कुछ किताबें आपको पढ़ने के बाद बेचैन और लिखने के लिए विवश कर देती हैं। ऐसी ही किताब है दिलीप मंडल और गीता यादव की 'अनसोशल नेटवर्क'। आज आप हम सब सोशल मीडिया से जुड़े हैं और इस बात पर गर्व भी करते हैं कि हम सोशल मीडिया पर कितने फॉलोवर रखे हैं और कितना ज्यादा समय इसे देते हैं। और ये सब बताकर हम ये जताने की कोशिश करते हैं कि हम कितने आधुनिक और कितने सोशल हैं। मगर इस किताब को पढ़ने के बाद आपके जाले साफ हो जायेंगे और आप समझने लगेंगे कि सोशल के नाम पर ये नेटवर्क कितने अनसोशल बनाते जा रहे हैं। हालांकि आपको अनसोशल होने की परवाह नहीं कर सोशल मीडिया के इन्फ्लुएंसर भी बनना है तो इस किताब में उसके भी नुस्खे हैं।
फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और वॉट्सएप के करोड़ों यूजर देश दुनिया में हैं मगर ये सारे यूजर वहां सोशल बनने, अपना दायरा बढ़ाने और अपनी बात कहने जाते हैं। मगर इन सारे सोशल मीडिया प्लेटफार्म का एलगोरिदम ऐसा है कि वो अपने सारे यूजर को पढ़ता और गुनता है उसकी रुचि पसंद नापसंद परखता है और फिर उसे उसकी पसंद के लोगों के बीच ही खड़ा कर देता है। बिग डाटा एनालिसिस की सुविधा के कारण अब ये जानना बहुत आसान हो गया है कि यूजर चाहता क्या है। इसके बाद एक ऐसा इको चैंबर उसके आसपास विकसित हो जाता है कि उसे अपनी रूचि के अनुसार ही विचार फोटो और उसकी जैसी सोच रखने वाले ही लोग मिलें। जिससे कि वो ज्यादा से ज्यादा समय सोशल मीडिया में खर्च करे। जिससे सोशल मीडिया की कंपनी का डाटा तैयार होता है जिसे बेचकर वो कंपनी पैसा कमाती है।
आमतौर पर आदर्श स्थिति ये है कि हमें अपने विचार के साथ दूसरे के विचार की जानकारी भी आसानी से मिले जिससे हम अपने विचारों को परखें उनको दूसरों के मुकाबले तौलें। मगर ऐसा होता नही है इससे यूजर अपने विचारों को लेकर बेहद सख्त हो जाता है। उसे ये जानकर अच्छा लगता है कि उस जैसा सोचने वाले बहुत सारे हैं वो ऐसा सोचने वाला अकेला ही नहीं है। फिर ये विचारों की दृढ़ता उसके व्यवहार में उग्रता लाती है। जो कट्टरपंथी बनाने में देर नहीं करतीं। इसलिये इस किताब में बताया है कि सोशल मीडिया पर आपका होना ही आपको उग्र और आक्रामक बनाने को काफी है। विचारों की उग्रता की समस्या को दुनिया भर के देशों में उग्र राजनीतिक दलों के उभार ने भी बढ़ा दिया है। इसलिये आप देखेंगे कि इन दिनों सोशल मीडिया पर भड़काऊ तीखी पोस्टों की भरमार हो गयी है। अब तो लोग एक दूसरे को मारने काटने की धमकियां भी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर देने लगे हैं बिना इस बात की परवाह किये कि यहां लिखा गया एक-एक शब्द साक्ष्य होता है। मगर उग्रता सब भुला देती है। मजे की बात ये है कि गंदी, अश्लील और धमकाने वाली पोस्टों को भी वाहवाही मिलती है। जिससे लिखने वाले का हौसला ही बढ़ता है।
संतुलित नजरिये रखने वाले सोशल मीडिया पर जल्दी ही हाशिये पर चले जाते है। उदारवादी या मध्यमार्गी सोच रखने वालों की गुंजाइश इन दिनों सोशल मीडिया में कम है। ये भी इस किताब में बताया है। मगर सोशल मीडिया की सबसे बड़ी दिक्कत विश्वसनीयता की कमी हैं। सोशल मीडिया के सारे प्लेटफार्म का उपयोग दल और संगठनों से जुड़े लोग अपनी विचारधारा फैलाने और विरोधियों को बदनाम करने में लगातार करते हैं। जिस पर सोशल मीडिया का कंट्रोल नहीं है। वैसे भारत वो देश है जहां सबसे ज्यादा सोशल मीडिया की पोस्ट सरकार की तरफ से हटाई जाती हैं। ये सोशल मीडिया सामाजिक और आपसी रिश्तों में भी उथल-पुथल मचा रहा है। छोटी-छोटी व्यक्तिगत पोस्ट से रिश्ते टूटने की कगार पर आ जाते हैं। वैचारिक पोस्ट घरों में लड़ाई करा रही हैं और आपसी दूरियां बढ़ा रही हैं।
इस सबके बावजूद सोशल मीडिया नये जमाने में बड़ी ताकत है। अपना विचार कम खर्च में हजारों लाखों लोगों के बीच एक साथ फैलाने के लिये। मगर जब हम इसकी कमजोरियां, क्षमताएं और सोशल मीडिया प्लेटफार्म चलाने वालों की बदमाशियां समझेंगे तब इस नये जमाने के मीडियम का संभलकर सतर्कता से उपयोग कर पायेंगे।
अंग्रेजी में तो सोशल मीडिया के खतरों के बारे में लगातार लिखा जा रहा है मगर हिंदी में एक अच्छी बेहतर किताब देने के लिये दिलीप मंडल और गीता यादव का धन्यवाद।
~ब्रजेश राजपूत.
(लेखक ABP न्यूज़ से जुड़े हैं. उन्होंने कई बेस्टसेलर पुस्तकें लिखी हैं)
अनसोशल नेटवर्क
संपादक : दिलीप मंडल • गीता यादव
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 168
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