रानी दुर्गावती एक ऐसी शसिका और योद्धा का नाम है जिनको हम दृढ़ निश्चयी, कुशल योद्धा और शौर्य के प्रतीक के रुप में जानते ही हैं, उसे जनकल्याण के कार्यों, अपनी प्रजा से बेहतर संबंधों और अच्छी रणनीतियों के लिए भी जाना जाता है।
गढ़ा-कटांग की रानी दुर्गावती थोड़ा असहज परिस्थितियों में महोबा के परिवार से विवाह कर गोंडवाना के राजपरिवार में शामिल हुई थीं, पर समय के साथ-साथ उन्होंने न केवल अपने परिवार का हृदय जीता, वह उस राज्य की प्रजा के दिलों में भी अपनी अच्छी छवि बनाने में सफल रहीं।
यद्यपि दुर्गावती का अपने श्वसुर महान गोंड राजा संग्राम शाह के साथ अल्प अवधि का साथ रहा, फिर विवाह के कुछ वर्षों बाद पति दलपत शाह की मृत्यु हो गई, जिससे उन्हें असहनीय आघात पहुंचा, पर उन्होंने स्व्यं को संभाल कर फिर से प्रजा के जनकल्याण को अपना ध्येय बना लिया। उन्होंने अपने अल्पव्यस्क पुत्र वीर नारायण की संरक्षिका बन कर न केवल राजपाट संभाला बल्कि प्रजा को बहुत सहूलियतें भी दीं।
उस समय एक महिला शासिका के रुप में रानी दुर्गावती का शासन करना इतना सरल न था। सीमाओं पर खतरे थे। मालवा के शासक बाज बहादुर की निगाह थी तो मुगल बादशाह अकबर को भी उसकी बढ़ती लोकप्रियता और शक्ति से चिंता थी। ऐसी परिस्थितियों में रानी ने बहुत सूझबूझ से अपने राज्य का संचालन किया। जब उसे लगा कि बाज बहादुर को मुंहतोड़ जवाब देना जरुरी है, तो उसने मालवा के इस शासक को ऐसी पराजय दी कि वह फिर कभी अपने पूर्व रुप में उभर ही नहीं पाया।
मुगल बादशाह अकबर की कथनी और करनी में कितना अंतर था, यह रानी दुर्गावती के विरुद्ध चली उसकी चालों को जानकर भी समझा जा सकता था। यद्यपि मुगल साम्राज्य के संसाधनों के समक्ष रानी दुर्गावती की स्थिति निर्बल थी, परंतु नैतिक बल उनके साथ था। समाज के सभी वर्गों के लोग और यहां तक कि कतिपय मुस्लिम और अफगानी योद्धा भी उनके साथ मजबूती से खड़े थे। ऐसा इसलिए भी था कि उनके राज्य में सभी जातियों, संप्रादायों और धर्मों के प्रति बराबर सम्मान, स्नेह तथा सहिष्णुता की भावना थी। यह दुर्गावती का सुदृढ़ आत्मबल ही था जिसके कारण उसने अकबर जैसे शक्तिशाली बादशाह के समक्ष झुकने से इंकार कर दिया। एक बार रानी दुर्गावती ने अपनी उत्कृष्ट सैन्य राणनीति के माध्यम से बड़ी मुगल सेना को परास्त करने में सफलता भी प्राप्त की।
निर्भीकता, दृढ़ निश्चय और सबका साथ, ये रानी दुर्गावती के चरित्र के कुछ खास बिंदु थे, जिन्हें उन्होंने अंतिम समय तक संजो कर रखा। उन्होंने मुगल बादशाह को दिखा दिया था कि वह किसी तरह भी अपने सम्मान और अस्मिता से समझौता नहीं करेगी। उस चुनौतीपूर्ण समय में युद्ध के मैदान में हाथी अथवा घोड़े पर सवार होकर, ढाल और तलवार से दुश्मन की सेना को ललकारती, उन पर विजय प्राप्त करती इस वीरांगना की छवि की कल्पना मात्र से ही रोमांच की भावना उत्पन्न हो जाती है।
अंतत: अपेक्षाकृत कम सैन्य बल और हथियारों की कमी, सेना की थकान तथा अन्य कई कारणों से रानी दुर्गावती को पराजय मिली, लेकिन जीते जी वह वीरांगना मुगलों के हाथ न लग सकी। अपनी पराजय आसन्न देख रानी ने मात्र चालीस वर्ष की कम आयु में युद्धक्षेत्र में आत्मघात कर अपनी जान दे दी। आज भी रानी दुर्गावती लोक के मानस में बसी है। उनके जीवन और बलिदान का स्मरण करते हुए बहुत गीत ग्रामीण अंचलों में अभी भी प्रचलित हैं।
आज आवश्यकता है कि हम रानी दुर्गावती के व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न पहलुओं का गहनता से अध्ययन करें, उसके आदर्शों को आत्मसात करें और उनकी तरह दृढ़ निश्चयी तथा सहिष्णु बन कर जनकल्याणकारी कार्यों के प्रति सकारात्मकता और सहयोग की भावना बनाए रखें, यही राष्ट्र गौरव की मांग है।
इस पुस्तक को लिखने में लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने जो श्रम किया है, और जिस सुगम औपन्यासिक भाषा में इसे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है, वह सराहनीय है। चूंकि यह लेखन मूल रुप से एक इतिहासविज्ञ की शोध पर आधारित है, इसलिए यह और भी प्रशंसनीय और प्रमाणिक हो जाता है।
-राजा बुन्देला.
दुर्गावती : गढ़ा की पराक्रमी रानी
लेखक : राजगोपाल सिंह वर्मा
प्रकाशक : शतरंग प्रकाशन
पृष्ठ : 230