देवभूमि के यशस्वी अक्षर-साधक कवि रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की विश्वव्यापी ‘कोरोना-काल’ में रची गई कविताओं का संग्रह ‘मेरा बचपन और माँ की पाठशाला’ कवि की ऐसी अनूठी कविताओं का संग्रह है, जो हिंदी की ‘स्मृति-काव्य-परंपरा’ की बेजोड़ कृति कही जा सकती है।
संसार में हर व्यक्ति ‘बच्चे’ के रूप में ही जन्म लेता है और माँ की गोद में पलते-पलते ही ‘बचपन’ से शैशव और जवानी की गलियों को पार करके ‘पचपन’ तक पहुँचकर सबसे अधिक जिसे याद करता है, वह है उसका पीछे छूट गया ‘बचपन’ और उस बचपन को अपनी ममता के आँचल से बचानेवाली माँ का दुलार!
सारी दुनिया की दौलत कमाकर भी व्यक्ति पीछे कहीं बहुत दूर छूट गए अपने ‘बचपन’ और ‘माँ के ममता भरे आँचल’ को दोबारा प्राप्त नहीं कर पाता और तब इन दोनों को वह अपनी ‘यादों’ में ‘कल्पना के रथ’ पर बिठाकर साकार करता है।
यादों को कल्पनाओं में सजा-सँवारकर ‘अक्षर’ बनानेवाले कवि निश्चय ही संसार में बहुत कम होते हैं। हिंदी में महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘सरोज-स्मृति’ की रचना करके अपनी दिवंगत सुपुत्री सरोज की ‘स्मृति’ को अमृत कर दिया है, महाकवि जयशंकर प्रसाद ने ‘आँसू’ काव्य रचकर अपनी ‘स्मृति’ को अक्षर बना दिया है।
और अब, देवभूमि के शब्द-शिल्पी श्री ‘निशंक’ ने अपनी स्मृतियों में रचे-बसे अपने ‘बचपन’ के साथ ही ‘माँ की पाठशाला’ से मिले जीवन-मूल्य रूपी अमूल्य भाव-रत्नों को शब्दों के माध्यम से अमरत्व प्रदान किया है।
मेरी विनम्र सम्मति में महाप्राण पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा प्रणीत ‘सरोज-स्मृति’ और महाकवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘आँसू’ मूलतः ‘शोक-काव्य’ कहे जाते हैं, जबकि कविवर श्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ द्वारा रचित ‘प्रकृति की गोद में माँ की पाठशाला’ में संगृहीत कविताएँ विशुद्ध रूप में ‘स्मृति-काव्य’ हैं, जिनमें कवि ‘निशंक’ ने एक ओर अपने बचपन की इंद्रधनुषी स्मृतियों को उकेरा है, तो दूसरी ओर माँ से मिले बहुमूल्य जीवन-मूल्यों को अमृत बनाकर ‘माँ की स्मृतियों’ को भी संजीवनी प्रदान की है।
हिंदी साहित्य में ही कथाकार कवि नागार्जुन ने भी अपने गाँव ‘तरौनी’ को याद करते हुए लिखा है-
‘याद आता है
मुझको
अपना तरौनी ग्राम;
याद आती लीचियाँ
और आम।’
बाबा नागार्जुन की इन पंक्तियों में अत्यंत सूक्ष्म संकेतों में उनके ‘तरौनी ग्राम’ की स्मृति अवश्य बँध गई हैं, लेकिन उत्तराखंड के गौरव-कवि श्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की ‘कोरोना-काल’ में रची गई ‘प्रकृति की गोद में माँ की पाठशाला’ कविता-संग्रह की कविताओं में तो उनके ‘बचपन’ की लगभग हर ‘स्मृति के साथ’ माँ के वात्सल्य का अमृत पाठकों को मिलेगा, जो सहज ही प्रत्येक पाठक के हृदय को झकझोरकर रख देगा।
श्री ‘निशंक’ की इन ‘स्मृति-कविताओं’ में पहाड़ की धड़कन को महसूस किया जा सकता है। पर्वतीय लोक-जीवन, लोक-संस्कृति और संवेदनाओं से महकती हुई श्री ‘निशंक’ की ये कविताएँ पर्वतीय-समाज की अदम्य जिजीविषा का निर्मल दर्पण कही जा सकती हैं।
मैं तो निश्चयपूर्वक और गर्व के साथ कह सकता हूँ कि विश्वव्यापी ‘कोरोना महामारी’ की भयंकर विभीषिका में कवि ‘निशंक’ ने इन रचनाओं के रूप में ‘स्मृति-काव्य’ का अनुपम उपहार हिंदी-जगत् को दिया है।
देवभूमि की पावन स्मृतियों को अपनी कविताओं में साकार करनेवाले कवि श्री ‘निशंक’ की भावनाओं में ‘पर्वतीय जीवन और परिवेश’ आपको शब्दशः जीवंत मिलेगा। श्री ‘निशंक’ अपनी ‘मेरी अभिलाषा’ कविता में लिखते हैं-
‘यदि मिले मुझे पुनर्जन्म तो,
चाहूँगा कि हिमालय की गोदी हर बार हो
मेरा पहला स्पर्श पड़े उस मिट्टी पर
जिसमें रचा-बसा प्रकृति का प्यार हो।’
और इसी कविता के अंत में कवि ‘निशंक’ देवभूमि से प्राप्त उच्चतम संस्कार को वाणी देते हुए अपनी ‘अभिलाषा’ इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-
‘मेरा जीवन हो कुछ ऐसा जिसमें,
परहित समर्पण का सार हो;
और इतने सार्थक जीवन के लिए
प्रतिक्षण ईश्वर का मन में आभार हो।’
उक्त पंक्तियों में कवि ‘निशंक’ का सारस्वत-चिंतन और जीवन-दर्शन ध्वनित हो उठा है।
‘स्मृति-काव्य’ का सुंदर निदर्शन कराती इस संग्रह की कविता ‘मुझे याद आ रहा’ की आरंभिक पंक्तियाँ ही इस संग्रह की रचनाओं का परिचय पाठकों से करा देती हैं। कवि श्री ‘निशंक’ लिखते हैं-
‘हरे-भरे पहाड़ों में
मेरा गाँव प्यारा सा
मुझे याद आ रहा है,
पल-पल सता रहा है।
मेरे गाँव में बसा
यादों का इक घरौंदा
मुझे याद आ रहा है,
पल-पल सता रहा है।
आँखों में बसा मेरी, साँसों में है समाया,
आँगन मेरा जहाँ पर, बचपन मैंने बिताया।
रहती जहाँ थी माँ
और माँ का लाड़ला
मुझे याद आ रहा है,
पल-पल रिझा रहा है।’
महानगर ‘देहरादून’, ‘लखनऊ’ और अब ‘दिल्ली’ के चकाचौंध भरे जीवन के बीच कवि ‘निशंक’ की रची हुई यह कविता तथा उनके इस संग्रह ‘प्रकृति की गोद में माँ की पाठशाला’ की अन्य कविताएँ निस्संदेह हिंदी-काव्य को ‘स्मृति-काव्य’ के रूप में अनूठा उपहार ही कही जा सकती हैं।
देवभूमि के उच्चतम शाश्वत संस्कार कवि श्री ‘निशंक’ को अपनी पूज्या माँ की ‘पाठशाला’ से ही मिले हैं, जिनसे उनका जीवन ‘कर्मशीलता’ और ‘परदुःखकातरता’ का पर्यायवाची बन गया है।
इस संग्रह की कविता ‘माँ की दुनिया’ पढ़ते-पढ़ते मेरी आँखें डबडबाती रही हैं, तो सोचता हूँ कि कवि श्री ‘निशंक’ की आँखों से कितना गंगाजल बहा होगा? इस कविता में ‘माँ’ जीवंत हो उठी है-
‘माँ!
तब का तो नहीं मालूम मुझे,
लेकिन आज महसूस करता हूँ मैं कि
तुम्हारे हाथों की कोमलता
हमें मजबूत बनाते हुए खुरदुरी हो गई।
हाथों में भाग्य की लकीरें तो दिखी नहीं,
लेकिन घास, दराँती और
खेतों की मिट्टी से आड़ी-तिरछी
कई-कई लकीरें बन गईं तुम्हारे हाथों में।
माँ!
आज तुम नहीं होकर भी हमेशा
मेरे आसपास ही रहती हो,
मेरी कहानियों में, मेरे गीतों में
और कविता में गंगा सी बहती हो।’
-डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
[ सदस्य कार्य परिषद् महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी वि.वि., रुड़की ]
प्रकृति की गोद में माँ की पाठशाला
लेखक : रमेश पोखरियाल ‘निशंक’
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 200
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