क्या आप जानते हैं कि अफ्रीका के जंगलों में भारतीय सेना के 233 जवान लगभग तीन महीने तक की घेराबंदी में फँस गए थे और उनके पास खाने को कुछ भी नहीं था?
कैसे संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना का अभियान भारतीय तिरंगे के गौरव की रक्षा के लिए एक युद्ध में बदल गया? वर्ष 2000 की बात है। पश्चिम अफ्रीका का सिएरा लिओन बरसों के गृहयुद्ध से तबाह हो चुका था। संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप से भारतीय सेना की दो कंपनियों को संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना अभियान के अंतर्गत कैलाहुन में तैनात किया गया था।
‘ऑपरेशन खुकरी’ भारतीय सेना के सबसे सफल अंतरराष्ट्रीय अभियानों में से एक था। यह पुस्तक मेजर राजपाल पुनिया के प्रत्यक्ष अनुभवों की रोचक एवं सजीव प्रस्तुति है। मेजर पुनिया ने तीन महीने के गतिरोध और विफल कूटनीति के बाद इस अभियान को अंजाम दिया, और इस दौरान घात लगाकर बैठे आर.यू.एफ. से दो बार लंबा जंगल-युद्ध करने के बाद भी वे बिना नुकसान सभी 233 सैनिकों के साथ सुरक्षित लौट आए।
मैंने 24 मार्च, 2020 को बिल्कुल अंतिम समय पर पटना जाने की उड़ान पकड़ी। दिल्ली धीरे-धीरे जानलेवा कोरोना वायरस महामारी की चपेट में आ रही थी और प्रधानमंत्री ने पूरे भारत में पूर्ण लॉकडाउन का आदेश दे दिया था। मेरे पिता पटना से 15 किलोमीटर दूर दानापुर छावनी में तैनात थे, जो एक ऐसी जगह थी, जिसके बारे में अधिकांश लोगों ने कभी सुना तक नहीं था। लेकिन इस यात्रा के बारे में सिर्फ यही बात मुझे उत्साहित करने के लिए काफी थी कि हमारा आवास पवित्र गंगा नदी के तट पर स्थित था। यह मानते हुए कि मुझे एक सप्ताह में वहाँ से वापस लौटना है, मैंने अपने सामान को बाँधा और सफर के अपने साथी, तीन महीने के बीगल, नॉडी (पालतू कुत्ता) के लिए पिंजरा लेने बाजार की ओर चल दी। इस प्रकार, हम अपने चेहरों को मास्क से ढककर चमकती हुई आँखों से झाँकते हुए, अपने एक छोटी सी ट्रॉली और नॉडी के लिए एक छोटे से थैले के साथ रोमांचकारी यात्रा शुरू कर दी।
हम सूरज के पश्चिम में डूब जाने के कुछ घंटों बाद दानापुर पहुँचे और अँधेरा घिर आने के कारण आसपास के क्षेत्र के बारे में कुछ अधिक नहीं जान पाए। और अगली सुबह कुछ ऐसी थी, जिसका बखान शब्दों में नहीं किया जा सकता, क्योंकि हम एक छोटे से कँगूरे पर बैठे हुए गंगा को निहार रहे थे और ठंडी हवा के झोंके हमारे बालों को छूते हुए महसूस हो रहे थे। उस एक क्षण के बाद वह छोटा सा कँगूरा हमारा रोज का स्थान बन गया। नॉडी को नदी में इधर से उधर तैरनेवाली नावों को पुकारने में आनंद आने लगा। एक सप्ताह महीने में बदल गया और एक महीना दो में; और नॉडी व मैं अभी भी दानापुर में ही थे। गरमी के दिनों के घटने और कँगूरे पर बैठने के हमारे समय के कम होने के साथ मैंने देश भर की यात्राओं की अंतहीन यादों और स्मृति-चिह्नों से भरे हमारे स्टोररूम का गहराई से निरीक्षण करने का फैसला किया। सेना में रहे प्रत्येक व्यक्ति का घर ढेर सारी पुरानी यादों की धूल से ढके काले रंग के बक्सों से भरा होता है, जो एक के ऊपर एक करके रखे होते हैं। हम जैसे-जैसे कहानियों, स्मृति-चिह्नों और यादों के ढेर के साथ एक गंतव्य से दूसरे की ओर जाते हैं, उन पर अंकित स्याह संख्याएँ बढ़ती रहती हैं।
यादों के उस खजाने के निरीक्षण के दौरान मेरे हाथ भूरे रंग की चमड़े की एक डायरी लगी, जो पुरानी होने के चलते चटक और सूख चुकी थी। उसके ऊपरी दाएँ कोने पर वर्ष ‘2001’ उकेरा गया था। उसमें से नेफ्थलीन की गोलियों की भीनी-भीनी महक आ रही थी (कुछ ऐसी, जो लगभग हर सैनिक के बक्से से आती है)। उसके पन्ने पूरी तरह से मुड़-तुड़ चुके थे और डायरी की बची हुई मूल सिलाई उन्हें बमुश्किल ही सँभाल पा रही थी। चमड़े के बने हुए उस खोल के भीतरी हिस्से पर पड़ी हुई हलकी सी अस्पष्ट लिखावट से स्पष्ट हुआ कि वह मेजर राजपाल पुनिया (मेरे पिता) की है। उसके पन्नों में प्रलक्षित स्याही में कैलाहुन की कहानी लिखी हुई थी। ‘ऑपरेशन खुकरी’ की मनोरम लघुकथा ने मुझे पूरी तरह से मंत्रमुग्ध कर दिया था। वह डायरी गर्व, हँसी, दुःख के क्षणों के साथ और सबसे बढ़कर सम्मान-ऑलिव ग्रीन और भारतीय सेना के प्रति सम्मान-के साथ मेरी आँखों के सामने एक चलचित्र की तरह तैर रही थी।
मेजर राजपाल पुनिया ने वर्ष 2000 में पश्चिम अफ्रीका के सिएरा लिओन में संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना के हिस्से के रूप में भारतीय सेना के सबसे सफल अभियानों में से एक ‘ऑपरेशन खुकरी’ का नेतृत्व किया था। यह उन 233 भारतीय सैनिकों की भीतर तक हिला देनेवाली कहानी है, जिन्हें तीन महीने तक बिना भोजन के घेरेबंदी में रखा गया था। उन्होंने अपने घरों पर भी किसी से बात तक नहीं की थी। उन्हें अपने परिवारों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, लेकिन फिर भी उनमें भरपूर जोश था। उन तनहा सैनिकों पर अनिश्चितता के बादल छाए हुए थे; लेकिन मातृभूमि के प्रति उनका गौरव बरकरार था।
अन्य देशों के मुकाबले हम भारतीय आज भी उन रणबाँकुरों के ऋणी हैं, सौ करोड़ से अधिक आबादीवाले देश में आज भी अधिकांश लोग इस घटना से अनभिज्ञ बने हुए हैं। दुनिया को कैलाहुन की कहानी के बारे में पता होना चाहिए और इसी वजह से इस पुस्तक का विचार मूर्त रूप ले पाने में सफल रहा।
यह पुस्तक वास्तव में मेजर पुनिया की यादों को दोबारा जोड़ती है और भारत में ऑलिव ग्रीन वरदी पहननेवाले प्रत्येक सैनिक के साहस एवं वीरता को उजागर करने का एक प्रयास है। यह पुस्तक सैन्य वरदी के जादू को सामने लाती है, जहाँ देशभक्ति की भावना को सैनिक के साहस और देश के प्रति अपार प्रेम के धागे के साथ सिला जाता है। एक बेटी के रूप में यह पुस्तक निश्चित रूप से मेरे लिए बहुत विशेष है; लेकिन भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए ऐसा होना चाहिए, क्योंकि यह भारतीय सेना द्वारा संयुक्त राष्ट्र की नीली टोपी (Blue Beret) में अंजाम दिए गए सबसे सफल अभियानों में से एक था। वास्तव में, यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोगों को कारगिल युद्ध के एक साल बाद हुए उस ऑपरेशन के बारे में पता ही नहीं है; एक ऐसा ऑपरेशन, जिसमें सैनिकों ने आत्मसमर्पण के स्थान पर मृत्यु को, दो समय के भोजन के स्थान पर सम्मान को और स्वतंत्रता के स्थान पर प्रतिष्ठा को चुना। भारतीय सैनिकों ने विदेशी धरती पर मानसिक व शारीरिक दोनों मोरचों पर एक अज्ञात शत्रु के खिलाफ लड़ाई लड़ी, किसी युद्धक्षेत्र या पहाड़ियों के युद्ध के लिए नहीं, बल्कि इसलिए, ताकि भारत की लाखों चोटियों पर गर्व से तिरंगा लहरा सके।
यह पुस्तक हवलदार कृष्ण कुमार, सेना मेडल (मरणोपरांत) को समर्पित है, जो इस ऑपरेशन में अपनी जान गँवानेवाले एकमात्र वीर योद्धा थे। हवलदार कृष्ण कुमार के परिवार का हम पर जो ऋण है, वह कभी चुकाया नहीं जा सकता। भारत का अस्तित्व हवलदार कृष्ण कुमार और शहीद होनेवाले कई अन्य साथियों के चलते है, जिन्होंने तिरंगे के सम्मान को कम नहीं होने दिया।
यह उन सभी सैनिकों को समर्पित है, जिन्होंने देश के सम्मान की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी तथा भारत के हर शहर, कस्बे और गाँव में आनेवाले तिरंगे में लिपटे ताबूत को। उन परिवारों के लिए, जिन्होंने अपने प्रियजनों को खो दिया, ताकि हमारे अपने हमारे करीब रह सकें। भारत वास्तव में वीरों का राष्ट्र है।
-दामिनी पुनिया.
ऑपरेशन खुकरी
लेखक : मेजर जनरल राजपाल पुनिया, दामिनी पुनिया