बीते सात वर्षों में हमारे देश में जो बड़ी घटनाएँ घटीं, उन्होंने न सिर्फ देश के लोगों का, बल्कि दुनिया का ध्यान भारत की ओर खींचा है। राष्ट्रीय सुरक्षा और राजनीति से जुड़ी घटनाओं और तमाम हलचलों के दौर में शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरा हो, जिसकी बात जनसामान्य ने अपनी दैनिक वार्त्ताओं में न की हो। इन घटनाओं में दुश्मन देश की क्रूरता भी दिखी तो देश के जाँबाज वीरों की वीरता भी; शूरवीरों के बलिदान ने देश को झकझोरा भी और बदले में हुई काररवाई ने गर्व करने के क्षण भी दिए।
पुलवामा में हमारी सेना के 40 जवानों पर हुए हमले ने देश को झकझोरकर रख दिया था। विंग कमांडर अभिनंदन की वापसी के लिए हर देशवासी प्रार्थना कर रहा था। देश की सीमाओं पर आए दिन पाकिस्तान की ओर से कोई कायराना हरकत की जाती थी और भारत की ओर से उसका कड़ा जवाब भी बराबर दिया जाता रहा है।
पुलवामा और उसके इर्द-गिर्द हुई घटनाओं के बाद भारत ने जवाबी काररवाई में बालाकोट में आतंकियों के बेस को नेस्तनाबूत कर दिया और उसके बाद जम्मू-कश्मीर को संवैधानिक राज्य का दर्जा देते हुए धारा 370 को हटाया। ये सभी वे बड़ी घटनाएँ थीं जिनकी उम्मीद देशवासियों को भारत सरकार से थी।
ऐसी ही तमाम घटनाओं का संकलन है ‘पुलवामा अटैक’, जिसे विकास त्रिवेदी और स्मिता अग्रवाल ने वास्तविक घटनाओं को काल्पनिक आधार पर प्रस्तुत किया है।
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अलार्म पहले ही तीन बार बजकर बंद हो चुका था। मैं सो नहीं रहा था, लेकिन आलस के मारे बिस्तर नहीं छोड़ पा रहा था। सुबह के 7 बज चुके थे और इसका मतलब था कि मॉम किसी भी क्षण मेरे कमरे में आ घुसने वाली थीं। एक-एक क्षण बीत रहा था। मॉम का मेरे कमरे में आना पुरानी फिल्मों के युद्ध के सीन से कम नहीं होता था। मेरे दिमाग में पहले ही उनकी तसवीर आ-जा रही थी। वे लड़ाकू सैनिक की पोशाक पहने, उसी रंग का हेलमेट लगाए और डंडे को मेरी ओर तानते हुए बढ़ रही हैं। गुस्से से उनका चेहरा लाल है और मुँह खुला हुआ है। अपने फेफड़ों की पूरी ताकत लगाकर वे चीख रही हैं और अपने रास्ते में आनेवाली हर चीज को उठा-उठाकर फेंक रही हैं। मेरे कानों में उनकी जानी-पहचानी आवाज जोर-जोर से बजने लगी। आँखों में आँखें डालकर बात करने से पहले इस तरह से चिल्लाना उनकी रणनीति का हिस्सा था। वे मुकाबले से पहले ही अपने विरोधी के दिलो-दिमाग में डर पैदा कर देना चाहती थीं। ‘हे भगवान्! मेरे साथ ही ऐसा क्यों?’
“अर्जुन, तुम एकदम नकारा लड़के हो। किसी काम की औलाद नहीं हो तुम! काश, मैं दूसरे बच्चे के लिए कोशिश ही नहीं करती!” और भी न जाने क्या-क्या।
इस तरह के ताने-तिशने सुनकर किसी भी समझदार इनसान का दिमागी संतुलन बिगड़ सकता है। लेकिन हमारा नहीं-बच्चों का नहीं। जैसे समय बीतने के साथ बैक्टीरिया एंटीबॉयोटिक का आदी हो जाता है, उसी प्रकार हमें भी यह बेइज्जती सहने की आदत पड़ चुकी थी। यह उनके रोजमर्रा के काम में शामिल था कि वे हर सुबह पूरे दो मिनट तक मेरे बिस्तर के सिरहाने पर खड़ी रहतीं और चेतावनी देती जातीं, “मैं पाँच मिनट में लौटकर आती हूँ। तब तक तुम बिस्तर से उठ जाना।” वह तीन बार यही बात दोहरातीं और उसके बाद भी सफलता नहीं मिलती तो अपना आखिरी हथियार आजमातीं।
अब वे मेरे बिस्तर के पास खड़ी हैं और तीन बार चेतावनी देने का काम खत्म हो चुका है। अब उनके चेहरे पर गुस्से की जगह एक कुटिल मुसकान ने ले ली है। यह तो वे भी जानती हैं कि यह आखिरी वार खाली नहीं जाएगा। इसे वे तभी निकालती थीं, जब वे मुझसे और मेरे भाई से एकदम पक जाती थीं। इसके बाद बड़ी ही कुटिल मुसकान के साथ वे कुछ शब्द बोलतीं, जो उनके कानों को तो संगीत जैसे सुनाई देते, लेकिन निश्चित तौर पर पूरी दुनिया के बच्चों के लिए वे किसी भयानक और डरावनी धुन की तरह लगते।
“अभी तुम्हारे डैड आ रहे हैं तुम्हें जगाने।” उन्होंने इतना कहा और कमरे से निकल गईं। उनका काम खत्म हो चुका था, इसलिए वे काफी शांत और तनाव-रहित लग रही थीं। उन्होंने अपनी समस्या किसी और के मत्थे मढ़ दी थी, जो कि मेरे लिए दुनिया के सबसे अधिक गुस्सैल प्राणी थे-डैड। इस बीच डैड बड़ी सावधानी से यह सारा एपिसोड सुन रहे थे और साथ ही माहौल को तौलने में लगे थे। वह एक एन.एफ.सी. लड़ाकू की तरह मोरचा सँभालने की तैयारी में थे, इसलिए बड़ी ही सावधानी के साथ अपने प्रतिद्वंद्वी की हर चाल को देख रहे थे। हर गुजरते सेकंड के साथ उनके भीतर का जोश और आक्रामकता बढ़ रही थी। मन-ही-मन में वे प्रार्थना कर रहे थे कि मैं मॉम की आखिरी चेतावनी के बाद भी सोया रहूँ, ताकि उन्हें मुझसे अपने पिछले सारे अधूरे हिसाब-किताब को पूरा करने का मौका मिल सके, ताकि वे मेरी पिछली सभी लेट नाइट पार्टियों, लड़कियों, फोन पर घंटों बिताने और स्कूल की शिकायतों का गुस्सा निकाल सकें। सही कहूँ तो वे हर बात का बदला लेने की ताक में थे।
इस अगले महासंग्राम को टालने का केवल एक ही रास्ता था। मेरी मुर्दे जैसी देह में अचानक से जान आ गई और मैंने फट से अपनी आँखें खोल दीं। इस एकतरफा युद्ध में यही होता था कि मेरे हाथ और जबान बँध जाती थी और मैं ऐसा किसी भी कीमत पर नहीं होने देना चाहता था। अपने अनुभव से मैं इतना तो सीख ही चुका था कि ऐसे हालात में डैड से सीधे पंगा न लेना ही बेहतर होता है; क्योंकि ‘डैड’ नाम का यह बम कई बार बिना किसी पूर्व चेतावनी या बिना बटन दबाए ही फट जाता है। बिस्तर से निकलना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है और बच्चों के कंधों पर तो वैसे ही इतनी जिम्मेदारियों का बोझ होता है। सुबह स्कूल, फिर दोपहर बाद ट्यूशन, शाम को क्रिकेट और रात में टी.वी.। इतनी सारी व्यस्तताओं के बीच हमें कुछ समय फेसबुक स्टेटस अपडेट करने के लिए चाहिए, कुछ समय पढ़ने के लिए और कुछ समय फोन पर बाजार में एकदम नए आए जोक्स साझा करने के लिए। इतनी सारी जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते समय पर सो पाना एकदम असंभव होता है। लेकिन एक बार बिस्तर छोड़ने के बाद मैं आमतौर पर काफी अच्छा काम करता हूँ। मैंने तीन बार अलार्म की गरदन दबा दी थी और उससे भी बड़ी बात यह थी कि मॉम की चेतावनी को भी तीन बार अनदेखा कर दिया था। यह बात आप तो जानते ही हैं कि किसे नागवार गुजरी होगी। वे इस मौके को अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहती थीं। एक लंबा सा भाषण, थोड़ी सी डाँट और डैड से भी फटकार बेहतर रहेगी। ऐसा लग रहा था कि वे इस आइडिया को आजमाना चाहती थीं।
“कम-से-कम आज तो अपने आप समय से उठ जाते।” मॉम ने नाटकीय अंदाज में कहा। हालाँकि, उन्हें ऐक्टिंग आती नहीं है। उन्होंने डैड की ओर देखा, आँखों में यह उम्मीद नजर आ रही थी कि इस बार तो अर्जुन शर्मा, बच्चू, तुम गए काम से। वे किसी जादूगर की तरह नजर आ रही थीं-एकदम एक्शन में; शांत, लेकिन तनाव में भी। लग रहा था कि अभी अगले ही क्षण वे कोई नया जादू दिखाने जा रही हैं और सोच रही हैं कि दर्शकों को मूर्ख बना देंगी और वे तालियाँ बजाना शुरू कर देंगे, जो कि वे चाहती थीं...
और यह चाल काम कर गई। डैड ने हाथ में पकड़ा हुआ न्यूजपेपर नीचे रखा और घूरकर मुझे देखा। कुरसी पर वह आगे की ओर झुके और अगले कदम की तैयारी करने लगे। उनका अगला कदम यही होगा कि वे मुझे लंबा-चौड़ा भाषण देंगे, बेइज्जत करेंगे और साथ ही बोर भी।
मॉम घर का जो भी काम कर रही थीं, उन्होंने वह छोड़ा और जल्दी से एक कुरसी खींचकर उस पर बैठ गईं। एक हाथ में पॉपकॉर्न और दूसरे हाथ में चाय का कप, मानो खुद को किसी मजेदार सीन को देखने के लिए तैयार कर रही हों।
इस ड्रामे का सबसे दुःखद हिस्सा वह होता था, जब वे आखिर में एक बयान जारी करते हुए कहतीं, “बेटा, मेरा यकीन करो, ये सब भाषण और जिसे तुम बेइज्जती कहते हो, यह सब तुम्हारी ही भलाई के लिए है।” और “भले ही हर रोज तुम्हें ये सब जली-कटी बातें सुननी पड़ती हैं, अपनी बेइज्जती बरदाश्त करनी पड़ती है; लेकिन हमें पक्का भरोसा है कि एक दिन तुम बहुत बड़े आदमी बनोगे।”
मैंने अपने चेहरे पर थोड़ी मासूमियत लाने की कोशिश की। डैड एक क्षण को रुके और फिर से कुरसी में धँस गए तथा न्यूजपेपर उठाकर जहाँ छोड़ा था, वहीं से दोबारा पढ़ने लगे। इस बात की तो उम्मीद ही नहीं थी। इस धरती पर मुझ जैसे प्राणी को आए 18 साल हो चुके थे और यह पहला ऐसा मौका था, जहाँ डैड ने ‘जाने भी दो यारों’ जैसे अंदाज में हथियार डाल दिए थे। ऐसा लगा, जैसे उनके दिमाग में कोई विचार आया और उन्होंने तुरंत फैसला किया-आज के दिन यह सब नहीं। मेरे दिमाग में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा कि उन्होंने आज कैसे मुझे छोड़ दिया। इसका जरूर कुछ-न-कुछ कनेक्शन मेरे आज आनेवाले आई.आई.टी. के रिजल्ट से रहा होगा। मॉम आज के दिन भी पिताजी को उकसाने का मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहती थीं, लेकिन पिताजी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया और शांत हो बैठे रहे। इसके दो कारण हो सकते थे-एक, कहीं-न-कहीं दिल की गहराइयों में डैड को अभी भी यह यकीन था कि मैं आई.आई.टी. परीक्षा में पास हो जाऊँगा (हालाँकि, अपनी हालिया रिपोर्टों से मेरे लिए यह यकीन करना मुश्किल लग रहा था); या दो, और जो कि मुझे ज्यादा सही लग रहा था, डैड ने यह फैसला कर लिया था कि वे मुझे कुछ और क्षण देंगे और उसके बाद वे एक साथ मिलकर वह आरती उतारेंगे कि मुझे नानी याद आ जाएगी। उन्होंने सोचा होगा, ‘क्यों दो-दो बार एनर्जी बेकार करना।’ उस समय मैंने जो महसूस किया, उसे राहत की साँस लेना कहना उचित नहीं होगा। उस समय ऐसा लगा, मानो बंदूक की गोली बस, मेरे करीब से निकल गई थी। मुझे अपना आत्मविश्वास लौटता-सा महसूस हुआ। मैंने मॉम की ओर देखा। मेरी आँखें उन्हें चुनौती दे रही थीं-आओ, देखते हैं, आप में कितना दम है! और कौन-कौन से तीर हैं आपके तरकश में? मॉम की आँखों में ऐसी चमक थी, जैसी पाँच साल के किसी बच्चे की आँखों में टॉम एंड जेरी शो देखते हुए होती है। लेकिन कुछ ही सेकंड में उनकी आँखों का भाव जेल में बंद 25 साल के किसी कैदी के चेहरे के भावों में बदल गया।
मुझे थोड़ा-बहुत आभास हो रहा था कि आज मॉम व डैड और दिनों की तरह बरताव नहीं कर रहे हैं। अगर बच्चा आई.आई.टी. की परीक्षा पास कर जाए तो माँ-बाप के लिए वह दिन डब्ल्यू.डब्ल्यू.ई. रॉयल रंबल जीतने जैसा होता है। इससे उन्हें वह प्रमाण-पत्र मिल जाता है कि उन्होंने अपने बच्चे की परवरिश बहुत बेहतर तरीके से की। भले ही उन्होंने अपने बच्चों को पूरा-पूरा दिन टी.वी. देखने की छूट दे रखी हो और जी भरकर लैपटॉप का इस्तेमाल करने दिया हो। भले ही उन्होंने अपने बच्चे से यह वादा लिया हो कि जब हम दोस्तों के साथ बाहर ड्रिंक कर रहे हों तो हमें परेशान न करे और भले ही वे कितनी ही बार इस बात की शिकायत करते पाए गए हों कि उन्होंने अपने बच्चों को पालने-पोसने में कितनी कुरबानियाँ दी हैं।
स्कॉटलैंड की सिंगल माल्ट व्हिस्की का स्वाद, लुइस वॉटन का महँगा हैंड बैग, वेगास का बेचलर ट्रिप, बेंगलुरु की खाली सड़कें, लॉटरी जीतना और पड़ोसी की खूबसूरत बीवी का आपको देखकर मुसकराना—इनमें से कोई भी चीज आई.आई.टी. में आपके बच्चे के दाखिले के गौरव भरे क्षणों का मुकाबला नहीं कर सकती।
एक बच्चे के रूप में जब आप डगमगाते पैरों से आगे बढ़ रहे होते हैं, तभी आपको अपनी क्षमताओं का पता चलने लगता है। मेरा यकीन करिए, बहुत से बच्चों को पहले ही पता था कि वे परीक्षा में पास नहीं हो पाएँगे। चूँकि वे अपने माँ-बाप का दिल नहीं तोड़ना चाहते थे, इसलिए उन्होंने इसे वक्त पर छोड़ दिया था। मैं भी उन्हीं में से एक था। मुझे बहुत सी समस्याएँ समझ नहीं आती थीं तो मैं उन्हें सुलझाना ही छोड़ देता था। मैंने अपनी तरह से अच्छा करने की कोशिश की थी; लेकिन ज्यादातर समय यही होता था कि मेरी कोशिशों का कोई नतीजा नहीं निकलता था। आई.आई.टी. का यह भूत हमेशा मेरे पीछे पड़ा रहता था। हो सकता था कि मॉम-डैड फिर से कोशिश करने की कोई बात शुरू करना चाहते हों। लेकिन मेरी तो कुछ और ही योजना थी।
इस समय बेहतर यही था कि मैं अपनी बाइक उठाकर बाहर निकल जाऊँ। मैंने भी यह सुना था कि आई.आई.टी. में दाखिला पाने की चाहत रखनेवाले उम्मीदवार बड़ी बेचैनी में थे। सोशल मीडिया में भी तमाम तरह की खबरें चल रही थीं, जिनमें से अधिकतर झूठी थीं। मेरे स्कूल में से केवल हम दो जने थे, जो प्रारंभिक परीक्षा में सफल रहे थे और उसमें भी हम दोनों की काफी कम रैंक थी। जब आप अपने दोस्तों के गैंग में अच्छे छात्र के रूप में देखे जाते हैं तो जिंदगी थोड़ी आसान हो जाती है। उनके माँ-बाप की नजरों में आप स्टार होते हैं। आप जो मानक तय कर देते हैं, बाकी बच्चों को उनके माँ-बाप उसी पैमाने पर मापने लग जाते हैं।
पी.टी.ए. मीटिंग को लेकर आपके दोस्तों की जान निकल रही होती है और एक आप होते हैं, जो उनका इंतजार करते हैं। सच्चाई तो केवल आपको पता होती है कि आप उतने भी अच्छे नहीं थे और आपके दोस्त उतने भी बुरे नहीं थे। आप दूसरे अच्छे स्कूलों के होनहार छात्रों से अपनी तुलना करो तो पता चलता है कि बेटा, तुम कुछ भी नहीं हो। भीतर-ही-भीतर आप भगवान् का धन्यवाद करते हैं कि आपका दाखिला उन स्कूलों में नहीं हुआ। साइबर कैफे के सामने दोस्त से मिलने का प्रोग्राम था। हम दोनों ने साथ जाकर रिजल्ट देखने का फैसला किया था। यह साल 2010 की बात है और उस समय हर कोई अपने फोन पर इंटरनेट इस्तेमाल कर सकता था। लेकिन अर्णव ने बीते जमाने की तरह ही रिजल्ट देखने का फैसला किया था। उसका अंधविश्वास था कि इस साइबर कैफे में रिजल्ट देखने से किस्मत हमारा साथ देगी।
मैं उसके लिए बहुत ही बेचैन था। वह उन छात्रों में से था, जो पाँच साल की उम्र में ही अपनी जिंदगी की योजना बना लेते हैं। हर रोज, वह हमें बताता था कि हम अपनी जिंदगी में क्या-क्या कर सकते हैं। वह हमें ऐसी-ऐसी बातें बताता था, जिसका हमें कोई ओर-छोर तक पता नहीं होता था।
वह विदेश जाने, उच्च शिक्षा हासिल करने, स्टार्टअप कंपनी खड़ी करने जैसी बातें बताता था। वह पिछले चार साल से परीक्षा की तैयारी कर रहा था और हर जाने-माने कोचिंग इंस्टीट्यूट से उसने कोचिंग ली थी। उसने आई.आई.टी. के कुछ सवाल हमसे पूछे थे और हम उल्लुओं की तरह इधर-उधर देख रहे थे।
मैं अपनी बाइक पर बैठा उसका इंतजार कर रहा था। मैंने देखा कि वह मेरी तरफ ही चला आ रहा है। उसकी चाल मुझे किसी फिल्म के हीरो जैसी लग रही थी, जो एक-एक कदम अपनी मंजिल की ओर बढ़ाता है। उससे मुकाबला करें तो मेरे गैंग के मेरे हर दोस्त की चाल ऐसी थी कि जैसे कोई चौराहे पर खड़ा होकर फैसला नहीं कर पा रहा हो कि जाना किधर है या वहीं चलें, जहाँ कदम ले चलें।
“सब ठीक है, शर्माजी?” अर्णव ने मजाक किया।
“हाँ।” मैंने चेहरे पर मुसकान लाते हुए कहा।
“अगर हम दोनों का हो गया तो हम एक ही आई.आई.टी. में जाएँगे। कितना मजा आएगा!”
“एकदम सही बात। मेरे हिसाब से, दिल्ली सही रहेगा। इससे बाकी दोस्तों से जब मन करेगा, तब मिल भी सकेंगे।”
“दोस्त, मैं आई.आई.टी. के बारे में बात कर रहा हूँ और एक तुम हो, जो फिसड्डी दोस्तों की बात कर रहे हो।” उसने चेहरे पर बड़ी सी मुसकान लाते हुए कहा।
“देखो, सिर्फ उन जैसे फिसड्डी ही हम जैसे फिसड्डियों के साथ घूम सकते हैं।” मैंने भी तुरंत जवाब दिया।
“हाँ, यहाँ तो तुम्हारी बात सही है।” उसने मेरी बात से सहमति जताते हुए मुसकराकर जवाब दिया।
“नर्वस?” कुछ क्षण बाद मैंने उससे पूछा।
“हाँ, बहुत ज्यादा। मैंने इसकी तैयारी में चार साल लगाए हैं।”
“चार साल! यार, तुम आदमी हो या घनचक्कर!” मैंने उसको छेड़ा।
“तुमने?” उसका सवाल था।
“यार, मैं तो सिर्फ यह कोशिश कर रहा हूँ कि मॉम-डैड के सामने मामले से कैसे निपटना है। मुझे तो लगता है कि अच्छा-खासा रोना-धोना मचाने से बात कुछ आसान हो सकती है। वे अपनी सारी निराशा भूलकर मुझे तसल्ली देने में लग जाएँगे। लेकिन मैं रोऊँगा कैसे? तुम एक काम कर सकते हो? घर में मेरे घुसने से पहले मुझे एक जोर का चाँटा मार देना।”
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं! तुम्हारे पिछवाड़े पर एक लात मारूँ तो कैसा रहेगा?” उसने शैतानी हँसी हँसते हुए कहा।
कैफे के बाहर लंबी लाइन लगी थी। शायद एक हम ही अंधविश्वासी नहीं थे। ऐसा माना जाता था कि नोएडा के इस कैफे ने सबसे ज्यादा आई.आई.टी. वाले पैदा किए हैं और इसीलिए भीड़ थी।
“चल-चल, जल्दी से लाइन में लग जाते हैं।” उसने बच्चों जैसे उतावलेपन के साथ कहा।
मुझे कोई जल्दी नहीं थी, लेकिन उसकी बेसब्री देखकर मैंने भी लाइन में लगने का फैसला कर लिया।
आज का दिन बहुत खास था। और आज के दिन वहाँ लाइन में तरह-तरह के लोग खड़े थे, जिन्हें देखकर मजा आ रहा था। और अगर आप खुद दौड़ में न हों तो यह मजा दोगुना हो जाता है। कुछ ऐसे भी प्राणी थे, जिनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं, मानो अगर पास नहीं हुए तो जिंदगी इसी क्षण खत्म हो जाएगी। ऐसे छात्रों के साथ उनके माँ-बाप के अलावा चार-पाँच रिश्तेदार भी वहाँ खड़े थे। सब थोड़ी-थोड़ी देर में आसमान की ओर देखते, मन-ही-मन कुछ बुदबुदाते, मानो परमात्मा से कह रहे हों कि भगवान्! प्लीज, हमारे बच्चे की सुन लेना। बच्चों के मुकाबले उनके माँ-बाप कुछ ज्यादा ही हैरान-परेशान दिख रहे थे।
इसके बाद कुछ ऐसे भी थे, जिन्हें सौ फीसदी यकीन था कि उनका तो बढ़िया रैंक आना-ही-आना है। इनमें से जो फेल होंगे, वे निश्चित ही परीक्षक को कोसेंगे या शिक्षा-प्रणाली को ही सवालों के कठघरे में खड़ा कर देंगे और उसे सुधारने के तरीके बताने लगेंगे। उनके हिसाब से शिक्षा-प्रणाली में ऐसे सुधार की जरूरत है, ताकि उनके बच्चों जैसे होनहार बच्चे इसे पास कर सकें। ऐसे बंदे अकेले ही आए थे और सुपर कूल लग रहे थे। उनके चेहरे पर न कोई परेशानी थी और न ही कोई उलझन। था तो केवल एक आत्मविश्वास कि हमारा ही नंबर आना है।
ऐसे भी कम नहीं थे, जो फेल होने की कल्पना से ही आतंकित थे; लेकिन ऐसा दिखने की कोशिश में मरे जा रहे थे, जैसे उन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता। कुछ बार-बार अपनी घड़ियों में समय देख रहे थे। हर बार घड़ी में समय देखते और चेहरे पर फीकी मुसकान ले आते। मन-ही-मन मना रहे थे कि किसी तरह से यह वक्त जल्दी-से-जल्दी कट जाए।
और हम जैसे भी थे। भीड़ में हमारे जैसे लोग ईमानदारी से इंतजार कर रहे थे कि यह संकट खत्म हो, ताकि हम अपने माँ-बाप की उम्मीदों के बोझ को उतारकर आगे का रास्ता देखें। हमें पहचानना कोई मुश्किल काम नहीं था। हमारे हाव-भाव और दिनों जैसे ही थे—मस्त, शांत, मनमौजी और दोस्तों की सोहबत का लुत्फ उठानेवाले।
हमें इस बात की ज्यादा चिंता थी कि इसके बाद कहाँ जाना है; गम गलत करने के लिए कहीं बैठकर बीयर पिएँगे या उस समय पीने के लिए जो कुछ भी मिलेगा, उसी से काम चला लिया जाएगा, चाय ही सही। इस सबके बीच हम यह भी योजना बना रहे थे कि फेल होने पर माँ-बाप के सामने कैसे नाटक करना है, ताकि ज्यादा-से-ज्यादा उसका फायदा उठा सकें। अगर वे हमारे रोने से पिघल गए तो क्या-क्या गिफ्ट मिल सकते हैं, इसकी कल्पना भी दिमाग में साथ-साथ चल रही थी। अगर बच्चे का रोना उन्हें भी रुला गया तो वे हमें रात के 10 बजे के बाद भी दोस्तों के साथ बाहर जाने की मंजूरी दे सकते हैं। हम लोगों को रात के 10 बजे के बाद घर से बाहर रहने की अनुमति नहीं थी। अचानक से हमारे आसपास कुछ हलचल-सी हुई। लग रहा था कि रिजल्ट आ गया है। लोग जगह नहीं होने के बावजूद लाइन में आगे बढ़ने की कोशिश करने लगे। कैफे का मालिक हर 15 मिनट में बाहर निकलकर लाइन में खड़े छात्रों पर चिल्ला रहा था, “लाइन में खड़े रहो, इतना शोर मत करो।” वह ऐसे बरताव कर रहा था कि आई.आई.टी. में दाखिला होना या नहीं होना रिजल्ट के बजाय उसके हाथ में है और वह जिसे चाहेगा, वही पास होगा।
हमसे आगे लाइन में लगे छात्र बाहर निकलने शुरू हो गए थे। उनके चेहरे लटके हुए थे। ऐसा लग रहा था कि इस बार साइबर कैफे का जादू काम नहीं कर रहा है। खुशी की चिल्लाहटें सुनाई नहीं दे रही थीं। कोई जश्न नहीं था, कोई डांस नहीं था और न ही कोई ऐसा माँ-बाप दिखा, जिसकी आँखों में खुशी के आँसू हों।
“अभी तक एक का भी नहीं हुआ है। हो क्या रहा है?” अर्णव ने सवाल किया। उसकी आवाज में चिंता झलक रही थी।
“मुझे तो कतई कुछ भी समझ नहीं आ रहा है। तुम्हारे हिसाब से, तुम्हारा रिजल्ट देखकर बाहर निकलने तक हमें कितना वक्त लगेगा?” मैंने लापरवाही से जवाब दिया।
“तुम्हारे रिजल्ट से तुम्हारा क्या मतलब है?” उसका सवाल था।
“मुझे अपना तो पता ही है।” मेरे चेहरे पर शैतानवाली मुसकराहट थी।
“यह हमारी जिंदगी का सबसे बड़ा दिन हो सकता है और तुम्हें भागने की जल्दी पड़ी है।”
“देखो दोस्त, यह तुम्हारी जिंदगी का सबसे बड़ा दिन हो सकता है, मेरे लिए यह स्वतंत्रता दिवस है।”
“लाइन की रफ्तार देखकर तो लगता है, हमें भीतर घुसने में और 45 मिनट लगेंगे।”
अर्णव फिर से अपने खयालों में डूब गया। शायद वह अपने अगले कदम की तैयारी कर रहा था। शायद वह सोच रहा होगा कि आई.आई.टी. में घुसते ही वह पहले ही सेमेस्टर में अपना कोई स्टार्टअप शुरू कर देगा। यह स्टार्टअप सफल हो जाएगा और वह बहुत लोकप्रिय हो जाएगा, या फिर और कुछ ऐसा ही तोड आइडिया उसके दिमाग में चल रहा होगा।
लाइन जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, वह और ज्यादा नर्वस हो रहा था। मैं उसके आसपास के माहौल में तनाव महसूस कर सकता था। उसके हाथों, उसकी आँखों, उसके शरीर के हाव-भाव-यानी कि हर बात से बेचैनी साफ झलक रही थी।
अपने दोस्तों का मजाक उड़ाना मेरी खासियत रही है। यह गुण मैंने अपनी दादी से विरासत में पाया है। मुझे बहुत अच्छी तरह से आता है कि किसी के दुःख को मजाक का विषय कैसे बनाया जाए और मैं अपने हाथों से इस मौके को जाने नहीं देना चाहता था।
“तो इसके बाद हम पीने के लिए कहाँ जाएँगे?” मैंने ऐसे ही लापरवाह अंदाज में इधर-उधर देखते हुए कहा।
“मुझे नहीं पता, यार।” उसकी आवाज में झुँझलाहट थी।
“और डिनर का क्या सोचा है?” मैं उसे इतनी जल्दी हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। लेकिन तब तक वह मुझसे पक चुका था।
“अर्जुन, क्या इस समय तुम सीरियसली ये बातें कर रहे हो? मुझे रिजल्ट के अलावा और कुछ नहीं सूझ रहा है। आज यहाँ जो भी होगा, उससे मेरी जिंदगी जुड़ी है। मेरा कहने का मतलब है कि आई.आई.टी. में मेरे दाखिले पर मेरा बहुत कुछ दाँव पर लगा है। मेरा पूरा परिवार फोन के पास बैठा होगा यह खबर सुनने के लिए और यहाँ तुम्हें मजाक सूझ रहा है!”
उसकी आवाज में गुस्सा, बेचैनी और परेशानी थी।
मुझे समझ में आ गया था कि अब पीछे हटने का सही समय है। मैं अब उस स्टेज पर जा चुका था, जहाँ कोई भी सही-सही यह नहीं बता सकता कि उसका दोस्त उसके मजाक को अब कैसे लेगा-क्या वह तुमसे बोलना बंद कर देगा या तुम्हारे सिर पर हथौड़ा बजाएगा? इसलिए मैंने चुप रहने का फैसला किया-कम-से-कम रिजल्ट आने तक।
आखिरकार, हम कंप्यूटर के सामने बैठे थे। अर्णव ने अपना रोल नंबर टाइप करने की कोशिश की, लेकिन उसके हाथ काँप रहे थे। एकाध बार कोशिश करने के बाद उसने मुझसे रोल नंबर टाइप करने को कहा। मैं खुशी-खुशी तैयार हो गया। मैंने उसका रोल नंबर टाइप किया और एंटर का बटन दबा दिया। कुछ सेकंड बीतने के बाद स्क्रीन पर उसका रिजल्ट चमक रहा था। मुझे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ और न ही अर्णव को! वह फेल हो गया था।
अर्णव कुरसी पर धड़ाम से बैठ गया। और पहली बार मुझे महसूस हुआ कि यह रिजल्ट उसके लिए क्या मायने रखता था। मैंने अपना हाथ उसके कंधे पर रखा और तसल्ली देने की कोशिश की। अपने आप को सँभालने में उसे कुछ क्षण लगे। उसने अपने रिजल्ट का प्रिंट लिया।
“दोस्त, तुम्हें अपने रिजल्ट का भी तो प्रिंट लेना है।” अर्णव ने सुझाव दिया। मैंने ‘हाँ’ में अपना सिर हिलाया। अर्णव ने मेरा रोल नंबर टाइप किया। कुछ ही सेकंड बाद रिजल्ट स्क्रीन पर था। हम दोनों को जैसे साँप सूँघ गया।
लग रहा था कि कयामत का दिन आज ही है। अर्णव ने मेरी ओर देखा और शैतानी भरी मुसकराहट के साथ बोला, “आज जाम कहाँ छलकेंगे? मेरे दोस्त, तुमने आई.आई.टी. क्रैक कर लिया है!”
पुलवामा अटैक
लेखक : विकास त्रिवेदी और स्मिता अग्रवाल
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 168
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