आशुतोष राणा का अनुभव संसार बहुत व्यापक है और वे बहुपठ तथा बहुश्रुत भी हैं, मन लगाकर पढ़ते हैं, ध्यान से सुनते हैं और तब लिखते हैं। इन व्यंग्य निबंधों में उनकी सूक्ष्म-निरीक्षण शक्ति और हास्य की प्रवृत्ति के साथ ही साहित्यिक विनोद भी अच्छा-खासा दिखाई देता है। इसके पहले मैंने उनकी ‘सीता-परित्याग’ जैसी गंभीर लेख-शृंखला आद्यंत पढ़ी। वे स्त्री-विमर्श, इस विमर्श और उस विमर्श जैसी फतवेबाजी से दूर एक गंभीर सामाजिक चेतना के वैचारिक पक्ष का अधिक उत्तरदायित्व के साथ निर्वाह करते हैं। उनकी मूल प्रवृत्ति जिज्ञासा है, यह उनके संपूर्ण लेखन, वक्तव्यों और सुहृद-गोष्ठियों से समझी जा सकती है। ये फिल्म-संसार के व्यक्ति हैं, जहाँ अदाकारों के लिए पढ़ने-लिखने का काम दूसरे लोग करते हैं। आपाधापी, खींचतान, मानसिक ऊहापोह और कशमकश के बीच ये लेखन करते हैं और दत्तचित्त होकर करते हैं। यह सचमुच आश्चर्य से अधिक आनंद की बात है।
परिवर्तन विश्व का नियम है। समाज, व्यवस्थाएँ, सामाजिक उद्देश्य, संस्कृतियाँ, मानवीय आचरण सब निरंतर परिवर्तित होते रहते हैं। साहित्य का उद्देश्य सदैव एक नैतिक, मानवीय, बलवान और बुद्धिमान समाज के निर्माण का प्रयास करना है। साहित्य की सभी विधाओं-कविता, निबंध, नाटक, रेखाचित्र आदि में व्यंग्य की उपस्थिति देखी और पहचानी जा सकती है। व्यंग्य कोई विधा नहीं है, वह चेतना है, स्प्रिट है। परसाईजी ने इसे खासतौर पर स्वीकारा है। वह हर विधा में, हर माध्यम से और हर भाषा से हाजिर होता है। यह हाजिरी एक सतर्क और जागरूक पुलिसमैन की है। ज्यों-ज्यों अपराध बढ़ते हैं, कानून की अवज्ञा का दौर तेज होता है, त्यों-त्यों पुलिसमैन की ड्यूटी बढ़ती है, कार्यभार बढ़ता है, जिम्मेदारी बढ़ती है, क्षेत्राधिकार बढ़ता है और अंततः कार्यकुशलता के आधार पर उसका दर्जा बढ़ता है। इसीलिए वर्तमान समाज संदर्भों के साथ-साथ व्यंग्य का कार्यक्षेत्र बढ़ा है, जिम्मेदारी बढ़ी है और हैसियत बढ़ी है। व्यंग्य की यह बढ़ी हुई हैसियत ही हर विधा में उसकी समर्थ उपस्थिति है। परसाईजी ने ‘वैष्णव की फिसलन’ की भूमिका में लिखा था-‘व्यंग्य की प्रतिष्ठा इस बीच साहित्य में काफी बढ़ी है। वह शूद्र से क्षत्रिय मान लिया गया है।’ व्यंग्य साहित्य में ब्राह्मण बनना भी नहीं चाहता, क्योंकि वह कीर्तन करता है। मेरा मानना है कि व्यंग्य क्षत्रिय है, अतः वह लठैती करेगा। यह भी कि अब कीर्तन की नहीं लठैती की ही जरूरत है।

व्यंग्य लेखन एक तरह की लठैती ही है। आज का समाज जैसे विसंगत, विद्रूप और विकृत अनुभवों का संसार है, व्यंग्य के दर्पण में उसकी वैसी ही भयंकर, कुरूप और डरावनी छवियाँ दिखाई देती हैं, इसलिए बाबू बालमुकुंद गुप्त से लेकर आशुतोष राणा तक सक्रिय व्यंग्यकर्मियों की सामाजिक प्रतिबद्धता समाज के दलित, शोषित और पीड़ित लोगों के लिए, उनके अधिकारों और स्वायत्तता के लिए एक न्यायपूर्ण संघर्ष की अगुवाई करती है।
आशुतोष राणा के ये व्यंग्य रेखाचित्र कहे जाएँगे। इनमें उनकी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति ने सचमुच कमाल किया है, जैसे कोई फीचर चल रहा हो। वे समय, समाज, संदर्भ और व्यक्तित्व की ऐसी सबल संरचना करते हैं कि रचना बोलने लगती है। व्यंग्य का मूल स्वर लिये ये रचनाएँ लेखक के द्वारा विधिवत् देखे गए, भोगे गए समय और समझे गए चरित्रों पर आधारित हैं। जब नैतिकता, निष्ठा, समर्पण, शिक्षा और संस्कारों के ध्वस्त और क्षरित होते मूल तत्त्वों से पूरा राष्ट्रीय परिदृश्य एक दोहरे और अविश्वसनीय चरित्र वाले समाज में बदल रहा हो, तब इस तरह का व्यंग्य लेखन एक अच्छी-भली चौकीदारी है, जिसका उद्देश्य ‘जागते रहो और जगाते रहो’ है। इसलिए ‘दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै। सुखिया सब संसार है खावै अरु सोवै।’

इन व्यंग्य-चरित्रों में कुछ तो अद्भुत हैं, लामचंद की लालबत्ती, भक्क नारायण महाराज, बी.सी.पी. उर्फ भग्गू पटेल, आत्माराम विज्ञानी, राम रवा-लपटा महाराज, विष्पाद गुधौलिया, चित और वित्त, यह कलियुग है प्यारे भैया, मूर्ख बनाकर जी और लाठी गली हमें उनके कार्यक्षेत्र मुंबई से उनके गृहनगर गाडरवारा तक घुमा देते हैं। आज मानवीय चरित्रों का विकट अध्ययन करने की आवश्यकता है। ये रचनाएँ हमें इसकी प्रेरणा देती हैं।

सच है, मनुष्य ही संत है, संन्यासी है, भला है, बुरा है। है और नहीं है। वही ठग, डाकू, चोर और लुटेरा है। वही हत्यारा है और वही रक्षा करनेवाला है। वही धनी है, गरीब है, महात्मा भी है और नीच भी है। क्या उत्कट विरोधाभास है। मनुष्य देह जैसे सीढ़ी है चाहो तो उद्धार-उत्थान-परोपकार के देवत्व तक चढ़ जाओ। चाहो तो अपकार, पतन, अवनति और अवगुणों के गर्त तक उतर जाओ। पीर है, फकीर है, वही बादशाह और वही मुफलिस-ओ-गदा है। रचनाकार यह सब तटस्थ दृष्टि से देखता है और उनके चरित्रों की पुनर्रचना करता है। आशुतोष राणा इसमें सिद्धहस्त होंगे, यह मेरी कामना है। सरस्वती उन पर कृपालु हों और वे सदा सारस्वत रहें। मानवीय चरित्रों को इसी सतर्कता से अंकित करते रहें। किसी ने लिखा है-
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी।
जिसको भी देखना हो कई बार देखना।।
-डॉ. सुरेश आचार्य.
पूर्व अध्यक्ष-हिंदी प्रकोष्ठ
प्रधान संपादक-मध्य भारती (शोध पत्रिका)
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर
मौन मुस्कान की मार
लेखक : आशुतोष राणा
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 200