'हिन्दुस्तान के 100 कवि’ पुस्तक में कुछ ऐसे कवि शामिल नहीं हैं, जो मुझे प्रिय रहे हैं, जैसे-टैगोर, दिनकर, पाश, धूमिल, अदम आदि। इन पर क्यों नहीं लिख पाया, लिखने के 35-40 साल लंबे अपने लेखन काल में?
इनमें दिनकर, पाश, धूमिल, अदम ऐसे नाम लगते हैं मुझे, जिन्हें अपने और पाठक के मध्य किसी तीसरे की जरूरत नहीं है। जो धूमिल के शब्दों में, बातों को इस कदर ‘खोलकर’ कहते हैं कि कहने को शायद कुछ बचता नहीं है। निराला की पीढ़ी के कवियों पर भी नहीं लिख सका मैं। मुझे लगता है कि निराला, प्रसाद, महादेवी, दिनकर, बच्चन आदि कुछ इस तरह मुझमें शामिल हो गए हैं कि उन्हें अलग कर देख नहीं पाया मैं।
निराला की पीढ़ी के कवियों पर भी नहीं लिख सका मैं। मुझे लगता है कि निराला, प्रसाद, महादेवी, दिनकर, बच्चन आदि कुछ इस तरह मुझमें शामिल हो गए हैं कि उन्हें अलग कर देख नहीं पाया मैं।
मेरे भीतर दो व्यक्तित्व हैं-एक कवि और दूसरा कविताओं पर अपने विचार दर्ज करानेवाला। दोनों की आपस में हमेशा बनती नहीं है। ऐसा भी होता है कभी-कभार कि मेरे कवि को जो कवि पसंद हैं, जिनकी कविताओं को लेकर मेरा अंतर स्थिर होता है, उन्हीं प्रिय कवियों पर लिखते वक्त मेरे भीतर का यह अन्य कंधे उचकाता हुआ खुद को मेरे कवि से अलग कर लेता है। रघुवीर सहाय वैसे ही प्रिय कवियों में हैं, जिन पर मैंने कवि के विपरीत राय दी है।
यह कोई योजनाबद्ध ढंग से लिखी गई पुस्तक नहीं है। जीवन ही कभी योजनाबद्ध नहीं रहा। किशोर उम्र में पढ़ने-लिखने का आलम यह रहा कि पढ़-लिख रहे होते कि उसी बीच माँ-पिताजी का निवेदन या आदेश आ टपकता कि जाओ, आटा पिसा लो या याद रखना, सब्जी भी लाना है। एक दिन बेटे ने मूड की बात की तो कहना पड़ा, मूड आदि निठल्लेपन के उज्ज्वल आयाम हैं।
फिर जब बाल-बच्चे हुए, तब पढ़ रहा होता और बच्चे पीठ पर सरकस कर रहे होते। अब वे 25-30 साल के हो गए हैं, पर पीठ पर चहलकदमी कर लें तो बड़ी राहत मिलती है।
25 सालों में 20 नौकरियाँ कर चुकनेवाला आदमी कुछ भी योजनाबद्ध कैसे कर सकता है! फिर जीवन-जगत् के तमाम टंटे, जैसे मेरी ही राह देखते हों। लोहिया पर पुस्तक एक अपवाद रही, जिसे प्रकाशक के आग्रह पर मैंने 4 महीने में पूरा किया था और पुस्तक लोगों को पसंद भी आई थी।
यह नोट्स मुख्यतया मुक्तिबोध के बाद के कवियों को पढ़ते हुए लिये गए हैं। पिछले 34-35 सालों से मैं कविता का पाठक रहा हूँ। किसी को पढ़ते हुए उस संदर्भ में पैदा भाव-विचारों को जहाँ-तहाँ नोट करने की आदत बनती गई। इनमें अधिकांश लिखने के अरसे बाद ही जहाँ-तहाँ छपे हैं। इधर के 10 वर्षों में लिखना तो चालू रहा, पर छपने के लिहाज से उसे कहीं भेजने की इच्छा हवा होती गई।
आरंभ में होता कि कुछ लिखिए तो सोचिए कि किसे भेजा जाए! फिर भेजने के बाद कयामत का इंतजार कीजिए कि जवाब क्या आएगा...! साठा से पाठा हुए बुजुर्गों के उदाहरण अलग मौजूद होते कि कवियों के कवि का पहला संकलन आया तो वे 50 की उम्र छू रहे थे और महाकवि की तो कोई किताब ही नहीं आई जीते-जी।
पर इस सोशल मीडिया ने पूरी रवायत ही बदल डाली। अब हाल यह है कि पूत पालने में झूलने के बजाय सीधे अवतरित होने लगे हैं सोशल धारा धाम पर और आरंभ में इस मीडिया से दूरी रखनेवाले अग्रजों ने भी आखिरकार यहाँ अपने झंडे गाड़ने शुरू किए तो अवतरण कुछ संतुलित हुआ। मैंने भी कवियों पर अपने लिखे की नोक-पलक दुरुस्त कर उसे यहाँ डालना आरंभ किया तो अग्रजों, अनुजों ने उसे जारी रखने को उत्साहित किया और धीरे-धीरे इस पुस्तक का यह रूप सामने आया।
पुस्तक में कुछ कवियों (शमशेर, तसलीमा नसरीन, केदारनाथ सिंह, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे, आलोकधन्वा, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, लीलाधर मंडलोई, मिथिलेश श्रीवास्तव, वर्तिका नंदा) से प्रेरित, उन्हें संबोधित या उनसे प्रभावित कविताएँ भी हैं। मुझे लगा कि मेरे नोट्स की तरह ये कविताएँ भी कवि को समझने में कुछ सहायक होंगी इसलिए उन्हें शामिल किया है।
-कुमार मुकुल.
हिंदुस्तान के 100 कवि : कुछ नोट्स
लेखक : कुमार मुकुल
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 344
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