उदय प्रताप सिंह की काव्य यात्रा पिछले 75 वर्षों से लगातार चल रही है। वह मंचीय कविता के पुरोधा एवं अग्रणी कवि रहे हैं। भाषा और छंद पर बहुत सुंदर अधिकार रखने वाले उदय प्रताप सिंह ने पुराने जमाने में राष्ट्रकवि दिनकर के साथ काव्य मंच साझा किया है और इस जमाने के कवि कुमार विश्वास के भी साथ भी उपस्थित रहे हैं। वो उस जमाने के कवि हैं जब कविता जनता से दूर नहीं गयी थी। कवियों का अपने समाज से जीवंत संबंध था और काव्य सम्मेलनों के मंच पर कवि अपने जमाने की जनभावनाओं को मुखरता से अभिव्यक्त करते थे। कवि सम्मेलन तो आज भी होते ही रहते हैं लेकिन गंभीर कविताओं के दिन लद गए। ऐसे समय में कवि उदय प्रताप सिंह की यह कविता पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें पुराने वक्त की बेहतरीन गूंजें कविताओं और गजलों के साथ ही दर्ज हैं और इस बात का भी इशारा करती हैं कि कवि की रचनात्मकता अभी चुकी नहीं है और उसका तेवर मद्धिम नहीं पड़ा है। “हिंदुस्तान सबका है” न केवल एक पठनीय काव्यसंग्रह है बल्कि वह संग्रह में संकलित इसी नाम की एक कविता से उठायी गयी पंक्ति है जो आज के राजनीतिक नैरेटिव के प्रचलित कंटकाकीर्ण पथ के सापेक्ष कविता का जनपथ संभव करती है। उदय प्रताप सिंह की कविता का प्रधान स्वर आजादी के बाद मोहभंग का ही है। वहीं से उठान लेकर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक इनकी कविता का पाट फैला हुआ है जो विस्मयकारक है। गजलों का रचाव उदयप्रताप जी की आधुनिक जीवन की तकनीकी संवेदना से निर्मित हुआ है जिसका परिचय इस संग्रह में संकलित गजलों से मिलता है।
खड़ी बोली आधुनिक हिंदी कविता की यदि उम्र डेढ़ सौ साल की मानी जाय तो उसमें पिछले 75 वर्षों की साहित्यिक उपस्थिति उदय प्रताप सिंह जी की भी है। आज आज़ादी का अमृत महोत्सव हम मना रहे हैं। कुछ कम बड़ा संयोग नहीं है कि यही अमृत महोत्सव उदय प्रताप सिंह की कविताई का भी है। उन्होंने पंद्रह वर्ष की आयु में 1947 में भारत की आज़ादी के समय शिकोहाबाद के किसी मंच से कविता पाठ का श्रीगणेश किया था। शिकोहाबाद उनकी जन्मस्थली है और उस छोटे शहर की बनावट में भारतीय इतिहास के त्रासद चरित्र दाराशिकोह की उदार यादें भी दर्ज हैं। उदय प्रताप सिंह कहते हैं कि इस शहर ने उन्हें बार बार भारतीय इतिहास की मध्यकालीन चेतना के अंधकार से जूझने की शक्ति दी है। वह शक्ति है भारत की परम्परा का उदार चेहरा जिसे दाराशिकोह ने अपनाने की हिम्मत की थी। उदय प्रताप सिंह मानते हैं कि यदि दारा शिकोह सत्ता में आया होता तो भारत का इतिहास मज़हबी कट्टरता की अंधी गलियों में न गया होता।
किशोरावस्था में ही उनका मन भावुक संवेदनशीलता से उठकर धीरे धीरे लोकमन के नज़दीक जाने लगा और वह कविसुलभ रोमानियत से बाहर आ गए। उदय प्रताप सिंह ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश के ज़मींदार परिवार में जन्म लिया लेकिन उनके भीतर के कवि ने अपनी आत्मछवि को साधारण जनता की दुख तकलीफ़ से जोड़ा। वह रोमानियत के निजी उच्छ्वास से उठकर ज़िंदगी की धूल गर्द से जुड़ गए। लोकवृत्त में उनकी कविता मंचीय कविता का राष्ट्रवादी स्वर बनकर उभरी जिसकी शुरुआत भारतेंदु के जमाने से ही हो गयी थी। स्वयं भारतेंदु की खड़ी बोली कविताएँ राष्ट्रीय चेतना के लिए बीजवपन का काम कर रही थीं जिसका पल्लवन नाथूराम शर्मा शंकर और राम नरेश त्रिपाठी में हुआ। वही धारा द्विवेदी युग में मैथिली शरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी तथा बालकृष्ण शर्मा नवीन से से होती हुई दिनकर के काव्य में शिखर पर पहुँच गयी। लेकिन द्विवेदी युग के बाद हिंदी कविता की अंतर्यात्रा का एक महत्वपूर्ण रूप छायावाद के रूप में प्रकट हुआ जिसके प्रतिनिधि कवि प्रसाद पंत और निराला हुए। लेकिन छायावाद की अंतर्मुखी तबीयत को छोड़कर दिनकर और बच्चन ने दो भिन्न लेकिन प्रबल सुरों को जनता के मंच पर गाया था और वो दोनों सुर बहुत लोकप्रिय हुए।
प्रमुखतः वीर और शृंगार रस के दो प्रवाह ही काव्यमंच पर जगह पाते आए हैं। पिछले तीस चालीस सालों से एक तीसरा रस हास्य भी उसमें जगह बना चुका है जो कभी कभी विद्रूपता में भी ढल जाता है। आजकल की मंचीय कविता वीर शृंगार और हास्य की कॉकटेल बन कर रह गयी है। बहरहाल। उदय प्रताप सिंह ने अपने युवा मन को रोमानियत से ज़रा जल्दी ही मुक्त कर लिया इसलिए दिनकर जी वाली ओजस्वी धारा से उनका संबंध सहज ही बन गया। दिनकर जी यानी राष्ट्रवादी सांस्कृतिक कविता की वह धारा जो भारतेंदु के जमाने से ही चली आ रही थी। उसका मूल स्वर प्रतिरोध का था लेकिन परम्परा में जिसकी गहरी आस्था थी। दिनकर जी ने तो प्रारंभ से ही “हुंकार” और “कुरुक्षेत्र” के साथ “रसवन्ती” को भी साधा था जिसका चरमोत्कर्ष “उर्वशी” में दिखलायी पड़ता है। उदय प्रताप सिंह जी शृंगार की ओर नहीं गये। उन्होंने अपने समय के सामाजिक परिवर्तन की जनशक्तियों से अपना संबंध जोड़ा। फलतः विकल्परहित ओजस्वी कविता का समतावादी संगीत उनकी कविता का प्रधान स्वर बन गया। वही स्वर उनके कवित्तों में भी है और वही स्वर उनकी ग़ज़लों में भी है। उनकी सभी कविताएँ प्रचलित छंदों में हैं और रैटरिक कविता का जो गुण होता है जिसमें प्रसाद और ओज मिले रहते हैं वही उनकी कविता का मूल गुण भी है।
जब हिंदी कविता आज़ादी के बाद नयी कविता की ओर मुड़ी थी उस समय नवलेखन की अनेक विधाओं में हिंदी रचनाधर्मिता मुखरित हुई। अज्ञेय जी के तारसप्तक से प्रयोगवाद की चर्चा प्रारंभ हुई और हिंदी कविता अपने कथ्य और शिल्प के मध्यवर्गीय ढाँचे पर पकड़ बनाने में कामयाब ज़रूर हुई। लेकिन इस उपक्रम में वह अधिकाधिक अकादमिक और शास्त्रीय भी होती चली गयी और परिणामतः लोकवृत्त से बाहर जा पड़ी। पाठक धीरे धीरे कथा साहित्य में रमते दिखायी दिये और कविता श्रव्य से अधिक पठ्य हो गयी। साठोत्तरी कविता जो अकादमिक नयी कविता की शैली में कही गयी उसकी दो धाराएँ हुईं -पहली वह जो अज्ञेय जी के नेतृत्व वाली नयी कविता जिसका फार्म अधिक रूपवादी और अलंकृत था, और दूसरी वह जो अपना संबंध प्रगतिवादी धारा से जोड़ती थी और जिसके केंद्र में मुक्तिबोध थे। कालांतर में उसे ही जनवादी कविता कहा गया। केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन को उस धारा का प्रमुख कवि कहा गया। बाद में गांधीवादी काव्यानुभूति के विशिष्ट कवि भवानीप्रसाद मिश्र को भी उसमें स्थान मिला। प्रगतिवादी धारा के कवियों ने राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा के समानांतर ही कविता की शैलियों में प्रयोग कर छंद मुक्त कविता में बोलचाल के व्यंग्यात्मक अंदाज को आगे किया। जनवादी कविता का उत्स यहीं पर है। लेकिन उदय प्रताप जी का उत्स इन दोनों में नहीं है। वह मूलत: दिनकर जी की और सुमन जी की प्रगतिशील धारा से अपना संबंध जोड़ते हैं। यही धारा डॉ लोहिया की मौलिक सोच और उनकी तरेर और तुर्शी से जुड़कर नयी कविता के उन कवियों से जुडी जिनमें विजयदेव नारायण साही, लक्ष्मीकांत वर्मा, विपिन कुमार अग्रवाल और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना प्रमुख हैं। यहां आकर कई धाराओं का संगम हुआ है।
एक बात यह भी हुई थी कि छायावाद की सांगीतिक कोख से जन्मी हुई नवगीत कविता भी प्रगतिशील कवियों के समांतर ही अपना स्वरूप विनिर्मित कर रही थी। उसकी जड़ें निराला के गीतों में हैं। आज़ादी के बाद साठोत्तरी कविता के प्रकट होने तक वह कविता नवगीत के रूप में मंचों पर खूब लोकप्रिय हुई जिसके कवि नीरज और सोम ठाकुर हुए। कुल मिलाकर हिंदी कविता का रूप अधिक जनतांत्रिक और उसका माहौल आज़ाद तबीयत का बना जिसमें दिनकर बच्चन के बाद वाली पीढ़ी में नीरज, वीरेंद्र जैन, सोम ठाकुर और उदय प्रताप सिंह जैसे कवि मंच पर बाल पतंग की तरह उदित हुए। उनके काव्य में राष्ट्रीयता का ओज, प्रगतिवादियों की सामाजिक चेतना और नवगीतकारों की सांगीतिकता या छंदभावना कहीं न कहीं प्रमुख थी। नवगीतकारों ने छंदों के साथ ही बिम्बविधान में भी काफ़ी परिवर्तन किये हैं। उससे नवगीत काव्यानु़्शासन के नज़रिये से दुरुस्त ज़रूर हुआ लेकिन जनचेतना को उत्प्रेरित करने में उसकी भूमिका बहुत सॉफ़्ट हो गयी। निश्चय ही उदय प्रताप सिंह के तेवर के अनुकूल नवगीत नहीं हो सकता था।
उदय प्रताप सिंह साठोत्तरी कविता के जनवादी स्वर के समक्ष बतौर लोकवादी राष्ट्रीयता के गायक बनकर उभरे जिसमें राममनोहर लोहिया की राजनीतिक चेतना समाजवादी सपने को चरितार्थ करते हुए प्रकट हुई। वह लोहिया जी से ही प्रभावित रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, विजयदेवनारायण साही, लक्ष्मीकान्त वर्मा आदि की अकादमिक कविता से भिन्न काव्यरूप की पुरानी मंचीय सरणि पर ही चलती रही। उदय प्रताप सिंह ने काव्य में विषय वस्तु का न तो कोई परिवर्तन किया और न ही शैली में अपने समकालीन कवियों की नक़ल की। उनकी शैली राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता की उत्तराधिकारिणी है जिसमें अनेक छंदों की कविता के साथ कवित्त छंद की मंचीय पाठकला अधिक मुखर हो उठती है। हम अभी भी ओजस्वी कविता को मंचो पर कवित्त छंद में सर्वाधिक प्रयोग में आते हुए देखते हैं। उनकी बहरें कुछ उर्दू कविता की हैं, कुछ रुबाइयों की हैं और कुछ वीर और लावनी काव्यधारा की हैं। उनके छंदों पर सर्वाधिक प्रभाव दिनकर जी की ही कविता का दिखायी देता है। यदि कहा जाय कि दिनकर जी के बाद कोई कवि जिसमें उनके छंदों का सर्वाधिक उपयोग किसी कवि ने किया है तो वह उदय प्रताप सिंह ही होंगे।
तत्कालीन परिवेश आज़ादी के सपनों को आगे ले चलने वाले राष्ट्रीय नेताओं की क़ुर्बानियों से बना था लेकिन आज़ादी के बाद राजनीतिक स्वार्थों के कारण भारतीय कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने आम जनजीवन से भारतीय विकास के मॉडल को दूर कर दिया। उसमें गांधी जी के बाद भारतीय राजनीति की जनोन्मुख आवाज़ें प्रायः दबती चली गयी थीं जिन्हें उभारने के लिए ही भारतीय राजनीति में समाजवादी दर्शन का उदय हुआ। नेहरू के विकासवाद से साहित्यकार निराश होने लगे और जनता में भी एक प्रकार के मोहभंग की स्थिति पैदा हुई। डॉ राममनोहर लोहिया भारतीय राजनीति में जवाहर लाल नेहरू के राजनीतिक तिलिस्म को तोड़ने के लिए जैसा बौद्धिक उद्योग कर रहे थे उसकी ज़मीन समाजवादी दर्शन की जड़ों में थीं। यदि दिनकर जी नेहरू के आभामंडल वाले परिवर्तनकामी प्रगतिशील कवि थे तो उनके साथ साथ मंच पर युवा कवि के रूप में शिरकत करने वाले उदय प्रताप सिंह थे जिनकी कविताओं में नेहरू युग के विरुद्ध प्रबल विद्रोही स्वर गूंज पड़ते हैं। इसे उदय प्रताप सिंह की अनेक कविताओं में सुना जा सकता है। कुछ उदाहरणों से बात स्पष्ट हो सकती है।
आज़ादी का सूरज नामक कविता में वह आज़ादी का रहस्यभेदन करते हुए कहते हैं कि-
आज़ादी का सूरज चमका शहरों के आकाश में
गाँव पड़े हैं अभी ग़ुलामी के पिछले इतिहास में।
फूल कली ने ज़हर खा लिया तंग हुए मंहगाई से
हंसती रही तिजोरी काली उन पर बेशरमाई से
सूदखोर ले गया दुल्हन का कंगन खोल कलाई से
गायों से ज़्यादा डरता है निर्धन आज कसाई से
मन करता है आग लगा दें ऐसे व्यर्थ विकास में
उत्पादक का शव ढँकने की क्षमता नहीं कपास में। (पृ 25)
वह देश के रहनुमाओं से सीधा सवाल करते हैं-
भुखमरों के देश के ओ आत्मपोषक रहनुमाओ
है तुम्हारी तुम्हारी आँख में पानी अगर तो यह बताओ
झूठ के बल पर तुम्हारा देश कितने दिन चलेगा? (पृ 29)
दो अक्तूबर कविता में उदय प्रताप सिंह तत्कालीन शासन व्यवस्था के कर्णधारों को आड़े हाथों इस तरह लेते हैं-
माखनचोर उम्र को करनी पड़ती है मज़दूरी
बापू कितनी और बची है रामराज्य से दूरी
भूखे बच्चे बिलख रहे हैं पेट पकड़ कर अपना
ढुलक गया उनकी आँखों से रामराज्य का सपना
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तीन गोलियाँ खाकर मारीं वह तो था हत्यारा
ये क्या हैं जो निशिदिन करते छलनी वक्ष तुम्हारा
इसीलिए जनसाधारण का निर्णय कौन सुधारे
बापू के अनुयायी ही हैं बापू के हत्यारे।
आज़ादी के बाद कांग्रेस की सरकार बनी थी और महात्मा गांधी की हत्या हो गयी। हम अपने राष्ट्रपिता की सुरक्षा नहीं कर सके। उदय प्रताप सिंह ने गांधी जी का नाम लेकर राजनीति करने वालों को बख्शा नहीं है। वह कहते हैं कि बापू के असली हत्यारे जनसाधारण के मन में वही लोग हैं जो रोज़ गांधीवादी मूल्यों को दरकिनार कर भारत की जनभावनाओं को ताक पर रखकर देश चला रहे हैं।
कवि उदय प्रताप सिंह को ठीक से पता है कि राजनीति एक शक्ति है जिसके पास आँख नहीं है। वह समाजवाद के दर्शन से जुड़कर उसे दृष्टि प्रदान करते हैं।एक जगह वह कहते हैं-
इसी तरह खिंचती जायेगी द्रौपदियों की सारी
यदि दुर्योधन धनी रहे और निर्धन कृष्ण मुरारी
एक दार्शनिक का है ये कवि का निष्कर्ष नहीं है (पृ 49)
उदय प्रताप सिंह समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता और शताब्दियों की शोषणमूलक व्यवस्था से अंदर तक आहत हैं। वह किसी ऐसे ईश्वर में विश्वास करने को राज़ी नहीं हैं जो ऐसी व्यवस्था का जनक बना हुआ है-
ईश्वर कभी नहीं चाहेगा यह उसकी संतानें
महलों की जूठन से खाएँ बीन बीन कर दाने
और अगर चाहे तो ऐसा ईश्वर मान्य नहीं है
ख़ास खेत के बेटों के घर में धन धान्य नहीं है।
“माली तुम्हीं फ़ैसला कर दो” नामक कविता में वह दिनकर जी द्वारा “कुरुक्षेत्र” में उठाए गए समानता असमानता के प्रश्न को कुछ इस तरह संबोधित करते हैं-
वातावरण आज उपवन का अजब घुटन से भरा हुआ हुआ है
कलियाँ हैं भयभीत फूल से फूल शूल से डरा हुआ है
सोचो तो तुम क्या कारण है दिल दिल के नज़दीक नहीं है
जीवन की सुविधाओं का बँटवारा शायद ठीक नहीं है
उपवन में यदि बिना खिले ही कलियाँ मुरझाने लग जाएँ
माली तुम्हीं फ़ैसला कर लो हम किसको दोषी ठहराएँ
एक कवि और लेखक का सामाजिक कर्तव्य क्या हो सकता है इस ओर भी उदय प्रताप सिंह ने खुलकर इशारा किया है। उन्होंने सर्वदा खेतिहर जनता और मेहनतकश मज़दूर के पक्ष में अपनी कलम चलायी है। उन्हें लगता है कि जब तक मनुष्य मनुष्य में भेदभाव बना रहेगा तब तक सामाजिक शांति क़ायम नहीं हो सकती। इसलिए सामाजिक समरसतावादी कवि का असल काम यही है कि वह अशक्त और निर्बल की वाणी बन जाए।
“मेरी क़लम जागती रहना” भी इसी तरह की बहुत महत्वपूर्ण कविता है। इस कविता पुस्तक का एक शीर्षक यह भी हो सकता था-
नारों के आदर्श महल में श्रम की लाश कफ़न को तरसे
मेरी क़लम जागती रहना तेरा काम अभी बाक़ी है
वादों के ताजिये गगन तक खड़े हुए हैं चौराहों पर
लेकिन उनका बोझ पड़ रहा जनता की निर्बल बाँहों पर
आख़िर इसका फल क्या होगा सोचें प्रतिभावान मनीषी
अगर चिकित्सक दवा बताकर देते रहें ज़हर की शीशी
रामराज्य में हरिश्चंद्र की वाणी सत्य वचन को तरसे
मेरी क़लम जागती रहना तेरा काम अभी बाक़ी है।
इसी कविता के एक पद में कवि ने सीधे चेतावनी के स्वर में कहा है कि यदि युवा पीढ़ी के प्रश्नों का समाधान नहीं किया गया और उनको आगे आने का अवसर नहीं दिया गया तो देश में गृहयुद्ध की स्थिति हो सकती है-
क्या जुलूस है आगे अन्धे पीछे सब गूँगे बहरे हैं
जो सक्षम हैं वे लज्जा के मारे पर्दे में ठहरे हैं
नया खून आगे आने के बदले पीछे क्रुद्ध खड़ा है
इस सारे जुलूस के ऊपर मुँह बाएँ गृहयुद्ध खड़ा है
इसका कारण बताते हुए कवि ने एक दूसरी कविता “यह वह भारत वर्ष नहीं है” में कहा है-
किसने जन जीवन को यों काला कर डाला
कौन हड़प जाता है सबके हिस्से का उजियाला? (पृ 48)
काँटे उपवन के रखवाले अब से नहीं जमाने से हैं
लेकिन उने मुँह पर ताले अब से नहीं जमाने से हैं
ये मुँह बंद उपेक्षित काँटे अपनी कथा कहें तो किससे
माली उलझे हैं फूलों में अपनी व्यथा कहें तो किससे
इसी प्रश्न को लेकर काँटे यदि फूलों को ही चुभ जाएँ
माली तुम्हीं फ़ैसला कर दो हम किसको दोषी ठहराएँ?
आख़िर प्रतीकों की भाषा में कवि काँटों और फूलों के बिम्ब उभार कर क्या कहना चाहता है? यही न कि देश में जातिगत ढाँचे में जो निम्न वर्ग है वही उच्च वर्ग की सेवा करता आया है परंतु यदि उसकी व्यथा पर ध्यान न दिया गया तो वे फूलों को चुभने को तैयार हो जाएँगे। तब दोष किसका होगा? यही वो सवाल है जिसे उदय प्रताप सिंह बार बार कविता में उठाते हैं। “मेहनतकश मज़दूर” नामक कविता में वह सावधान करते हुए कहते हैं-
फूल में महक तुम्हारी है, बहारें तुमसे जीवित हैं
चमन में माली क्यों अधिकार, तुम्हारे फिर भी सीमित हैं?
खेत में मेहनत तुमने की, तुम्हीं को तंगी का डर हो
तुम्हारे घर में दीया जले, रोशनी और कहीं पर हो
दिये के नीचे ही तम है, वहीं मैं दीप जलाता हूँ। (पृ 44)
यह कहकर कवि ने अपनी कविता के मानो स्पष्ट कर दिया है कि उसके सृजन का प्रयोजन क्या है। इस मानदंड पर कि ‘दीप जल कहीं और रहा और रोशनी कहीं और हो रही’ कवि प्रजातंत्र के इस शासन की तहें उधेड़ कर रख देता है।
निरर्थक प्रजातंत्र का शोर निरर्थक है ये जोग विहाग
मूर्ति तक जाता कोई नहीं मंदिरों से सबको अनुराग
तुम्हारी ख़ुशहाली के बिना देश की ख़ुशहाली भी पाप
खेत में फसलें खड़ी उदास बाद में कलियों को संताप
उठो ऐ नीलकंठ तीसरे नेत्र की याद दिलाता हूँ।
उठो मैं अपने गीतों में तुम्हें आवाज लगाता हूँ। (पृ 45)
वह भगवान शंकर के तीसरे नेत्र को खोलने के लिए अग्निधर्मी लोकचेतना के जागरण का आवाहन करता है। नीलकंठ को आवाज़ लगाने से कवि का यही अभिप्राय है। इसी कविता में कवि ने मुक्तिबोध के स्वर में स्वर मिलाकर कहा है कि उसे हुनर मज़दूरों से मिला है-
तुम्हीं ने दिया हुनर मुझको तुम्हीं को राह दिखाता हूँ।
वतन के मेहनतकश मज़दूर खेत की माटी के सिंदूर
उठो मैं अपने गीतों में तुम्हें आवाज़ लगाता हूँ।
मुक्तिबोध ने कभी कहा था-
मैं उनका ही होता
जिनसे मैंने रूप भाव पाये हैं
वो मेरे हिये बंधे हैं जो
मर्यादाएं लाये हैं।
कवि उदय प्रताप सिंह की कविताओं का यह संकलन एक ऐसे मौक़े पर आया है जब हमारे देश में निर्धन और मज़लूम की शक्ति कमजोर पड़ती जा रही थी और किसानों की आवाज़ को अनसुना किया जा रहा था। कवि तो सामाजिक अन्तश्चेतना की वाणी होता है। उसकी सरस्वती का प्रभाव व्यापक होता है और वह हर अंधेरे के विरुद्ध अपना रास्ता निकाल लेती है। अंधेरे के पहाड़ इस नदी की धारा को रोक ही नहीं पाते बशर्ते कवि को अंधेरा फैलाने वाली शक्तियों का पता हो। कवि की राजनीतिक आस्था समाजवादी दर्शन में रही है और आचार्य नरेंद्र देव, डा राममनोहर लोहिया तथा जयप्रकाश नारायण से उसकी रचनात्मकता को दीप्ति मिली है। इस संग्रह की पहली ही कविता “आपातकाल के बाद” में कवि के तेवर को देखना चाहिए। पूरी कविता ही उस निज़ाम की चालाकियों का पर्दाफ़ाश करती हुई चलती है। कवि बख्शता किसी को भी नहीं है-
तब ज़ुबान कट गयी थी बोलना हराम था
दिल में आग लग रही थी बेख़बर निज़ाम था।
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कुछ समर्थ कैसे पूरा देश लूटते रहे
और आम आदमी के भाग्य फूटते रहे
जाने कैसे न्याय की पकड़ से छूटते रहे
और बुद्धिजीवी अपना माथा कूटते रहे
कहने का आशय यह कि कवि को हर हाल में जनता के पक्ष में रहना है और उसकी क़लम को जागकर ज़िंदगी के सच को शब्द देना है। हर युग के सामर्थ्यवान कवि ने यही काम किया है । उदय प्रताप सिंह जी ने भी अपनी कविताओं के माध्यम से वही काम किया है। इसके लिए कवि ने रचनात्मक रूप से आवाहन किया है कि केवल कंगूरे बदलने से काम नहीं चलेगा । हमें नींव के पत्थरों को भी बदलना होगा। कार्ल मार्क्स ने कहा था कि दार्शनिकों ने अब तक जगत की व्याख्या करने का काम किया है लेकिन जगत को बदलने का सवाल ही मूल सवाल है। कुछ उसी अंदाज में कवि कहते हैं-
दुनिया में जीवन दर्शन के सब स्वर हमें बदलने होंगे
कंगूरों के साथ नींव के पत्थर हमें बदलने होंगे। (पृ 53)
कविता हमेशा यही काम करती आयी है। कवि ने अपनी एक गजल में कहा है-
कविता केवल हौसला देती है हारे आदमी को
फेंकता है कौन अपने नाम का पत्थर कहाँ तक।
इस संग्रह में एक बड़ा हिस्सा ग़ज़लों का भी है।इनमें साधारण जीवन की वही दिक़्क़तें, तकलीफ़ें और मुसीबतें भरी हुई हैं। जैसे, ये पंक्तियाँ देखें-
कह रहे कुछ खेत और खलिहान गाँवों की तरफ़
पर नहीं सरकार का है ध्यान गाँवों की तरफ़
क्या पढ़ाई क्या लिखाई क्या दवाई के लिए
काग़ज़ों पर जा रहे अनुदान गाँवों की तरफ़।
उदय जी की ग़ज़लें आम ज़िंदगी के रोज़नामचा की ग़ज़लें हैं जिन्हें पढ़कर दुष्यंत और अदम गोंडवी की ग़ज़लें ताज़ा हो जाती हैं। कहन की वही बारीकियाँ जिनमें सामाजिक यथार्थ की तल्खियाँ गुँथी हुई हैं इन ग़ज़लों की सतह पर तैर जाती हैं। मजबूरी में होने वाले विवाहों पर कवि दृष्टि कुछ यूँ पड़ी है-
प्रतिभा नामक एक लड़की की शादी वैभव से याने
दुल्हन की डोली में पंख कटा कर चिड़िया बैठ गयी। (पृ 82)
मोबाइल के आने से चिट्ठी पत्री का क्या हाल हुआ यह किसी से छिपा नहीं लेकिन शायर का अंदाज़े बयां देखिए-
मोबाइलों के दौर के आशिक को क्या पता
रखते थे कैसे ख़त में कलेजा निकाल के।
संग्रह की सभी ग़ज़लें मजबूर करती हैं कि हम जीवन की सचाइयों से आँख मिलाएँ और उसकी परछाइयों को समझने की कोशिश करें। इन में क्रांतिकारी युवाधर्मिता कम लेकिन पके विचारों का ठहराव अधिक दिखता है। संभवत: यह प्रौढ़ वय का असर हो। लगता है कविताओं के तेवर को छोड़कर कवि ग़ज़लों को इस अंदाज से आज़मा रहा है कि शायद कविता की जगह ग़ज़लों में जीवन की टूटी फूटी छवियाँ गहराई से अंकित हो जाती हैं। कवि ने कुछ मुक्तक भी लिखे हैं जो सुंदर बन पड़े हैं। कुछ कविताएँ गजल की शक्ल में हैं लेकिन ठीक ग़ज़लों की तरह नहीं हैं। उनमें शुरू से आख़िर तक विषय वस्तु या कथ्य एक ही है। “हिंदुस्तान सबका है” नामक कविता ग़ज़लों की बहर में चलती है जिसके रदीफ क़ाफ़िये ठीक उसी लय में विन्यस्त हैं। यह कविता अपने समावेशी विचार के लिए वर्तमान समय में बहुत प्रासंगिक लगती है। भारतवर्ष की सामासिकता में सांस्कृतिक मेल मिलाप संघर्ष और महामिलन हज़ारों सालों से घटित होता रहा है। रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “संस्कृति के चार अध्याय” में भारत की सांस्कृतिक बहुलता को संप्रदाय विवेचित किया है। स्वयं रवीन्द्रनाथ ने कहा था-
हेथाय आर्य हेथा अनार्य हेथाय द्राविड़ चीन
शक हूण दल पठान मुग़ल एक देहो होलो लीन
अर्थात् यहाँ पर आर्य अनार्य द्रविड़ चीन शक हूण मुग़ल पठान भारतीयता की एक देह में मिलकर एक हो गए। रवीन्द्रनाथ ने भारत को महामानवता का महासमुद्र कहा है। उदय प्रताप ने उन्हीं भावों को वर्तमान समय में कहा है कि -
न तेरा है न मेरा है ये हिंदुस्तान सबका है
नहीं समझी गयी यह बात तो नुक़सान सबका है ।
वह राहत इंदौरी की तरह “हिंदुस्तान किसी के बाप का थोड़े है” की असावधान मुद्रा में नहीं बल्कि कविजनोचित आचार्य क्षेमेन्द्र की प्रिय औचित्यपूर्ण मुद्रा में कहते हैं-
जो इसमें मिल गयी नदियाँ वो दिखलायी नहीं देती
महासागर बनाने में मगर एहसान सबका है।
हज़ारों रंग ख़ुशबू नस्ल के फल फूल पौधे हैं
मगर गुलशन की इज़्ज़त आबरू ईमान सबका है।
अंतिम बात। कविता पुस्तक का संकलन एवं संपादन वाराणसी निवासी अध्यात्ममूर्ति स्वामी ओमा अक्क जी ने किया है। आश्चर्य की बात यह है कि उदय प्रताप सिंह ने सभी कविताएँ अपनी स्मृति में ही सुरक्षित रखी हैं उन्हें कभी काग़ज़ पर नोट नहीं किया। स्वामी ओमा अक्क और भारतीय ज्ञानपीठ के अरुण माहेश्वरी ने कवि की आवाज़ से सुनकर कविताओं का अक्षरांकन और संपादन किया जो बहुत चुनौतीपूर्ण काम है। पुस्तक की भूमिका ओमा अक्क ने ही लिखी है। उदय प्रताप सिंह इस समय अपनी आयु के नब्बेवें वर्ष में चल रहे हैं। उन्हें कविता लिखते हुए 75 साल बीत गए हैं लेकिन मन से वह युवा और ओजस्वी कविता के तरफ़दार हैं। न दैन्यं न पलायनम् उनका जीवनमंत्र है। आजादी के अमृत महोत्सव पर उनके समाजवादी सपनें साकार हों -इसी दिशा में सोचने को ये कविताएं प्रेरित भी करती हैं।
-प्रो. आनंद कुमार सिंह.
हिंदुस्तान सबका है
लेखक : उदय प्रताप सिंह
प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ