इस संग्रह के निबंधों का केंद्रीय विषय भारत की शिक्षा और शिक्षा का भारतीकरण है। इन निबंधों में भारतीय शिक्षा की वर्तमान चुनौतियों को उद्घाटित करते हुए, इसके लक्ष्यों, संस्थागत व्यवस्था और पद्धति पर विचार किया गया है। इन निबंधों का प्रतिपाद्य है कि भारतीय शिक्षा का लक्ष्य भौतिक जीवन में समृद्धि के स्थान पर मानवता के शिखर पर ले जाना होना चाहिए। भारतीय संस्कृति के अनुकूल भारत के प्रत्येक जन की शिक्षा के लिए हम केवल शैक्षिक संस्थानों के भरोसे नहीं बैठ सकते हैं। इसके लिए कुटुंब और समुदाय को भी सतत प्रयत्नशील रहना होगा। हमें मनुष्य का निर्माण करने वाली शिक्षा व्यवस्था को विकसित करना होगा जिसका लक्ष्य भारत को आगे ले जाने वाली पीढ़ी तैयार करना होगा।
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यह सच है कि- “एक देश की पहचान सिर्फ उन लोगों से नहीं बनती, जो आज उसमें जीते हैं, बल्कि उनसे भी बनती है, जो एक समय में जीवित थे और आज उसकी मिट्टी के नीचे दबे हैं। समय के बीतने के साथ भूमि की भौगोलिक सीमाएँ धीरे-धीरे संस्कृति के नक्शे में बदल जाती हैं।” -श्री नरेंद्र कोहली
और संस्कृति का यह मानचित्र ही उस देश का गीत गुनगुनाते हुए उसे ‘विश्ववारा’ का रूप देते हुए उसका यशोगान बन जाता है।
29 जुलाई, 2020 को घोषित हमारे राष्ट्र की नूतन राष्ट्रीय शिक्षा नीति अपनी प्रारंभिक परिचयात्मक भूमिका में बड़ी ही स्पष्टता एवं गौरव के साथ उद्घोषित करते हुए यह स्वीकार करती है-
यह नीति प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परंपरा के आलोक में तैयार की गई है। ज्ञान, प्रज्ञा और सत्य की खोज को भारतीय विचार परंपरा और दर्शन में सदा सर्वोच्च मानवीय लक्ष्य माना गया है। प्राचीन भारत में शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा विद्यालय के बाद के जीवन की तैयारी के रूप में ज्ञान का ही अर्जन नहीं, अपितु पूर्ण आत्म-ज्ञान एवं मुक्ति के रूप में माना गया था। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वल्लभी जैसे प्राचीन भारत के विश्वस्तरीय संस्थानों ने अध्ययन के विविध क्षेत्रों में ‘शिक्षण और शोध’ के ऊँचे प्रतिमान स्थापित किए थे तथा विभिन्न पृष्ठभूमि एवं देशों से आनेवाले विद्यार्थियों व विद्वानों को लाभान्वित किया था।
यह नीति स्पष्ट रूप से यह आभास भी देती है कि शिक्षा को केवल साक्षरता और संख्याज्ञान जैसी आधारभूत क्षमताओं अथवा उच्च स्तर की तार्किक एवं समस्या-समाधान संबंधी संज्ञानात्मक क्षमताओं के विकास तक ही परिसीमित नहीं होनी चाहिए, अपितु इसे मनुष्य के नैतिक, सामाजिक और भावनात्मक स्तर तक के विकास को भी अपना लक्ष्य बनाना चाहिए अथवा यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि इन्हें ही अपना प्रमुख लक्ष्य मानना चाहिए।
यह भी सच है कि इस शिक्षा-व्यवस्था ने वैश्विक स्तर पर गणित, खगोल-विज्ञान, धातु-विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों, सिविल इंजीनियरिंग, भवन-निर्माण, नौकायान-निर्माण, दिशा-ज्ञान, योग, ललितकलाओं, शतरंज इत्यादि ज्ञान के विविध क्षेत्रों में प्रामाणिक रूप से मौलिक योगदान दिए थे। यही कारण है कि इस नूतन शिक्षा नीति का स्पष्ट रूप से मानना है कि वैश्विक महत्त्व की इस समृद्ध धरोहर को आनेवाली पीढ़ियों के लिए जहाँ सहेज कर संरक्षित रखने की आवश्यकता है, वहीं हमारी शिक्षा-व्यवस्था में इस पर शोध-कार्य होने चाहिए। इसे और भी समृद्ध किया जाना चाहिए। इनके नए-नए उपयोग भी सोचे जाने चाहिए। यही कारण है कि हमारी इस नूतन शिक्षा नीति के अनेकानेक कथन, विशेष रूप से संपूर्ण अध्याय 22 संस्कृति, कला एवं भाषाओं के विकास तथा प्रकार्यों की चर्चा करते चलता है। यह अत्यंत हर्षप्रद विषय है कि शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नूतन शिक्षा नीति (2020) के उद्घोषित होने से पूर्व ही इस कार्य में पूर्णतया संलग्न ही नहीं रहा, अपितु अपने विभिन्न प्रकार के शैक्षिक प्रयोगों एवं प्रकल्पों के माध्यम से भारतीय संस्कृति के आदर्शात्मक पहलुओं का पर्याय-सा बन गया है। न्यास के 2018 से आरब्ध ज्ञानोत्सव प्रकल्प को इस तथ्य के ज्वलंत आदर्श के प्रमाण के रूप में लिया जा सकता है। इसे ज्ञानोत्सव के आलोक में प्रसारित एवं प्रचारित विचारों की शृंखला के स्वरूप के द्वारा भी समझा जा सकता है। प्रस्तुत पुस्तक इसी आलोक का प्रमाण है, शिक्षा एवं भारतीयता के स्वरूप को परस्पर पर्याय के रूप में उद्घाटित करने का विशेष प्रयास है।
इस पुस्तक में अहर्निश ‘भारतीय संस्कृति के प्रत्येक पहलू को जीने की इच्छा’ में पगे हुए विचारों को दिग्दर्शित करनेवाले व्याख्यानों का प्रत्येक शब्द उपर्युक्त ‘सच’ को ही दिग्दर्शित करता है कि एक देश की पहचान केवल उन लोगों से ही नहीं बनती, जो आज उसमें जीते हैं, श्वास लेते हैं, अपितु उन लोगों से भी बनती है, जो एक समय में जीवित थे और आज उसकी माटी के नीचे दबे हैं। समय बीतने के साथ-साथ भूमि की भौगोलिक सीमाएँ धीरे-धीरे संस्कृति के मानचित्र में परिवर्तित हो जाती हैं।
शिक्षा को संस्कृति के इसी मानचित्र को ‘विश्ववारा’ का रूप देने में संलग्न रहते हुए राष्ट्र के यशोगान का साधन बनना चाहिए, ऐसा संकेत इस पुस्तक का प्रत्येक शब्द देता है।
प्रथम व्याख्यान में भारतीयता के प्रहरी के रूप में प्रबुद्ध विचारक पूजनीय मोहन भागवतजी शिक्षा-नीति को एक राष्ट्रीय धरोहर के रूप में एक ‘दार्शनिक कवि’ के रूप में निहारते हैं। गंगा मैया, कावेरी, भूमि, गाँव, आध्यत्मिकता, माटी, जन, जल, जीव, जीवन-मूल्य, पहाड़, नदी, पर्यावरण, तुलसी, बिरुवा का उल्लेख करते हुए इनका मानना है कि विद्या के पर्याय के रूप में ‘शिक्षा’ अपनी सार्थकता अपने ‘भारतीय’ होने में ही पा सकती है, और भारतीय होने का अर्थ होगा—खिलने के लिए भारत की मिट्टी की सोंधी गंध में साँस लेना, भारत की भूमि में सिमटना, भारत की माटी में अंकुरित होना, भारत की नदियों के जल का पान करते हुए इसी की छाँव में पल्लवित होना, इसी के हिम के आँचल में पुष्पित होना। पूजनीय का कथन है कि भारत स्वयं ‘सत्य को जानने का, सत्य को पाने’ का एक विचार है। यह मुक्त होने का विचार है। यह इस उद्घोष को गुंजायमान करने का विचार है कि- अभयपूर्ण हुंकार कर देख! फिर देख तेरे बगैर कुछ नहीं है।
इसी विचार को अनुभूत करने-कराने का दायित्व शिक्षा पर ही है। यही शिक्षा की सार्थकता का दर्पण है। क्रियान्वयन इसी भाव को साकार करने की प्रक्रिया का, दृढ़ निश्चय का प्रतिरूप होना चाहिए। पूजनीय का मानना है कि भारत की शिक्षा की भारतीयता का सारतत्त्व ‘सत्’ के विचार में निहित है। शिक्षित व्यक्ति इसी को खोजने में लीन होने के योग्य हो जाए, यही शिक्षा का सकारात्मक तत्त्व होना चाहिए। इसके लिए लक्ष्य होना चाहिए-‘सत्यधर्मदृष्टये’।
और भाव होना चाहिए- ‘त्यक्तेन भावेन भुञ्जीथाः’ -ईशोपनिषद्
ध्यान रखना होगा कि बच्चों को केवल परीक्षाओं में प्रथम स्थान पाने के लिए ही तैयार न करना होगा, अपितु हम उन्हें जीवन का सामना करने के लिए तैयार करें। इसी में शिक्षा की सार्थकता समाहित है।
माननीय भय्याजी जोशी का द्वितीय व्याख्यान शिक्षा की सार्थकता को महर्षि अरविंद के एक कथन के इस भाव में ढूँढ़ता है कि ‘हम जहाँ भी जाएँ, भारत को साथ ले जाएँ’! अंततः क्या अर्थ है ‘भारत को साथ ले जाने का’? इस तथ्य को समझने व समझाने में ही शिक्षा के लक्ष्य की सार्थकता खोजी जानी चाहिए। साथ ही, ‘भारत को साथ लेकर जानेवालों’ को तैयार करना भी शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण महत्त्वकांक्षी प्रकार्य होना चाहिए। माननीय भय्याजी जोशी का यह व्याख्यान पदे-पदे हमें चिंतनार्थ अनेकानेक प्रश्न देता चलता है, ताकि हम स्वयं से संवाद करते चलें। शिक्षाविदों की प्रामाणिकता के रूप में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् एवं रवींद्रनाथ ठाकुर को उद्धृत करते हुए माननीय भय्याजी जोशी संकेत देते हैं कि अंततः शिक्षाविद् के चिंतन का स्वरूप कैसा अथवा किस स्तर का होना चाहिए! भय्याजी का यह भी अत्यंत स्पष्ट संकेत है कि शिक्षा संस्थाओं का विशिष्ट व प्रमुख दायित्व ‘व्यक्ति के निर्माण’ में निहित है। और इस संदर्भ में महर्षि गर्ग, भाऊराव देवरस तथा महात्मा फूलेजी जैसे कर्मवीरों की चर्चा करते हुए वे स्पष्ट संकेत देते हैं कि अत्यधिक सुसज्जित भवनों अथवा आधुनिक सुविधाओं के स्थान पर स्पष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति का लक्ष्य ही संस्थाओं का लक्ष्य होना चाहिए। महर्षि अरविंदजी के ‘मृत्युंजय भारत’ का संदर्भ लेते हुए माननीय भय्याजी मानते हैं कि ‘हमारी शिक्षा का उद्देश्य सारे विश्व के कल्याण की कामना करनेवाला भारत’ होना चाहिए- कृण्वन्तो विश्वमार्यम्
इस प्रकार की कामना करनेवाली भारतीय शिक्षा की भारतीयता का मार्ग ‘सुसंस्कृत मनुष्य’ के निर्माण में निहित हो सकता है, न कि केवल उत्तीर्णता के प्रमाण-पत्र वितरण में अथवा प्रशासनिक अधिकारी बनने व बनाने में। शिक्षा का यह मार्ग स्वावलंबन, स्वाभिमान एवं आत्मविश्वास जाग्रत् करने का मार्ग है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धांत का अनुसरण करते हुए इसका संदेश होना चाहिए- मातृदेवो भव। पितृदेवो भव।
तृतीय व्याख्यान अठारहवीं शताब्दी में देशज शिक्षा में प्रबुद्ध चिंतक श्री सी.आर. मुकुंदजी अपनी बात को अत्यंत सशक्त, परंतु भावुक ढंग से स्थापित करते हुए प्रारंभ में ही मानते हैं कि सीखना तो जीवनपर्यंत चलनेवाली प्रक्रिया है, जबकि विद्यालयी शिक्षा कुछ पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु सीमित ज्ञान पर आश्रित रहनेवाली केवल एक औपचारिक प्रक्रिया। सीखना एक आनंदप्रद सृजनात्मक प्रक्रिया है और प्रत्येक व्यक्ति इसका अधिकारी है। अंततः शिक्षित कौन है? के संदर्भ में एक प्रशासनिक अधिकारी के ‘संपादक के नाम पत्र’ का उद्धरण देते हुए वे मानते हैं कि शिक्षा का वास्तविक रूप संवेदनशील व्यक्ति के निर्माण से जुड़ा है, न कि सूचनाओं से संबद्ध ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया से। ‘शिक्षित होने’ व ‘साक्षर होने’ में अंतर है। औपचारिक शिक्षा का महत्त्व होते हुए भी सीखना अधिक महत्त्वपूर्ण है। ज्ञान प्राप्त करने की सार्थकता ज्ञान को सामाजिक दृष्टि से उपयोगी बनने में निहित है। यही सीखने का आधारभूत तत्त्व है। शिक्षा मूल्यों द्वारा व्यक्ति को संस्कारित करने की प्रक्रिया है। यही भारतीयता का केंद्रबिंदु है। शिक्षा में भारतीयता से यही अभिप्राय है। स्वामी विवेकानंद, प्रो. हिरियन्ना एवं डॉ. राधाकृष्णन् को उद्धृत करते हुए सीखने की भारतीय संकल्पना को स्पष्ट करते हैं कि वास्तविक सीखना तो औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् सीखने से संबद्ध है। यह समान पाठ्यचर्या के स्थान पर इसे सीखनेवालों की आवश्यकताओं, रुचियों, योग्यता, ग्रहणशक्ति, धारणशक्ति आदि से संबद्ध होनी चाहिए। आचार्यों के गुरुत्व में पगी भारतीय संस्कृति इसका आधार होनी चाहिए। अध्यात्म-आधारित ज्ञान-विज्ञान ही इसकी आधारभूत सामग्री है। फिनलैंड का उदाहरण देते हुए वे मानते हैं कि शैक्षिक परिवर्तन ही राष्ट्र-परिवर्तन का आधार है। भारतीय मूल्य-परंपरा को ही शिक्षा की विभिन्न गतिविधियों को आधार रूप में देखा जाना चाहिए। लेखक इस संदर्भ में हमारे समक्ष चिंतन का एक आयाम रखते हुए कहते हैं- When we speak about Indianness, do we include all those values that were advised to be inculcated by our rishis, munis and emperors in our present-day education system?
भारतीय उत्सव इसका सशक्त आधार है। भारतीयता के संदर्भ में ‘तीन भरत’ के प्रसंग को वे सीखने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानते हैं। धर्मपालजी के ‘Beautiful Tree’ के संदर्भ में विज्ञान आदि के शिक्षण में भारतीय शिक्षण-पद्धतियों एवं शिक्षा के स्तर का विशिष्टोल्लेख को भारतीय शिक्षा के गौरव की गाथा माना जा सकता है।
पुस्तक में संगृहीत चतुर्थ व्याख्यान में शिक्षा को सामाजिक बदलाव के साधन के रूप में देखनेवाले इस पुस्तक के संपादक माननीय अतुल कोठारीजी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) को भारत केंद्रित शिक्षा की पीठिका के रूप में देखते हैं। माननीय अतुलजी का मानना है कि शैक्षिक परिवर्तन भारतीय परंपरा का अभिन्न अंग है। शिक्षा को समाज एवं राष्ट्रीय जीवन के अनुकूल होना चाहिए। मैकाले के विचारों के अनुसार अपनाई गई शिक्षा के परिणामस्वरूप हमारी स्वतंत्रता पश्चात् की विचार प्रक्रिया ही अभारतीय हो गई और इसका साक्षात् प्रभाव हमारी शिक्षा-पद्धति पर देखा जा सकता है। इसे परिवर्तित करने की दृष्टि से स्वतंत्रता पूर्व एवं स्वातंत्र्योपरांत श्री अरविंद, महात्मा गांधी, रवींद्र नाथ ठाकुर, पं. मदनमोहन मालवीयजी के प्रयास सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण समझे जा सकते हैं। परंतु स्वतंत्रता के पश्चात् शिक्षा में बदलाव के प्रयास प्रायः भाषणों, पुस्तकों अथवा प्रतिवेदनों तक ही सीमित होकर रह गए हैं। क्रियान्वयन में इच्छा-शक्ति का अभाव रहा। भौतिक उन्नति को शैक्षिक उन्नति के आधार के रूप में नहीं देखा जा सकता। पर्यावरण प्रदूषण इसका एक नाशकारी परिणाम है। उनका यह भी मानना है कि हमने भौतिकता को कभी नकारा नहीं है। जब देश विश्वगुरु था, तब हम सभी दृष्टियों से संपन्न थे, इसीलिए तो विदेशी आक्रांता भारत को लूटने आए थे। सब प्रकार की भौतिक संपन्नता के साथ हमारा मूल आध्यात्मिक ही रहा है, जिसका व्यावहारिक स्वरूप धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का संतुलित समन्वय था। मनुष्य का व्यक्तित्व उसके चरित्र के आधार पर नापा जाता था। यही भारतीय विकास की संकल्पना रही है। शिक्षा को इसी के लिए होना चाहिए। शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के लक्ष्य की चर्चा करते हुए अतुलजी मानते हैं कि चरित्र-निर्माण के संदर्भ में व्यक्तित्व का समग्र विकास, मूल्य आधारित शिक्षा, वैदिक गणित, पर्यावरण की शिक्षा, मातृभाषा (भारतीय भाषा) में शिक्षा एवं शिक्षा की स्वायत्तता को ही शिक्षा के आधार के रूप में महत्त्व दिया जाना चाहिए। अतुलजी ने न्यास की इस मान्यता में दृढ़विश्वास व्यक्त किया कि ‘माँ-मातृभूमि एवं मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं हो सकता’, इसे ही प्रजातांत्रिक प्रणाली के आधारभूत सिद्धांत के रूप में मान्यता देनी चाहिए। वे अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं कि शिक्षा में सकारात्मक परिवर्तन का प्रयास देश में एक जन-आंदोलन बने।
शिक्षा में भारतीयता एक विमर्श
लेखक : अतुल कोठारी
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 88
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