बाबूलाल मुर्मू ‘आदिवासी’ बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे। संताली भाषा-साहित्य को समृद्ध करने और देशज संस्कृति के प्रसार में उन्होंने महती योगदान दिया। संताली भाषा-साहित्य के विकास के लिए उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी और बांग्ला साहित्य की प्रवृत्तियों का सूक्ष्मता से अध्ययन किया। स्वयं हिंदी भाषा से एम.ए. किया। इस प्रकार भाषा, साहित्य और भाषा-विज्ञान के विविध आयामों से सुपरिचित हुए। संताली को भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से समृद्ध करने के लिए उन्होंने भारोपीय भाषा परिवार की शाखाओं का विशद अध्ययन किया और फिर वैज्ञानिक दृष्टि से अपनी स्थापनाओं को सशक्त रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने सोहराय, दासाँय, गाय जगाव, बाहा, डाहार जैसे संताली लोकगीतों को संकलित किया। संताली में गद्य और पद्य, दोनों विधाओं में उद्देश्यपूर्ण लेखन भी किया। कविता, कहानी, लघुकथा, जीवनी और साहित्य, संताली भाषा एवं संस्कृति आदि विभिन्न विषयों पर निबंध लिखे। संताली पत्रिका ‘होड़ सोम्बाद’ का संपादन किया। हनुमान चालीसा का संताली में अनुवाद किया। वे अभिनय में भी दक्ष थे। उन्होंने ‘विदाउट ए गन’ नामक फिल्म में भूमिका भी निभाई थी। हालाँकि यह फिल्म पूरी नहीं हो पाई थी।
‘आदिवासीजी’ सनातनी परंपरा और देशज संस्कृति के पक्षधर थे। यह उनके जीवन-दर्शन का आधार भी था। इसी दृष्टि से उन्होंने लिपि, भाषा और संताली साहित्य की प्रवृत्तियों को स्थापित करने की दिशा में काम किया। उनकी इस दृष्टि को इन आधारों पर समझा जा सकता है-
1. लिपि
2. लेखन प्रवृत्ति
3. व्यक्तिगत आचरण
1. लिपि : जिन दिनों ‘आदिवासीजी’ ने लेखन कर्म को आत्मसात् किया, उन दिनों संताल परगना में संताली भाषा की दो प्रकार की लिपियाँ प्रचलित थीं-एक रोमन, जिसे ईसाई मिशनरियों का संरक्षण-प्रोत्साहन प्राप्त था, दूसरी, देवनागरी, जिसका ध्वज डॉ. डोमन साहू समीर और उनके जैसे दूसरे मनीषी धारण किए हुए थे। वस्तुत: डॉ. डोमन साहू समीर के संपादन में जब जुलाई 1947 में संताली भाषा की पहली पत्रिका ‘होड़ सोम्बाद’ का प्रकाशन आरंभ हुआ, तब ईसाई मिशनरियाँ संताली भाषा के लिए रोमन लिपि के व्यवहार को प्रोत्साहित कर रही थीं। दुमका जिले के शिकारीपाड़ा क्षेत्र में सक्रिय बेनागड़िया मिशन का प्रकाशन विभाग इस कार्य में लगा हुआ था। डॉ. साहू ने इसके विपरीत देवनागरी लिपि को प्रोत्साहित करना आरंभ किया और 40 साल तक इस पत्रिका का संपादक रहते हुए, उन्होंने इस कार्य को पूर्ण निरंतरता के साथ जारी रखा।
इस पत्रिका के संपादक के रूप में बाबूलाल मुर्मू ‘आदिवासी’ डॉ. डोमन साहू समीर के न केवल उत्तराधिकारी थे, बल्कि उनके शिष्य भी थे। डॉ. साहू के बाद इस काम को उनके उत्तराधिकारियों ने आगे बढ़ाया। इनमें आदिवासीजी एक थे। इसका प्रभाव यह हुआ कि जब संताल परगना के विद्यालयों में संताली भाषा की पढ़ाई आरंभ हुई, तो उसकी लिपि देवनागरी थी। कालांतर में जब संताल परगना के कॉलेजों में संताली की पढ़ाई आरंभ हुई, तब भी देवनागरी लिपि को अंगीकार किया। इसका एक प्रभाव यह भी हुआ कि ईसाई मिशनरियों ने भी अधिक-से-अधिक संताली भाषा-भाषियों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए देवनागरी लिपि का भी सहारा लिया।
लिपि को लेकर आदिवासीजी की दृष्टि स्पष्ट थी और वे उसके इतने बड़े पक्षधर थे कि जब 2005 में संताली भाषा-साहित्य को साहित्य अकादमी पुरस्कार देना आरंभ हुआ और उन्हें इस पुरस्कार के लिए अपने साहित्य को ओलचिकी लिपि में रूपांतरित करने को कहा गया, तो उन्होंने साहित्य अकादमी जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार को ठुकरा दिया। इस विषय में इस पुस्तक में दूसरे स्थान पर विस्तार से चर्चा की गई है।
2. लेखन प्रवृत्ति : आदिवासीजी ने हिंदू धर्मग्रंथों का गहनता से अध्ययन किया था और उन पर इनका प्रभाव भी था। यह प्रभाव उनके साहित्य में दिखता है। राम और हनुमान उनके आराध्य थे। उनकी इच्छा रामायण, महाभारत और गीता का संताली में अनुवाद करने की थी, किंतु यह कार्य वे कर नहीं सके। उनकी इच्छा संताली विद्यापीठ की स्थापना करने की भी थी। संभवत: यह प्रेरणा उन्हें देवघर हिंदी विद्यापीठ से मिली, जिससे वे जुड़े भी रहे। इसे ईसाई मिशनरियों के विपरीत भी वे स्थापित करना चाहते थे। इस दिशा में भी वे कार्य नहीं कर सके। हाँ, मानसिक रूप से संताली विद्यापीठ को गठित होता देखते रहे। इसलिए अक्तूबर 2004 में जब उन्होंने सुज़ान सोनोद़ोर, कड़हरबिल (हिरण टोला), दुमका से अपनी पुस्तक ‘बाहा पोरोब’ का प्रकाशन किया, तब उसके प्राप्ति-स्थल के पता के रूप में ‘संताली विद्यापीठ’, कड़हरबिल, दुमका का उल्लेख किया। उन्होंने संताल पहाड़िया सेवा मंडल की तर्ज पर ‘संताली साहित्य प्रसारक सेवा मंडल’ भी बनाया था, जिसके बैनर तले उन्होंने 2002 में ‘सांताली भेन्ता काथा आर काहतुक’ नामक अपनी पुस्तक प्रकाशित की।
3. व्यक्तिगत आचरण : आदिवासीजी सामाजिक रूप से जिन संगठनों से जुड़े हुए थे, वे दक्षिणपंथी विचारों के पोषक हैं। सरकारी सेवा से निवृत्त होने के बाद ‘वनवासी कल्याण परिषद्’ से पूर्ण रूप से जुड़ गए थे और इसके प्रांतीय अध्यक्ष बनाए गए थे। उनका मत था कि दुनिया का प्रथम हिंदू वनवासी था। वे मानते थे कि भारतीय हिंदू संस्कृति की उत्पत्ति वन में, वन्य संस्कृति से हुई है। इसलिए वे इस संस्कृति को वन्य संस्कृति या अरण्य संस्कृति मानते थे। ‘वनवासी कल्याण परिषद्’ के दिल्ली में हुए राष्ट्रीय समारोह में उन्होंने इसके पक्ष में ठोस तर्क प्रस्तुत किया था, जिस पर इस समारोह के बाद भी लंबे समय तक बहस होती रही।
बाबूलाल मुर्मू ‘आदिवासी’ अत्यंत सरल स्वभाव के थे। उनके जीवन में कर्म की प्रधानता थी। भाग्य को लेकर अधिक चिंतनशील नहीं थे। संत कबीर पंथ को माननेवाले नहीं थे, किंतु सांसारिक विषयों को लेकर वे एक सीमा तक वीतरागी थे। अध्ययन, लेखन और संस्कृति का पोषण, यही उनके जीवन का लक्ष्य था।
लोगों से मिलने को लेकर वे सदैव उत्साहित रहते थे, किंतु स्वयं के बारे में बताने-जनाने को लेकर उनका स्वभाव संकोची था। उन्होंने अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर रखा था और उसी में गृहस्थी की गाड़ी को गति देते रहे। मेरा उनसे प्राय: मिलना होता था। इसके दो उद्देश्य थे-एक यह कि मैं भी दुमका में था और यहाँ के सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक परिवेश से जुड़ा हुआ था तथा दूसरा कि आदिवासी संस्कृति को जानने-समझने की ललक थी। उन्हीं दिनों मैं संताल आदिवासी जीवन से जुड़ी चित्रकला शैली की खोज, उसके अध्ययन और उसे स्थापित करने के लक्ष्य के साथ सक्रिय था। यह चित्रकला शैली जिस कलाकार जाति में मिली, वह ‘जादो’ नाम से संताल समाज में अपनी पहचान रखती है। बाबूलाल मुर्मू ‘आदिवासी’ ने 1977 में लिखी अपनी संताली कहानी में उसे अंधविश्वास के पोषक के रूप में चित्रित किया था। ऐसे में जादो जाति में प्रचलित चित्रांकन परंपरा को कला और संतालों की सांस्कृतिक थाती के रूप में स्थापित करने की मेरे समक्ष चुनौती थी। विषय को गहन रूप से समझने और उसके आयामों को निरूपित करने के लिए मेरा बाबूलाल मुर्मू से विमर्श का क्रम चलना स्वाभाविक था और ऐसा ही हुआ भी।
उनके जीवन-काल में भी उनकी साहित्य-साधना पर मैंने कई बार लिखा था। उनका साक्षात्कार भी मैंने अखबारों में छापा था। 1995-96 में जब देश भर में पूर्ण साक्षरता अभियान के बाद उत्तर साक्षरता अभियान शुरू हुआ, तब नवसाक्षरों के लिए किट तैयार करने की चुनौती राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के समक्ष थी। उन दिनों बिहार का विभाजन नहीं हुआ था और दुमका बिहार राज्य का हिस्सा था। पूर्ण साक्षरता अभियान के सफल संचालन को लेकर तब बिहार में तीन जिले मॉडल के रूप में उभरे थे-दुमका, मधुबनी और धनबाद। बिहार में ‘एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट’ (आद्री), पटना साक्षरता अभियान का एक राज्य संसाधन केंद्र था। दुमका उसके लक्ष्य क्षेत्र में आता था। उसने नवसाक्षरों के लिए ‘इंजोर’ नाम से एक पुस्तक तैयार की थी, जिसके लेखक पैनल में मैं और बाबूलाल मुर्मू ‘आदिवासी’ भी थे।
यद्यपि बाबूलाल मुर्मू ‘आदिवासी’ पर विगत ढाई-तीन दशकों से मैं लिखता ही रहा हूँ, किंतु पिछले दिनों, उनके जन्मदिन के अवसर पर, झारखंड के सर्वप्रमुख समाचार-पत्र ‘प्रभात खबर’ के साप्ताहिक सांस्कृतिक पृष्ठ ‘माय मांटी’ और गुवाहाटी से निकलनेवाले प्रमुख हिंदी दैनिक ‘पूर्वोदय’ के संपादकीय पृष्ठ पर मेरे आलेख छपे थे। इसके बाद ही उन पर एक पुस्तक लिखने की योजना बनी। इस योजना को फलीभूत करने में कई मित्रों-शुभचिंतकों का सहयोग, प्रोत्साहन और मार्गदर्शन मिला।
-डॉ. आर. के. नीरद.
संताली के अप्रतिम साहित्यकार बाबूलाल मुर्मू ‘आदिवासी’
लेखक : डॉ. आर. के. नीरद
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 128
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