पत्थलगड़ी : पत्थर, जीवन और इतिहास

पत्थलगड़ी : पत्थर, जीवन और इतिहास

‘पत्थलगड़ी’ आदिवासियों का सांस्कृतिक विधान है। जन्म से मृत्यु तक मुण्डा आदिवासी पत्थरों को सहेज कर रखते हैं। उनकी मान्यता है कि पत्थर भी जीवित होते हैं, समय के साथ उनकी उम्र बढ़ती है। उनका जीवित रहना आदिवासियों के जीवन का जीवित बचे रहना है। वे पत्थरों को नहलाते हैं, उसे तेल लगाते हैं। चावल की गुण्डी (आटा) से उसे सम्मान देते हैं। उनके लिए जतरा (त्योहार) का आयोजन करते हैं, माँदल बजाते हैं और गीत गाते हैं। पत्थर भी इस भावना को महसूस करते हैं और वे ताउम्र आदिवासियों के साथ खड़े रहते हैं। वे गवाह हैं आदिवासी जीवन और इतिहास के। अनादिकाल से आदिवासी जीवन और इतिहास से गहरे जुड़े होने के कारण पत्थर प्रतिरोध और स्वायत्तता के प्रतीक बन गये हैं। दोनों एक-दूसरे से बिछड़ नहीं सकते।

मेरी कविता अपने पूर्वजों का शुक्रिया अदा करती है कि उन्होंने सहजीविता की जीवन-दृष्टि दी और पत्थरों को जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाया। कला में सहजीविता जीवन में स्वायत्तता का सूचक है। अब जबकि समूचा जीवन ही विज्ञापनों और सूचना तन्त्रों के जंजाल में क़ैद है, ऐसे में सहजीविता और स्वायत्तता की बात करना स्वाभाविक विद्रोह है। औपनिवेशिक समय में जब शासन ने आदिवासियों से उनकी ज़मीन का मालिकाना सबूत माँगा तो कचहरी में आदिवासियों के साथ पत्थर भी खड़े हुए। अंग्रेज़ों की अदालत ने आदिवासियों के पक्ष में पत्थरों की गवाही को स्वीकार नहीं किया। उनकी ज़मीन पर सेंध लगाने के लिए अंग्रेज़ों ने उनके ‘पत्थरों’ के प्रयोग पर निषेध लगाया। उसके बाद जब-जब आदिवासियों ने अपनी ज़मीन का दावा किया, तब-तब शासन ने उनकी ‘पत्थलगड़ी’ पर निषेध लगाया। सहजीविता और स्वायत्तता को कुचलने की शासन की साज़िश बहुत पुरानी है। दुखद है कि आज भी कई आदिवासी गाँव ‘पत्थलगड़ी’ करने के आरोप में देशद्रोही माने गये हैं। आज जब फिर से आदिवासियों से उनकी ज़मीन का पट्टा माँगा जा रहा है तो पत्थर फिर से उनके पक्ष में गवाही के लिए खड़े हुए हैं। इस बार आदिवासियों के साथ केवल पत्थर ही नहीं खड़े हैं बल्कि उनके साथ कविता भी खड़ी हो गयी है।

अब कविता के स्वभाव पर बात करने के लिए ज़रूरी हो गया है कि पत्थरों के स्वभाव की बात की जाये। पत्थर सिर्फ़ आदिवासी जीवन के गवाह नहीं हैं। वे छाँव देने वाले पेड़ों के बारे में जानते हैं। वे नदियों के बारे में जानते हैं जिनके गर्भ में केवल मछलियाँ ही नहीं होतीं बल्कि किसानों के सहोदर भी होते हैं। वे जंगलों, पहाड़ों और सम्पूर्ण पारिस्थितिकी के बारे में जानते हैं। वे समूची मानव सभ्यता के गवाह हैं। वे मनुष्य की भूख के बारे में सबसे ज़्यादा जानते हैं। वे मनुष्य के भटकाव को जानते हैं। वही हैं जो ग़लत रास्ते पर चलते हुए राहगीरों के पाँव में ठोकर बनकर लगते हैं और नये रास्तों की खोज कराते हैं।

यह पत्थरों पर निषेध लगाने का सरकारी समय है। यह पत्थरों को सभ्यता के नाम पर ज़मींदोज़ कर देने का क्रूर समय है। ऐसे में कविता वस्तुओं की नक़्क़ाशी की कविता नहीं हो सकती। पत्थरों से देव-मूर्तियों का शिल्प उकेरने की कविता तो कतई नहीं हो सकती। यह सत्य के पक्ष में गवाही देने वाले की अनगढ़ता को स्वीकारने वाली कविता होगी। नागरिकता के सवाल हों या, किसी गाँव के भीमा कोरेगाँव होने के सवाल हों, या, आदिवासी अस्तित्व के सवाल हों, या खेती-किसानी के सवाल हों, या किसी समाज की स्वायत्तता के सवाल हों, जब कोई कविता इन्हें अपने साथ लेकर चलेगी उसपर पत्थलगड़ी करने का आरोप लगाया जायेगा। आज की कविता पत्थलगड़ी करने वाली कविता होगी। कथित सभ्यता और विकास का क्रेशर केवल पहाड़ों पर ही नहीं चल रहा है बल्कि वह कविताओं पर भी चला दिया गया है। संवेदनाओं को सहेजने के लिए ज़रूरी है स्वायत्तता, और यह बिना सहजीविता के अधूरी होगी। सहजीविता और स्वायत्तता ही मनुष्यता के सर्वोत्तम लक्ष्य हो सकते हैं और कविता उसका माध्यम।

मेरा पहला काव्य संकलन ‘अघोषित उलगुलान’ अब तक अप्रकाशित है। अन्यथा यह मेरी तीसरी कविता पुस्तक होती। ‘बाघ और सुगना मुण्डा की बेटी’ सबसे पहले प्रकाशित हुई।

-अनुज लुगुन.

जब इतिहास में किसी हुकूमत की कब्र जगमगाती है
तो वहीं अँधेरे में
किसी भूखे की भी कब्र होती है
जो उसकी दया के शिल्पों को तोड़ देती है।
अनुज लुगुन / पत्थलगड़ी
सेवा जिनके लिए
अपना झण्डा फहराने का चोर दरवाज़ा है
वे ही जंगलों में
प्रतीकों को लेकर आते हैं।
अनुज लुगुन / पत्थलगड़ी
उनकी संख्या कम होती जायेगी
वे आस्था और भक्ति के जबड़े पर तिनकों की तरह होंगे
तर्क की क़ब्र पर उन्हें चबाया जायेगा
जब इन्द्रधनुषी छवियाँ गढ़ी जा रही होंगी
उन्हें धकेला जायेगा अन्धे कुओं में
अपनी भाषा में बोलना उनके लिए अपराध होगा
क्रूरता और हिंसा के सामने वे अल्पसंख्यक होंगे
अनुज लुगुन / पत्थलगड़ी
भाषा का यह फेर पुराना है
सरकार आदिवासियों की भाषा नहीं समझती है
वह उन पर अपनी भाषा थोपती है
आदिवासी पत्थलगड़ी करते हैं
और सरकार को लगता है कि वे बग़ावत कर रहे हैं।
अनुज लुगुन / पत्थलगड़ी

पत्थलगड़ी
लेखक : अनुज लुगुन
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 120
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