हाल के दिनों में सिंधिया राजघराने पर दो किताबें आयीं हैं-रशीद किदवई की 'द हाउस ऑफ सिंधिया' रोली बुक्स से और अभिलाष खांडेकर की 'द सिंधिया लीगेसी' रूपा से। आमतौर पर कुछ सालों पहले तक इस घराने पर लिखने से बचा जाता था। वजह इस घराने का 1857 की क्रांति के दौरान रानी लक्ष्मी बाई का साथ ना देने का आरोप लगना और आजादी के बाद राजनीति में सक्रिय विजयाराजे सिंधिया का लगातार इंदिरा गांधी और कांग्रेस सरकारों का विरोध करना। मगर अब वक्त बदला है और मध्यप्रदेश में सक्रिय वरिष्ठ पत्रकारों की इन दो किताबों ने तीन सौ साल से लगातार सत्ता और सरकार में सक्रिय इस घराने की अंतरकथाओं को बहुत करीब से देखने और समझने का मौका दिया है।
लेखक-पत्रकार अभिलाष खांडेकर की किताब 'द सिंधिया लीगेसी फ्रॉम रानोजी टू ज्योतिरादित्य' में इस राजघराने के तीन बड़े किरदारों के आसपास इस किताब को बेहद खूबसूरती से बुना गया है। राजनीति में बेमन से आने वाली राजमाता विजयाराजे सिंधिया जो पहले कांग्रेस फिर जनसंघ और बाद में भाजपा में गयीं फिर उनके बेटे माधवराव सिंधिया जो पहले जनसंघ और बाद में कांग्रेस के नेता बने और उनके पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया जो पहले कांग्रेस और अब भाजपा के नेता हैं। इन तीनों नेताओं के काम करने के तरीके उनके इर्दगिर्द बुनी गयीं परिस्थितियां और उन हालातों में लिये गये फैसलों को लेखक ने ऐसे लिखा है जैसे वो उस मौके पर मौजूद थे। यही इस किताब की खूबी है।
सिंधिया घराने का सफर करीब तीन सौ साल पहले रानोजी शिंदे से शुरू होता है जो शिलेदार परिवार में जन्मे और वफादारी के दम पर पेशवा के अंगरक्षक और बाद में मालवा के सरदार बने। मध्यप्रदेश के मालवा इलाके का उज्जैन सिंधिया, इंदौर होलकर, धार और देवास पवार, नागपुर भोंसले तो बड़ौदा गायकवाड और झांसी नेवलकर के कब्जे में पेशवा ने दे रखा था। सिंधिया घराने के तीसरी पीढ़ी के सामंत दौलत राव 1810 में उज्जैन से ग्वालियर आये और लश्कर को राजधानी बनाया। मगर इस घराने की बुरी यादें जुडी हैं जयाजीराव सिंधिया के कारण जिन्होंने अंग्रेजों के दबाव में आकर तात्या टोपे लक्ष्मीबाई और नानासाहेब सरीखे मराठा सरदारों की मदद ही नहीं की बल्कि अंग्रेजों के धमकाने पर मराठा सरदार तात्या टोपे के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया जिसमें रानी लक्ष्मीबाई नेवलकर ने शहादत पायी और इतिहास के पन्नों पर अमर हो गयीं। मगर यही जयाजीराव सिंधिया राजघराने को बेहद अमीर और संपन्न बनाकर गये। ग्वालियर के आज बड़े विशाल जयविलास पैलेस मोती महल और उषा किरण पैलेस इन्हीं की देन है।
देश को आजादी पाने वाले दिनों में जॉर्ज जीवाजीराव सिंधिया ग्वालियर के महाराजा थे जिनकी पत्नी विजयाराजे सिंधिया ने बड़े बेमन से राजनीति को सीखा, समझा और निबाहा। आजादी पाने के बाद 550 से ज्यादा राजघरानों पर संकट था कि वो आने वाले दिनों में क्या करें लोकतंत्र के सामने अपने राजतंत्र को कैसे बचायें। जयपुर की रानी गायत्री देवी और ग्वालियर की विजयाराजे सिंधिया ने राजनीति की राह पकड़ी। गायत्री देवी स्वतंत्र पार्टी तो विजयाराजे कांग्रेस में आयीं। ग्वालियर की महारानी ने दो लोकसभा के चुनाव 1957 में गुना से लड़र जहां उन्होंने हिंदू महासभा को पराजित किया तो 1962 में ग्वालियर से लड़कर जनसंघ के प्रत्याशी को हराया मगर इंदिरा गांधी के रवैये के कारण वो ज्यादा दिन कांग्रेस में रह नहीं सकीं। पहले इंदिरा गांधी और फिर उनके राजनीतिक गुरू द्वारिका प्रसाद मिश्रा से पटरी नहीं बैठ पाने के कारण विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेस को अलविदा कह कर जनसंघ की शरण ली और बाद में आपातकाल भी भोगा।
लेखक ने विजयाराजे की पार्टी बदलने की उलझन और कांग्रेस छोड़ नये बने जनसंघ में लाने की कवायद को रोचक तरीके से लिखा है। किताब को पढ़कर जाना कि विजयाराजे शायद पहली नेता होगीं जिन्होंने एक साथ दो चुनाव, दो अलग पार्टी और दो अलग चुनाव चिन्ह पर लड़े और जीते। 1967 में करेरा से विधानसभा चुनाव जनसंघ की टिकट पर तो उसी दौरान स्वतंत्र पार्टी की उम्मीदवार बनकर गुना लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ा और जीता। मध्यप्रदेश के राजनीतिक इतिहास में 1967 को इसलिये भी याद रखा जाता है कि इस साल कांग्रेस के मजबूत मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा की सरकार विजयाराजे ने कांग्रेस विधायक दल में टूट कराकर वैसे ही गिरा दी जैसे 2020 में कांग्रेस आलाकमान के करीबी कमलनाथ की सरकार ज्योतिरादित्य सिंधिया ने गिरा दी। दोनों वक्त सिंधिया राजघराने के सम्मान और अहम की लड़ाई थी जिसमें हार कांग्रेस पार्टी की हुई।
विजयाराजे की जिंदगी का सबसे बडा दुख इकलौते बेटे माधवराव सिंधिया से रही दूरी का रहा। दोनों पहले एक, फिर अलग-अलग पार्टी में रहे। लेखक अभिलाष खांडेकर के माधवराव से करीबी रही है इसलिये इस किताब में कई अच्छे प्रसंग ऐसे हैं जिनमें नये माधवराव की छवि दिखती है। माधवराव का हवाला कांड में नाम आना। उसके बाद 1996 में नयी पार्टी बनाकर दो प्रत्याशियों को जिताना। यूनाइटेड फ्रंट का हिस्सा बनना फिर कांग्रेस में वापस आना और लगातार नौ चुनाव जीतने का रिकॉर्ड बनाये रखना आसान काम न था। माधवराव सिंधिया का अपने समकालीन नेताओं के साथ संबंधों को भी किताब में लेखक ने रोचक तरीके से लिखा है। ग्वालियर के इस चार्मिंग महाराजा की विमान दुर्घटना में असामयिक मौत और उनकी अंतिम यात्रा का विवरण भी किताब का रोचक हिस्सा है।
सिंधिया परिवार के चमकदार नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का अचानक राजनीति में आना, गांधी परिवार की करीबी पाना, पंद्रह साल बाद कांग्रेस की मध्यप्रदेश में वापसी कराना और अचानक ही पार्टी तोड़कर विपक्षी बीजेपी में चले जाना ऐसी कहानी है जिस पर आसानी से भरोसा नहीं होता मगर राजनीति में सब कुछ मुमकिन है। एमपी में कमलनाथ सरकार गिराने की कहानी को भी अभिलाष खांडेकर ने अपने सूत्रों के दम पर विश्वसनीय तरीके से लिखा है।
ये किताब पढ़ते वक्त आप एक साथ देश और मध्यप्रदेश की राजनीति के घटनाक्रमों के साक्षी बनते रहते हैं। राजनीति में रूचि रखने वालों के लिये ये किताब राजनीति की समझ बढ़ाने के लिये बेहद जरूरी है। ये शोधपरक और रुचिकर किताब है ये जो पहले से आखिरी पन्ने तक बांधे रहती है। साथ ही सिंधिया राजघराने का देश की राजनीति में योगदान का तथ्यपरक मूल्यांकन भी करती है।
~ब्रजेश राजपूत.
(लेखक ABP न्यूज़ से जुड़े हैं. उन्होंने कई बेस्टसेलर पुस्तकें लिखी हैं)
द सिंधिया लीगेसी
लेखक : अभिलाष खांडेकर
प्रकाशक : रुपा पब्लिकेशंस
पृष्ठ : 280
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