रेलवे स्टेशन की कुर्सी : समाज के रंगों की छटा

रेलवे स्टेशन की कुर्सी

कहानियाँ सोच कर पनपती हैं। कहानियों का अपना दायरा भी होता है। कई बार कहानियाँ दायरों को तोड़कर आगे बढ़ती हैं, कई बार ऐसा लगता है जैसे कहानियाँ सिमट कर रह गई हैं। आमतौर पर कहानियाँ अपने आसपास की कतरनों को सहेज कर उकेरी गयी होती हैं। उनमें समाज के रंगों की छटा होती है।

'रेलवे स्टेशन की कुर्सी' गुलशेर अहमद का पहला कहानी-संग्रह है। इसे राजमंगल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।

इस संग्रह में कुल आठ कहानियाँ हैं। पहली कहानी 'मस्जिद या मन्दिर' है। इसमें गुलशेर अहमद ने एक जगह लिखा है,'कोई इंसान अपनी पीठ पर बोझ लिए ज़िंदगी खुशी-खुशी गुज़ार सकता है, लेकिन वो कभी भी अपने दिल में बोझ लिए खुश नहीं रह सकता।' दानिश नाम का पात्र पश्चाताप करता है तथा रिश्वत का सारा पैसा एक मंदिर और एक मस्जिद में दान कर देता है। यहां श्रद्धा का भाव दिखाने की भी कोशिश की गई है।

गुलशेर अहमद अपनी कहानियों में प्रेम, धर्म, अलगाव, लगाव, आस्था आदि की बात करते हैं। 'रेलवे स्टेशन की कुर्सी' शीर्षक से लिखी कहानी में उन्होंने उस अहसास को जाहिर कर दिया, जब वे अलग-अलग तरह के लोगों से मिले। वह समय कितना कुछ सिखा गया और कितनी यादें उनमें बसा गया। वे लिखते हैं,'जब मैंने कुर्सियों के बारे में विचारना शुरु किया तब निर्जीव कुर्सियां, सजीव मनुष्य से बेहतर लगने लगीं।'
रेलवे स्टेशन की कुर्सी : समाज के रंगों की छटा

'बुर्के वाली लड़की', 'पार्लर वाली भाभी', 'टूटता दायरा', आदि कहानियाँ यहां संकलित हैं। हर कहानी को गुलशेर अहमद ने अपने अंदाज़ में प्रस्तुत किया है।

रेलवे स्टेशन की कुर्सी 
लेखक : गुलशेर अहमद 
प्रकाशक : राजमंगल प्रकाशन
पृष्ठ : 119
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