राजनीति के उस पार : प्रो. रामगोपाल का जीवन संघर्षों की मिसाल है

राजनीति के उस पार

देश के अग्रणी समाजवादी विचारक, राजनीतिज्ञ, राज्यसभा के सदस्य, समाजवादी पार्टी के प्रधान महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हैं। बिना किसी महत्त्वाकांक्षा के सतत जनसेवा को समर्पित, अहंकाररहित जीवन उनका वैशिष्ट्य है। एक सुव्यवस्थित और सम्मानपूर्ण जीवन शुरू होने के बावजूद विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे जनसामान्य की पीड़ा ने प्रो. रामगोपाल के संवेदनशील हृदय तथा क्रियाशील मस्तिष्क को व्यथित करती रही, फलतः राजनीति को उन्होंने जनसेवा का महत्त्वपूर्ण माध्यम समझते हुए राजनीति विज्ञान के उच्चतम अध्ययन-अध्यापन और अनुसंधान का कीर्तिमान स्थापित किया। 

विज्ञान और राजनीति के मणिकांचन संयोग के कारण प्रो. रामगोपाल का चिंतन एवं विश्लेषण पर्याप्त सुस्पष्ट व दूरदर्शितापूर्ण रहा है। सदन में विभिन्न मुद्दों पर तथ्यों के आधार पर तार्किक ढंग से विषय का प्रतिपादन इसका ज्वलंत प्रमाण है। उनके तर्कों को कोई स्वीकार करे या न करे, लेकिन अनसुना तो नहीं कर सकता। तेजस्वी सांसद, संसदीय प्रक्रियाओं के ज्ञाता एवं प्रखर वक्ता के रूप में उनकी प्रतिभा और क्षमता सर्वविदित व प्रशंसनीय है। इसी का परिणाम है कि सत्ता एवं विपक्ष के अन्यान्य शीर्ष नेता उनकी टिप्पणियों और विचारों का यथेष्ट सम्मान करते हैं। 

प्रो. रामगोपाल यादव ने विषम परिस्थितियों में भी कभी आपा नहीं खोया और संसदीय गरिमा व अनुशासन हमेशा बनाए रखा, जो अन्य सांसदों के लिए अनुकरणीय है। निष्कलंक जीवन के 75 वसंत पूरे करने पर प्रो. रामगोपाल यादव का अभिनंदन वस्तुतः समाजवादी आदर्शों से अनुप्राणित राजनीति का गौरववर्धन है, जिसे इस पुस्तक में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया गया है।
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हमारे देश में राजनीति का मतलब सत्ता के खेल में शह और मात तक सिमट गया है। मगर आज भी इस देश में राजनेताओं की एक ऐसी पीढ़ी है, जिसके लिए सिद्धांत हमेशा सत्ता से ऊपर रहे हैं। जो संघर्षों के सहारे फली-फूली है और जमीन की सियासत को ही अपना मकसद मानती आई है। यह वह पीढ़ी है, जिसके जेहन में जनता और ठोकरों में सत्ता रही है। जिसने अपनी जनवादी सोच की रोशनी में सत्ता की बड़ी-से-बड़ी संभावनाओं को भी ठोकर मार दी है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव ऐसी ही सिद्धांतवादी, शुचितापूर्ण और गरिमामयी राजनीति के प्रतीक रहे हैं। अपने चार दशक के राजनीतिक जीवन में उन्होंने कभी भी सत्ता के लिए सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। देश की राजनीति में कई बड़े सकारात्मक बदलावों के कारण रहे, कई महत्त्वपूर्ण जनवादी कानूनों के प्रेरक रहे, समावेशी राजनीति की मिसाल रहे, मगर कभी भी अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा नहीं पीटा। चुपचाप काम करते रहे, सतत काम करते रहे और सिर्फ जनता का काम करते रहे। आज वे उपलब्धियों के जिस शिखर पर हैं, उसकी नींव में बेहद कठिन संघर्षों का एक भरा-पूरा इतिहास समाया हुआ है। इन्हीं संघर्षों की तपिश ने उनके व्यक्तित्व को जमीनी साँचे में ढालकर सदैव जन-सरोकारों से जोड़े रखा।

मेरे जनम लेने से पहले से ही प्रोफेसर साहब राजनीति में सक्रिय थे। यहाँ आगे मैं जो कुछ लिख रहा हूँ, उसका एक खंड मुझे अपने बड़ों ने बताया और बाद की घटनाओं को तो मैंने स्वयं ही देखा है।

प्रो. रामगोपाल का जीवन संघर्षों की मिसाल है। इटावा के सैफई के एक कच्ची इमारत वाले प्राइमरी स्कूल में पढ़नेवाले इस छात्र ने कभी सोचा नहीं होगा कि वह एक रोज अपने संघर्षों व विचारों से देश के सर्वोच्च सदन में अभूतपूर्व छाप छोड़ेगा। प्रो. रामगोपाल का बचपन बेहद कठिन स्थितियों में बीता। तीसरी क्लास तक जिस स्कूल में पढ़े, वह बारिश की मार से ढह गया। आगे की पढ़ाई का कुछ पता नहीं था। अगला स्कूल हेंवरा में था, जो सैफई से तीन किलोमीटर दूर था। मगर सवाल था कि पढ़ें कैसे और पढ़ाए कौन? गरीबी की दीवार काफी ऊँची थी। शिक्षा की चौखट तक जाने से पहले ये दीवार लाँघनी जरूरी थी। नतीजे में प्रो. रामगोपाल एक साल तक अपने चाचा सुधर सिंह के साथ गायें चराते रहे। शिक्षा की रोशनी गरीबी के अँधेरे में खोती जा रही थी। उनके पड़ोसी ख्याली राम दद्दा की बैठक में तीसरी कक्षा तक पढ़ाई के लिए जरूरी क्लास चलाते थे। इस बीच एक चमत्कार हुआ। एक रोज गाँव में बच्चों की क्लास चल रही थी। रामगोपाल वहीं मौजूद थे। क्लास में मौजूद बच्चों को गणित के कुछ सवाल हल करने थे। मगर किसी को भी कुछ सूझ नहीं रहा था। ऐसे में अध्यापक ने रामगोपाल से पूछा, “तुम बता सकोगे?” रामगोपाल ने आनन-फानन में सब सवालों के सटीक जवाब दे दिए। अध्यापक दंग रह गए। उन्होंने रामगोपालजी के पिता बच्ची लालजी से कहा कि यह बच्चा सबसे अधिक होशियार है। इसे आगे की पढ़ाई के लिए क्यों नहीं भेज रहे हो?

इस एक घटना ने उनके जीवन में संभावनाओं के दरवाजे खोल दिए। नियति मानो इसी बात का इंतजार कर रही थी। उनका नाम हेंवरा के प्राइमरी स्कूल में लिखवा दिया गया। वे चौथी-पाँचवीं यहीं पढ़े। फिर यहीं स्थित जूनियर हाईस्कूल से आठवीं तक की पढ़ाई की। उस दौरान मिडिल यानी आठवीं की परीक्षा में जिले स्तर का बोर्ड होता था। प्रो. रामगोपाल अकेले थे, जो प्रथम श्रेणी में पास हुए। नौवीं की पढ़ाई से लेकर इंटर तक जैन इंटर कॉलेज करहल (मैनपुरी) में अध्ययन किया। फिर बी.एससी. के लिए के.के. कॉलेज, इटावा में दाखिला लिया। साल 1966 में बी.एससी. की पढ़ाई पूरी की। यह वह दौर था, जब नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव चुनावी राजनीति में प्रवेश कर रहे थे। साल 1967 में यूपी विधानसभा का चुनाव था। नेताजी चुनाव के मैदान में उतरे। वे उस समय जैन इंटर कॉलेज में पढ़ाते भी थे। प्रो. रामगोपालजी ने कुछ वक्त के लिए अध्ययन को विराम दिया और नेताजी के चुनाव में जी जान से जुट गए। वे जसवंत नगर के गाँव-गाँव और गली-गली में नेताजी के लिए प्रचार करते रहे। तब न कोई जीप थी, न कोई कार, कोई अन्य सुविधा भी नहीं। साइकिल से प्रचार होता था या कभी-कभी ट्रैक्टर से। प्रो. रामगोपाल यादव दिन-रात साइकिल से गाँव-गाँव घूमकर नेताजी के लिए वोट माँगते रहे। कोई ऐसा गाँव नहीं था, जहाँ वे न गए हों। कोई ऐसा घर नहीं था, जिसकी चौखट पर जाकर वोट न माँगा हो। चुनाव बीता, वे फिर से अपनी डगर पर लौट आए। यह डगर अध्ययन की थी।

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आगरा कॉलेज में एम.एससी. फिजिक्स में दाखिला लिया। साल 1969 में एम.एससी. की परीक्षा पास की। उन दिनों पुस्तकें खरीदने के पैसे तक नहीं होते थे। ऐसे में कॉलेज की QPL यानी क्वार्टर प्राइस लाइब्रेरी के जरिए ही काम चलता था। इस लाइब्रेरी में एक-चौथाई कीमत पर ही पुस्तकें पढ़ने को मिल जाती थीं। ऐसे में ये लाइब्रेरी ही प्रो. रामगोपाल के सपनों की लैबोरेटरी बन चुकी थी। पढ़ाई के बाद इसी के.के. कॉलेज में फिजिक्स के अध्यापक का इंटरव्यू दिया। इसका भी बेहद रोचक वाकया है। इंटरव्यू के लिए कानपुर से एक्सपर्ट आए थे। कानपुर के डीएवी और क्राइस्ट कॉलेज के एक्सपर्ट थे। पैनल में केमेस्ट्री के भी एक्सपर्ट थे। प्रो. रामगोपाल यादव से उनके ‘स्पेशलाइजेशन’ के बारे में पूछा गया। उन्होंने ‘सॉलिड स्टेट फिजिक्स’ बताया। उनसे अगला सवाल किया गया, ‘सेमी कंडक्टर्स’ को समझाने का। प्रो. रामगोपाल ने समझाना शुरू किया। वे जिस तरह से चीजों को बयाँ कर रहे थे, पूरा पैनल हैरान था। एकदम टीचर की तरह वे अपने विषय की एक-एक बारीकी समझा रहे थे। पैनल में राजनीति विज्ञान के एक्सपर्ट भी थे। जवाब खत्म होने पर उन्होंने कहा कि मेरा विषय अलग है, मुझे समझ तो नहीं आया, पर-“The way he has explained, he will prove to be a good teacher. He will become the very good teacher.” इंटरव्यू खत्म हुआ। नतीजा आया। प्रो. रामगोपाल के.के. कॉलेज में फिजिक्स के लैक्चरर बन चुके थे।

पाँच साल तक वे यहाँ फिजिक्स पढ़ाते रहे। साल 1974 तक वे इसी कॉलेज में फिजिक्स के अध्यापक रहे। मगर अब एक नई चुनौती सामने थी। नेताजी के राजनीतिक मिशन में उन्हें सक्रिय रहना होता था। ऐसे में फिजिक्स का अध्यापन नई चुनौती पेश कर रहा था, क्योंकि इसके लिए खासा समय देना होता था। अपने पेशे से बेईमानी उन्हें मंजूर नहीं थी और राजनीति की चुनौतियों से भी पीछे हटने का इरादा नहीं था। सो प्रो. रामगोपाल ने एक नया रास्ता ढूँढ़ निकाला। उन्होंने साल 1972-73 में कानपुर यूनिवर्सिटी से राजनीतिक शास्त्र में एम.ए किया और इसके बाद राजनीति विज्ञान में अध्यापन का रास्ता चुना। वे के.के. कॉलेज में ही पॉलिटिकल साइंस के लैक्चरर नियुक्त हुए। यह भी अपनी तरह की एक अनोखी उपलब्धि थी। बड़ी बात यह रही कि उन्हें यह नियुक्ति जरूरी पाँचों इंक्रीमेंट्स के साथ मिली, क्योंकि वे पहले से अध्यापन कर रहे थे। मगर यहाँ सिस्टम की लालफीताशाही और बेईमानी का सामना करना पड़ा। इलाहाबाद में स्थित शिक्षा निदेशालय ने उनके पाँचों इंक्रीमेंट काट दिए। इसके पीछे की कहानी भी विचित्र थी।

यह घूस के तंत्र की कालिख थी। अध्यापकों के एक वर्ग ने ‘पे फिक्शेसन’ के लिए चंदा किया था। इस चंदे से अधिकारियों को घूस दी जानी थी। इसी घूस से काम होना था। यह एक परंपरा बन चुकी थी। मगर प्रो. रामगोपाल ने इस रिश्वतखोरी से साफ इनकार कर दिया। नियम उनके हक में थे। योग्यता उनका अस्त्र थी। फिर आखिर यह घूस कैसी? नतीजे में भ्रष्ट अफसरशाही ने उनके इंक्रीमेंट्स पर कैंची चला दी। प्रोफेसर झुके नहीं। सारे नियम-कायदों और कागजातों के साथ शासन के दरवाजे तक गए। अपनी बात रखी। नियमों का हवाला दिया और आखिर में अपना हक लेकर लौटे। पाँच-छह साल बाद ग्रेड बढ़ने की बारी आई। भ्रष्ट व्यवस्था ने एक बार फिर से उनसे सरकारी चढ़ावे में योगदान के लिए चंदा माँगा। प्रोफेसर साहब ने फिर से मना कर दिया। फिर से उनका ग्रेड अपग्रेडेशन रोक दिया गया। वे फिर सरकार के पास गए। सबूतों के साथ अकाट‍्य तर्क दिए। उनकी सर्विस continuous और approved थी। प्रोफेसर साहब की इस तार्किक लड़ाई की परिणिति सरकारी आदेश, यानी जीओ के तौर पर हुई। उन्हें जीओ के जरिए उनका हक मिला। इस जीओ का लाभ पूरे प्रदेश में उनके जैसे अनेक अध्यापकों को मिला। प्रोफेसर साहब ने रिश्वत देकर अपना काम निकालने की जगह संघर्ष कर सभी के हक के लिए मिसाल कायम करने का रास्ता चुना। यही उनकी ट्रेनिंग थी। यही उनका ध्येय था।

अब राजनीति की बारी आ चुकी थी। यह नई दुनिया उनका इंतजार कर रही थी। यह साल 1989 था। यूपी की राजनीतिक हवा तेजी से बदल रही थी। नेताजी ने जिस समाजवाद की अलख जगाने का काम किया था, उसकी जड़ें मजबूत होना शुरू हो गई थीं। अभी तक प्रो. रामगोपाल यादव नेताजी के चुनाव में दिन-रात दौड़ने का काम करते थे। मगर नेताजी ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था। ये इटावा के बसरेहर के ब्लॉक प्रमुख का चुनाव था। यह चुनाव नेताजी के लिए उस दौर की सबसे बड़ी चुनौती था, क्योंकि यहाँ उनकी पार्टी का खाता अब तक नहीं खुला था। नेताजी की पार्टी उनके निर्वाचन क्षेत्र जसवंत नगर के दो ब्लॉकों में से एक जसवंत नगर जीतती आई थी, पर बसरेहर को लगातार हारती आई थी। यहाँ कुल 116 प्रधान थे। जीत-हार की चाभी इनके ही हाथ थी। लगातार मिल रही हार से परेशान पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने नेताजी की सहमति से चुपचाप एक प्लान बना लिया था। प्रो. रामगोपाल को इस प्लान की भनक तक न थी। प्लान के मुताबिक नॉमिनेशन के रोज नेताजी प्रो. रामगोपाल के पास आए। गाड़ी स्टार्ट रखी। गाड़ी में बैठे-बैठे कहा, “तुम नॉमिनेशन कर आना” और तुरंत निकल गए। प्रो. रामगोपाल को सोचने तक का वक्त न मिला। अगर उन्हें उस वक्त थोड़ा भी समय मिलता तो शायद वह इस दुनिया से दूर ही रहते। नेताजी को मना लेते। वे अपनी अध्यापन की दुनिया में ही खुश थे।

नेताजी उनके इस स्वभाव से वाकिफ थे। इसीलिए पूरी योजना ही इस तरह से तैयार की गई कि प्रो. रामगोपाल के पास इनकार का विकल्प ही न रह जाए। मजबूरी में उन्हें नॉमिनेशन करने जाना पड़ा। उन्होंने एक आखिरी दाँव यह कहकर चला कि उनका वोट नहीं है। मगर पार्टी नेताओं ने यह काम उनकी गैर-जानकारी में पहले ही करवा दिया था। प्रो. रामगोपाल की उम्मीदवारी ने बसरेहर की सियासत की तसवीर ही बदल दी। कांग्रेस के उम्मीदवार ने प्रो. रामगोपाल के आगे खड़ा होने से ही इनकार कर दिया। दूसरी पार्टियों को उम्मीदवारों के लाले पड़ गए। किसी तरह से तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के मंत्री बलराम सिंह यादव ने मेघनाथ यादव को उम्मीदवारी के लिए तैयार किया। वोटिंग हुई। नतीजों ने इतिहास पलट दिया। प्रो. रामगोपाल को 116 में से 107 वोट मिले। उनके खिलाफ खड़े हुए मेघनाथ यादव को महज 6 वोटों से संतोष करना पड़ा। प्रो. रामगोपाल ने अपने जीवन के इस पहले चुनाव में 101 वोटों से बंपर जीत हासिल की। प्रोफेसर साहब एक ऐसा इतिहास बना चुके थे, जिसका उन्हें अंदाजा भी न था। 
प्रो. रामगोपाल का जीवन संघर्षों की मिसाल है

प्रोफेसर साहब की सियासी यात्रा अब रफ्तार पकड़ चुकी थी। वह एक के बाद दूसरी चुनौती से जूझ रहे थे। अब जिला परिषद् का चुनाव सामने आ गया। जिला पंचायत चुनावों को पहले जिला परिषद् के नाम से ही जानते थे। सियासी पार्टियों के लिए यह चुनाव इसलिए भी प्रतिष्ठा का विषय था, क्योंकि वर्ष 1977 से ही यह रुका हुआ था। 12 वर्ष बाद जाकर वर्ष 1989 में इन्हें फिर से कराया जा रहा था। यह कांग्रेस के दबदबे का दौर था। लगातार तीन बार दिल्ली की सी.एम. रह चुकीं स्वर्गीय शीला दीक्षित पड़ोस के कन्नौज से एम.पी. थीं। जिला परिषद् चुनावों में एक बार फिर से प्रो. रामगोपाल ने नया इतिहास रचा। उन्हें कुल 57 वोट मिले, जबकि कांग्रेस के उम्मीदवार को केवल 36 वोटों से संतोष करना पड़ा। तत्कालीन कांग्रेस सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद प्रो. रामगोपाल यादव यह चुनाव जीत गए।

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उनकी यह जीत उस वक्त की कांग्रेस सरकार के गले नहीं उतरी। प्रोफेसर साहब को हराने में नाकाम रहे कांग्रेसी नेता अब उन्हें हटाने की कोशिशों में जुट गए। सरकार की इन कोशिशों की भनक अखबारों को लग गई। अखबार में यह खबर छप गई। प्रोफेसर साहब इसी खबर की कटिंग को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में चले गए। हाइकोर्ट जज का ऑब्जर्वेशन बेहद साफ था। उन्होंने साफ कहा कि इस तरह से जिला परिषद् अध्यक्ष को नहीं हटाया जा सकता। सरकार को मुँह की खानी पड़ी। मगर इस वाकए ने सरकार के प्रतिशोध को और भी बढ़ा दिया। सरकार प्रोफेसर साहब को हटाने पर आमादा हो गई। गवर्नमेंट के चीफ स्टैंडिंग काउंसिल ने सलाह दी कि ऐसा नहीं करना चाहिए। हाईकोर्ट के ऑब्जर्वेशन का भी जिक्र किया। मगर सरकार नहीं मानी। प्रो. रामगोपाल यादव को उनके पद से हटा दिया गया। प्रोफेसर साहब ने फिर से हाईकोर्ट की शरण ली। हाईकोर्ट ने सरकार का ऑर्डर ‘स्टे’ कर दिया। बहस के दौरान सरकारी वकील ने तर्क दिया कि ऑब्जर्वेशन जजमेंट नहीं होता है। इस पर जज ने बेहद सख्त टिप्पणी करते हुए कहा, Whatever a judge speaks in a court of law, is the law of land. इस पर सरकारी वकील की बोलती बंद हो गई। पर प्रो. रामगोपाल ने हाईकोर्ट से आग्रह किया कि सरकार किसी भी तरह से उन्हें हटाने पर आमादा है, इसलिए उन्हें न्यायिक संरक्षण दिया जाए। इस पर हाईकोर्ट जज ने आदेश में साफ लिख दिया-DM Itawa will not intervene in the functioning of Ramgopal Yadav. इसके आगे उन्होंने लिखा कि अगर इसके बावजूद भी रामगोपाल साहब को हटाया गया तो डीएम इटावा को जेल भेज दूँगा। डीएम इटावा उस वक्त विजय शंकर पांडेय थे। वे पहले से प्रोफेसर साहब को अवैध तरीके से हटाने के हक में नहीं थे। सरकार प्रोफेसर साहब को तो नहीं हटा पाई, पर अपनी झल्लाहट और गुस्से में इटावा के डीएम को जरूर हटा दिया।

राजनीतिक सिस्टम प्रो. रामगोपाल यादव के खिलाफ था, मगर नौकरशाही में उनकी कार्यप्रणाली की तारीफें हो रही थीं। कानपुर के तत्कालीन कमिश्नर उनके काम से खासे प्रभावित थे। पहली बार ऐसा हो रहा था कि उनके पास इटावा से बेहद ही अच्छी और विषय के लिहाज से समृद्ध फाइलें आ रही थीं। पूरी तरह से पारदर्शी। उन्होंने प्रोफेसर साहब को बुलाया और अपने अधिकार भी उन्हें सौंप दिए। प्रोफेसर की भेजी हुई फाइलों पर ‘अप्रूवल’ के सिग्नेचर उन्हें करने होते थे। उन्होंने आगे से प्रोफेसर को ही यह अधिकार सौंप दिए। अब प्रो. रामगोपाल अपने काम को खुद ही स्वीकृत करने का अधिकार रखते थे। यह उनकी ईमानदारी और पारदर्शी स्वाभाव का सिला था। सब चीजें पटरी पर चल रही थीं, मगर बीजेपी की अगुवाई वाली तत्कालीन राज्य सरकार बदला लेने पर आमादा थी।। सरकार हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुँच गई। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने देखते ही फाइल फेंक दी और कहा कि इस मामले में कोई आधार ही नहीं है। बेंच ने यह भी पूछा कि आखिर सरकार एक व्यक्ति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट क्यों आई है? स्टे वैकेट करने के लिए सरकार हाईकोर्ट क्यों नहीं गई? मगर यूपी सरकार ने अजब दलील दी। उसने कहा कि हमें सुना नहीं गया। जबकि हाईकोर्ट के आदेश में यूपी सरकार के तर्कों का भी जिक्र था। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने मामले को स्टे कर दिया, मगर अगली ही सुनवाई में खारिज भी कर दिया। प्रो. रामगोपाल को अब सुप्रीम राहत मिल चुकी थी। 

प्रोफेसर का राजनीतिक जीवन उपलब्धि के एक के बाद दूसरे सोपानों की ओर बढ़ रहा था। अब उनके संसदीय जीवन के आगाज की तारीख आ चुकी थी। वर्ष था 1992, जब प्रो. रामगोपाल पहली बार राज्यसभा पहुँचे। प्रोफेसर के जीवन की यह परीक्षा भी बेहद कठिन थी, क्योंकि जीत के लिए कुल 36 वोट चाहिए थे, मगर उनकी पार्टी के पास कुल 33 विधायकों का ही समर्थन था। यहाँ भी एक पेंच था। इन 33 में से 4 विधायक पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रेशखर के खेमे से थे। वे वोट देने को तैयार नहीं थे। इस तरह से कुल 29 विधायक ही प्रो. रामगोपाल के पास थे। अचानक ही इस गेम में बीएसपी के संस्थापक स्वर्गीय कांशीरामजी की एंट्री हुई। उन्होंने नेताजी से कहा कि सब मिलकर आपके भाई को हराने की कोशिश में हैं। मेरे पास 13 विधायक हैं, इनका समर्थन आपको रहेगा। नतीजा आया तो प्रोफेसर 49 वोट पाकर सबसे अधिक अंतर से जीते, जो उस समय तक का रिकॉर्ड था। प्रोफेसर को 29 वोट अपनी पार्टी के, 13 वोट बीएसपी के, जबकि 7 अन्य के वोट मिले। ये प्रो. रामगोपाल का शानदार संसदीय आगाज था। इसके बाद से अगले 12 वर्ष यानी दो टर्म प्रो. रामगोपाल लगातार राज्यसभा के सदस्य रहे। अब उनके लोकसभा लड़ने का वक्त आ चुका था। यह साल 2004 था। 14वीं लोकसभा के चुनाव थे। नेताजी ने प्रो. रामगोपाल को संभल से टिकट दिया। यहाँ भी मुकाबला बेहद ही कठिन और उलझा हुआ था। प्रोफेसर के खिलाफ डी.पी. यादव मैदान में थे। कांग्रेस से अशोक यादव थे। बीएसपी ने एक मुस्लिम कैंडीडेट को टिकट दिया हुआ था।

प्रोफेसर साहब के जाननेवाले उनके संभल से उतरने को लेकर हैरान थे। मशहूर पत्रकार वेदप्रताप वैदिक ने उन्हें इस दौरान फोन किया और सीधे पूछा, “कहाँ फँस गए रामगोपाल?” प्रो. रामगोपाल ने पूरे आत्मविश्वास से जवाब दिया—“दो लाख से अधिक वोट से हराऊँगा।” वोटिंग का दिन आया। डी.पी. यादव पूरे लाव-लश्कर के साथ बूथ कैप्चरिंग की कोशिश में जुटे थे। वे अपने गाँव में बूथ कैप्चर करते हुए आगे बढ़ रहे थे। इस बीच प्रोफेसर के पास धर्मेंद्र यादव का फोन आया। धर्मेंद्र ने बताया कि डी.पी. यादव पहुँचे हैं और बूथ कब्जा कर रहे हैं। प्रोफेसर ने कहा कि उसे उलझाए रखो वहीं। जितना अधिक वक्त एक बूथ पर उसे लगेगा, उतना ही कैप्चरिंग कम होगी। डी.पी. यादव बबराला के अगले बूथ पर पहुँचे। वहाँ पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। चुनाव का नतीजा आया। डी.पी. यादव प्रो. रामगोपाल से 2 लाख 17 हजार वोटों से पीछे रहे। वे तीसरे नंबर पर गए। प्रो. रामगोपाल बीएसपी के उम्मीदवार को 1.97 लाख वोटों से हराकर जीते। साल 2008 में नेताजी ने उन्हें फिर से राज्यसभा में भेजा। तब से लगातार प्रो. रामगोपाल राज्यसभा के सदस्य हैं। उन्होंने संसद में कई महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ सँभालीं। वर्ष 2004 में वे कृषि की संसदीय समिति के चेयरमैन रहे। 

इस बीच अग्निपरीक्षा के दौर से भी गुजरे। ‘ऑपरेशन चक्रव्यूह’ और ‘ऑपरेशन दुर्योधन’ जैसे स्टिंग ऑपरेशन टीवी चैनल पर चले। 12 सांसद अनैतिक डीलिंग करते हुए कैमरे में कैद हुए। फैसला लेने के लिए कमेटी बनाई गई। संसद की उस कमेटी में प्रो. रामगोपाल यादव भी थे। प्रोफेसर साहब का मत था कि इनकी सदस्यता तुरंत खारिज करनी चाहिए। यह संसदीय चरित्र के इम्तिहान का वक्त है। इसमें चूकना नहीं चाहिए। मगर कमेटी के बाकी सदस्य नरमी के मूड में थे। बीजेपी नेता विजय कुमार मल्होत्रा प्रोफेसर साहब के पास आए। उन्होंने सीधे कहा, “प्रोफेसर, तुम क्यों रास्ते का काँटा बन रहे हो? 12 सांसदों की गरदन काटनी पड़ेगी?” उन्होंने बताया कि लालू यादव चाहते हैं कि इन सांसदों को बख्श दिया जाए। प्रणव दा भी यही चाहते हैं। मगर प्रो. रामगोपाल यादव अड़ गए। उन्होंने कहा कि अगर 540 सांसद भी उधर हो जाएँ तो भी मैं टस-से-मस नहीं होऊँगा। मैं खिलाफ ही वोट करूँगा। लोग क्या सोचेंगे, बेईमान सांसदों को बचाने के लिए पूरी संसद एक हो गई? यह नहीं हो सकता। आखिरकार प्रोफेसर की बात मानी गई। सांसदों पर एक्शन हुआ। उनकी कुरसी गई। कबूतरबाजी के प्रकरण में भी प्रोफेसर का यही स्टैंड था कि दोषी सांसदों पर कारवाई होनी ही चाहिए। प्रो. रामगोपाल की ईमानदारी और पारदर्शिता का ही असर था कि तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ऐसी सभी कमेटियों में उन्हें अवश्य रखते थे।

प्रो. रामगोपाल राज्यसभा की एथिक्स कमेटी के भी चेयरमैन रहे हैं। वे 7 वर्षों तक स्वास्थ्य मंत्रालय की संसदीय समिति के भी चेयरमैन रहे। इस दौरान कमेटी में स्वास्थ्य विभाग से जुड़े अभूतपूर्व काम हुए। उन सारे ही कानूनों का ड्राफ्ट तैयार हुआ, जिनकी इस क्षेत्र में सख्त जरूरत थी। इंडियन मेडिकल कमीशन, होम्योपैथिक कमीशन से लेकर सरोगेसी कमीशन तक सबका खाँचा खींचा गया। खुद स्वास्थ्य मंत्री ने माना कि जरूरत के सभी कानून बेहद ही तेजी से तैयार हुए हैं। तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने प्रोफेसर को इस बात की बधाई भी दी। मेडिकल के एलाइड सेक्टर से जुड़े बिल में प्रोफेसर की अगुवाई वाली कमेटी ने इतने संशोधन किए कि सरकार को नया बिल लाना पड़ा। कमेटी की सारी सिफारिशें सरकार ने मानीं। एक ऐसी भी घटना पूर्व में हुई थी, जो अप्रत्याशित थी। नेताजी पेट्रोलियम मंत्रालय की कमेटी के चेयरमैन थे। प्रोफेसर राज्यसभा में थे। नेताजी के बाद तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष मनोहर जोशी ने उन्हें चेयरमैन बना दिया। यह अजीब स्थिति थी। ये कमेटी लोकसभा की थी और प्रोफेसर उस वक्त राज्यसभा से थे। इसके बावजूद उनकी कार्यकुशलता को सर आँखों पर रखते हुए तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष ने अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए उन्हें यह पद सौंपा।

इस संसदीय जीवन के दौरान एक पड़ाव ऐसा भी आया, जब प्रोफेसर को केंद्रीय मंत्री बनने का अवसर था। मगर उनके एक फैसले ने इतिहास बदल दिया। यह न्यूक्लियर डील का वक्त था। समाजवादी पार्टी ने इस डील में कांग्रेस का साथ दिया था। समाजवादी पार्टी की भी सरकार में सामिल होने की संभावना हो गई थी। अमर सिंह के घर पर चर्चा हुई थी कि समाजवादी पार्टी से कौन-कौन मंत्री ने नेताजी के प्रोफेसर साहब का नाम लिया। मगर प्रोफेसर साहब ने साफ मना कर दिया। उन्होंने कहा कि वे इस सरकार में कोई पद नहीं लेंगे। वे कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार में शामिल होने को तैयार नहीं थे। ये उनके राजनीतिक सिद्धांतों से मेल नहीं खाता था। ऐसे में नेताजी ने भी स्पष्ट कर दिया। उन्होंने कहा कि जब हमारे सदन के नेता ही मंत्री बनने को तैयार नहीं हैं तो फिर कोई मंत्री नहीं बनेगा। हम सरकार में शामिल नहीं होंगे। प्रोफेसर साहब के एक फैसले ने पार्टी के फैसले की दिशा बदल दी। सिद्धांतों के प्रति निष्ठा उनकी बुनियाद में है। प्रोफेसर साहब के किसी भी फैसले के पीछे का आधार यही होता है। यही उनकी नियति है। यही उनकी प्रवृत्ति है।

प्रो. रामगोपाल ने कभी भी किसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ व्यक्तिगत हमले नहीं किए हैं। उन्होंने कभी भी मर्यादा और शिष्टाचार की लक्ष्मण रेखा नहीं लाँघी है। यही उनकी सबसे बड़ी ताकत है, जिसके उनके विरोधी भी मुरीद हैं। एक बार इटावा की कचहरी में एक सार्वजनिक आयोजन में वे शिरकत कर रहे थे। उस समय यूपी की मुख्यमंत्री मायावती थीं। भाषण देते समय एक वक्ता की जुबान फिसल गई। उन्होंने बहनजी के लिए अमर्यादित शब्दों का प्रयोग करना शुरू किया। प्रो. रामगोपाल तुरंत उठ खड़े हुए। उस वक्ता को रोका और सभी को चेताया कि कोई भी न तो व्यक्तिगत हमले करेगा और न ही अपशब्दों का प्रयोग करेगा। मायावती सबकी मुख्यमंत्री हैं। वह पूरे यूपी की मुख्यमंत्री हैं। मेरी भी मुख्यमंत्री हैं। राजनीति में कुछ तो गुंजाइश होनी चाहिए। यह मैं कभी बरदाश्त नहीं करूँगा। पूरे समारोह में सन्नाटा छा गया। सभी ने उनकी बातों से सहमति जताई। यह प्रो. रामगोपाल का राजनीतिक चरित्र है। यही उनके राजनीतिक जीवन की कमाई है। प्रो. रामगोपाल के सर्वसमावेशी और सबको साथ लेकर चलने वाले राजनीतिक जीवन का एक और वाकया है, जिसका जिक्र बेहद जरूरी है। जिस साल प्रो. रामगोपाल लोकसभा में आए, उसी साल मायावती भी लोकसभा में चुनकर आईं। मायावती ने प्रोफेसर को देखते ही उनसे बेहद ही प्रसन्नता से बात की। उनके लोकसभा में आने का स्वागत किया। कुछ सपा में रहे नेता, जो बीएसपी में चले गए थे और लोकसभा में चुनकर आ गए थे। वे प्रोफेसर साहब से बात करने में कतराते थे। उन्हें लगता था कि ऐसा करने से उनका नुकसान हो जाएगा। मगर जब उन्होंने बहनजी को बेहद ही प्रसन्नता के साथ प्रोफेसर साहब से बात करते देखा तो उनकी सोच बदल गई।

प्रो. रामगोपाल का राजनीतिक जीवन शिष्टाचार, मृदुता और सिद्धांतप्रियता के सोपानों का अद्वितीय उदाहरण है। वे सच्चे मायनों में जेपी और राममनोहर लोहिया की परंपरा के वाहक हैं। उन्होंने जिस राजनीति का झंडा बुलंद किया, उसे अपने निजी जीवन में भी जीकर दिखाया। उनका सार्वजनिक जीवन इसीलिए बेदाग है, क्योंकि उनकी किसी भी आकांक्षा या फिर महत्त्वाकांक्षा को पहले उनके सिद्धांतों की अग्निपरीक्षा पास करनी होती है। यही उनके सार्वजनिक जीवन का ‘लिटमस टेस्ट’ है। यह सच्चाई ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है। 

-अखिलेश यादव.
(समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री)

राजनीति के उस पार 
संपादक : डॉ. देवीप्रसाद द्विवेदी • प्रो. पुष्पेश पंत • डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 336
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