फ़ुर्क़त के रात दिन : ग़ज़ल के ग़ौरतलब इश़ारे और मुक्तकों की महफ़िल

फ़ुर्क़त के रात दिन

सोच रहा हूँ कि कारपोरेट दुनिया की आपाधापी से जुड़े 'अमीक़'अपने कार्य और लेखनी से संजीदगी के साथ कैसे न्याय करते हैं। क्योंकि ग़ज़ल हो, गीत हो या कि मुक्तक हो, इन सभी में महज़ लफ़्ज़ों की जमावट से काम नहीं चलता। ग़ज़ल का फ़न सिर्फ़ रदीफ़ की पकड़ रख कर क़ाफ़िये ले आना नहीं है। ग़ज़ल के गहरे इश़ारों को समझना होता है। अमीक़ को पढ़ने के बाद मुझे ये कहने में कतई संकोच नहीं कि अपनी ग़ज़लों में उन्होंने इन पाकीज़ा इश़ारों को ख़ूब पहचाना है और उन्हें कागज़ पर बख़ूबी उतारा है। ''जज़्बात-ए-दिल की धीमी आँच पर / ख़यालों का पकना है शायरी'' ये तर्ज़, ये एहसास अपनी ग़ज़लों में वे तभी पैदा कर सके हैं जब उन्हें किसी बात का पुर-सुकून इत्मीनान हुआ होगा।

प्रिय अमीक़ को अपनी ग़ज़लों और अशआ'र पर पूरा एतमाद है कि वे उठेंगे और पूरी ईमानदारी से उठेंगे, ब-क़ौल अमीक़ -''मैं बस यक़ीन से डरता हूँ/ वरना तेरे वादों वे मरता हूँ।'' ये कहकर वे अपने मिज़ाज-ओ-लहजे से पाठकों को अपना तार्रुफ़ कराते हैं, क्योंकि ग़ज़ल की दुनिया के विज़िटिंग कार्ड पर चंद हर्फ़ ही पर्याप्त होते हैं।

अमीक़ कहीं ग़मगीन भी होते हैं तो ठहर जाते हैं और कह देते हैं कि -'टूटा दिल फिर ज़िन्दगी यूँ संभल गयी / शख़्सियत न सही आदतें बदल गयीं।' उर्दू की मिठास को वो अपनी शायरी में जिस सलीक़े से घोलते हैं वो क़ाबिल-ए-ता'रीफ़ है। मेरा विश्वास है कि पाठक इस भाव को जरुर महसूस करेंगे।
फ़ुर्क़त के रात दिन
तुम जज़्बाती कहो या खुद्दार मुझे
अब जैसा हूँ वैसा यही हूँ मैं
हो सही-गलत फिर तुम्हें मुबारक
जो दिल टूट गया तो नहीं हूँ मैं!!

जब अमीक़ कहते हैं कि ''उनकी फुर्क़तों ने मुकम्मल बना दिया / एक अर्से से मैं ही मेरे साथ रहता हूँ।'' तो महसूस होता है कि अमीक़ की शायरी सुकून और बेचैनी की सुरंगों से बाहर निकल कर सच-बयानी के दरवाज़े पर दस्तक देती है, और पाठकों को उत्तर भी देती है और कुछ-कुछ सवाल भी करती है। अमीक़ की ग़ज़लें वे सवाल भी लेकर वक्त की दहलीज़ पर खड़ी हैं जिनके उत्तर दौर की ख़लाओं में कहीं खो गए हैं।

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ग़ज़ल के ग़ौरतलब इश़ारे और मुक्तकों की महफ़िल

मत पूछ तू कि ये ग़म तेरा
एक ज़ज्बा-ए-क़यामत है
वो जो साथ तेरे मोहब्बत थी
वही बिन तेरे इबादत है!!

मज़ेदार बात तो यह है कि अमीक़ बड़ी ही साफ़-गोई से यह स्वीकार करते हैं कि उनकी अर्धांगिनी प्रियंका को कविता या शायरी में कोई ख़ास ​रुचि नहीं है, इसके बावजूद भी वे इतनी अच्छी शायरी कर लेते हैं तो उनकी हिम्मत को दाद देनी ही होगी।

मैं औरों में तुम को ढूँढता हूँ 
ये माजरा अब सर-ए-आम है
और खुश भी हूँ इस बात पर
कि मेरी कोशिशें नाकाम हैं!!

इस मुक्तक को रुहानी तलाश में रखा जा सकता है। रुहानी तलाश हमेशा कामय़ाब नहीं होती। यही तो कहना चाह रहे हैं अमीक़।

फ़ुर्क़त के रात दिन : ग़ज़ल के ग़ौरतलब इश़ारे
मैं औरों में तुम को ढूँढता हूँ 
ये माजरा अब सर-ए-आम है
और खुश भी हूँ इस बात पर
कि मेरी कोशिशें नाकाम हैं!!

फिर यह देखिए अपने को जैसा हूँ, वैसा ही दिखाने का क्या सलीक़ा है। एक क़ता देखें-
तुम जज़्बाती कहो या खुद्दार मुझे
अब जैसा हूँ बस यही हूँ मैं
हो सही-ग़लत फिर तुम्हें मुबारक
जो दिल टूट गया तो नहीं हूँ मैं!!

इस किताब की महत्त्वपूर्ण बात यह लगी कि इसके हर सफ़्हे पर कोई न कोई शेर ऐसा है जो ज़ुबान पर आकर बैठने की क़ुव्वत रखता है। वह गुनगुनाने को मजबूर करता है। और फिर पूरी किताब को पढ़ने के लिए कहता है। पाठक इसके रस में इतना खो जाता है कि वह बीच में इसे छोड़ना नहीं चाहता। अमीक़ ने भाषा के अर्थ समझने की ज़िम्मेदारी पाठकों पर नहीं छोड़ दी है। उन्होंने जहां भी यह महसूस किया है कि उर्दू के कुछ कठिन अल्फ़ाज़ उन्होंने पसंद किए हैं तो उनके अर्थ भी स्पष्ट किए हैं, इसलिए पाठक का प्रवाह भी इनमें बना रहा है।

और आख़िर में यही कहूंगा कि बहुत दिन बाद एक ऐसी किताब पढ़ने को मिली जिसमें मसाला से हटकर मसलों पर, फ़लसफ़ों पर बात की गई है। आगे आने वाले दिन शायर के लिए बेहद चमकीले हैं। 

-पवन जैन.

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पुस्तक से...

ज़िन्दगी
इस दौर में
किनारे से बंधी
किसी नाव के मानिंद है
जो दरिया में
लहरों के साथ
चलती तो है
मगर कहीं जाती नहीं है!!
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ये उस को लिख कर बिकता रहा
ज़हानत के बाज़ार में
वो इस को पढ़ कर ढूँढती रही
वही इश्क़ अपने यार में!!

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उलझ कर रोज़ी में शायद
कल तेरा ख़याल हट जाए
बस इस सोच में बस कर
और एक रात कट जाए!!
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अब अगर मिल भी गए हम
तो वो पहले सी न बात होगी
हमी दीवार हैं जब राह में ख़ुद
फिर मिलेंगे जब मुलाक़ात होगी!!
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कितनी उजलत में ये तय हुआ
क्या अच्छा क्या ख़राब है
बहक रहे हैं मय-ख़ाने में लोग
और बदनाम हो रही शराब है!!
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एक ही रफ़्तार से देखा है पढ़ कर मैंने
मगर ये बात मुझको अक्सर सताती है
कहानी जब भी कोई दिलचस्प मिलती है
कमबख़्त हमेशा जल्दी ख़त्म हो जाती है!!
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कुछ इसलिए वो इक उम्र मुझे याद रह गया
उस ने बोला कुछ नहीं और सब कह गया!!
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ख़ुद अपनी रुह की बे-चैनी से बिखर गया होता
जो मैं शायरी न करता कब का मर गया होता!!
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फ़ुर्क़त के रात दिन
लेखक : अमित श्रीवास्तव 'अमीक़'
प्रकाशक : मंजुल पब्लिशिंग हाउस
पृष्ठ : 210
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