलता रहेगा यूँ ही लिखने के लिये और प्रकाशक मिलते रहेंगे छापने के लिये भी।