झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई भारतवर्ष के सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नेत्री थीं। झाँसी के कण-कण में रानी लक्ष्मीबाई का त्याग और शौर्य विद्यमान है। यद्यपि बुंदेलखंड में कई वीरांगनाएँ हुईं पर उनमें लक्ष्मीबाई आज भी भारतीय आकाश में नक्षत्र की भाँति देदीप्यमान हैं। उन्होंने उफनती बेतवा नदी को घोड़े पर पार करके, पार्श्ववर्ती राज्य ओरछा को पराजित कर, अंग्रेज लेफ्टनेंट डॉकर को घायल करके, सिंधिया के ग्वालियर पर विजय प्राप्त कर तथा युद्धों में अपनी तलवार से शत्रु के सैकड़ों सैनिकों को मारकर तथा घायल करके अपने अद्वतीय रण-पराक्रम तथा रणनीतिक कौशल को स्थापित किया जो आज भी प्रासंगिक हैं। उनकी सेना में सभी जातियों, धर्मों और कई देशों के सैनिकों तथा सेनानायकों को उनकी योग्यता के आधार पर शामिल किया गया। साथ-साथ उन्होंने स्थानीय महिलाओं को सैन्य रूप में संगठित करके नारी-शक्ति को बुलंद किया। उनका प्रशासन पूर्णतः विकेंद्रीकृत था। झाँसी राज्य की समृद्धि तथा राजकोषीय आय का उपयोग उन्होंने सन् 1857 की क्रांति के पृष्ठपोषण में किया।
विश्व इतिहास में लक्ष्मीबाई सैन्य नेत्रियों में अग्रणी हैं। ऐसी विश्वनेत्री का व्यक्तित्व एवं कृतित्व भारत की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने हेतु भारतीयों के लिए अजस्र प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक हैं।
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मेरा जन्म झाँसी की माटी में हुआ। यद्यपि मेरा अधिकांश समय झाँसी के बाहर ही व्यतीत हुआ, पर जन्मभूमि की सौंधी माटी मेरी रग-रग में समाई हुई है। इसी माटी में समाई हुईं-‘झाँसी की वीरांगना’, ‘रानी लक्ष्मीबाई की वीरता’ और ‘शौर्य की कहानियाँ’। मैंने निश्चय किया कि मैं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानी को इतिहास के झरोखे में जनमानस के सामने यथार्थ रूप में रखकर अपनी जन्मभूमि के प्रति कुछ ऋण-अदायगी करूँगा।
झाँसी बुंदेलखंड का केंद्र है। भारत की हृदयस्थली बुंदेलखंड : धरती वीर प्रसूता है। यहाँ असि और मसि की प्राचीन परंपरा है, जिसमें शौर्य एवं बलिदान के साथ वैचारिक उद्भावना का अप्रतिम प्रवाह दृष्टिगोचर होता है। बुंदेलखंड की भूमि नारी स्वत्व, स्वाभिमान और स्वतंत्रता के लिए अभिज्ञेय है। आज संपूर्ण विश्व में नारी-स्वतंत्रता का प्रकटीकरण है। बुंदेलखंड का इतिहास नारी-स्वातंत्र्य और स्वायत्तता से बढ़कर उनके द्वारा समाज का सक्षम-नेतृत्व तथा समाज-कल्याण से भरा पड़ा है, जो विश्व-इतिहास में दीप-स्तंभ की भाँति है।
झाँसी के पार्श्ववर्ती क्षेत्रों में अद्वितीय वीर आल्हा-ऊदल की मुँहबोली बहन चंद्रावली ने चामुण्य राय को अपनी देह से हाथ नहीं लगाने दिया। रतनगढ़ की वीर ललनाओं ने मांडुला के नेतृत्व में अलाउद्दीन खिजली के नापाक इरादों को पूर्ण नहीं होने दिया। केशर दे ने समस्त नारी-शक्ति को एकत्रित करके उनके साथ अपने खंगार वंश के गढ़कुंडार किले की रक्षा में आत्म-बलिदान किया। मणिमाला ने युद्ध में भाग लेकर तथा बाद में आत्मदाह करके चंदेरी का गर्व ऊँचा किया। कुशल एवं लोकप्रिय शासिका रानी दुर्गावती ने अकबर जैसे शक्तिशाली दिल्ली के बादशाह की सेना से युद्ध किया। ओरछा की प्रवीण राय ने अकबर के सामने जाकर उसकी कामुक इच्छा पर विजय प्राप्त की। सारंधा का शौर्य तथा वीरता की कहानी जन-जन के मुँह पर है। रानी लक्ष्मीबाई की समकालीन शीला देवी ने झाँसी के पास चित्रकूट-बाँदा के क्षेत्र में अंग्रेजों द्वारा आदिवासियों की जमीनें छीनने के विरुद्ध नारी-सेना संगठित की। झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई के आह्वान पर उनकी दुर्गावाहिनी का नेतृत्व करके अदम्य साहस एवं बलिदान का आदर्श प्रस्तुत किया। इन वीरांगनाओं का इतिहास झाँसी की महान् रानी मर्दानी के भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (सन् 1857-58) में योगदान के बिना अधूरा है, जो आज भी विश्व इतिहास के आकाश में देदीप्यमान नक्षत्र की भाँति जगमगा रहा है।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के कथानक से मेरा भावनात्मक लगाव के साथ-साथ उनके रूप में मुझे उपन्यास की एक ऐसी नायिका प्राप्त हो गई, जो देशप्रेम से लबालब है, वीरता और त्याग जिसकी रग-रग में व्याप्त है, जो एक कुशल और लोकप्रिय नेत्री है तथा जो बिना धर्म, नस्ल, मूलवंश, जाति, जन्मस्थान या लिंग भेदभाव के अपने शासन और सेना में योग्य व्यक्तियों को शामिल करती है। फलस्वरूप बाहरी होने पर भी झाँसी की जनता उनसे एकाकार हो गई और वह भी झाँसी से एकाकार हो गईं।
इसलिए मैंने इस उपन्यास का शीर्षक ‘झाँसी की वीरांगना’ रखा। लक्ष्मीबाई झाँसी की रानी तथा स्वतंत्र शासिका अल्प समय ही रहीं, पर वीरता, साहस तथा देशप्रेम उनके व्यक्तित्व में बचपन से ही ठसाठस भरा था। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व झाँसी राज्य के बिना भी देदीप्यमान रह सकता है। इसके अतिरिक्त मैंने उनके जीवन के विभिन्न आयामों से उनकी प्रशासनिक दक्षता और रणनीति-कौशल को अपने लंबे प्रशासनिक अनुभव एवं वेदों में युद्ध-कला पर प्रकाशित अपनी कृति के आधार पर विशेष रूप से उद्भासित किया। उनके जीवन से संबंधित प्रकरणों विशेषतः डाकू सागरसिंह की गिरफ्तारी के लिए उफनती बेतवा नदी को अपनी महिला सैनिकों के साथ घोड़ों पर पार करना, झाँसी-ओरछा युद्ध में विजय, झाँसी में पराभव, कोंच और कालपी युद्धों में पराजय, प्रथम ग्वालियर युद्ध में विजय तथा द्वितीय ग्वालियर युद्ध में मराठा पेशवा के साथ पराजय एवं मृत्यु को प्रकाश में लाया गया है। इससे प्रस्तुत उपन्यास को युद्ध उपन्यास कहा जा सकता है, पर रामायण, रामचरितमानस और महाभारत भी एक दृष्टि से युद्धपरक महाकाव्य हैं, जिन्हें भारत की जनता बड़ी रुचि से पढ़ती है, उन पर नाटक, टेलीविजन धारावाहिक और चलचित्र देखती है तथा अपने जीवन-निर्माण एवं सामाजिक दायित्वों के हेतु संजीवनी ग्रहण करती है। इस उपन्यास को पढ़कर भी प्रत्येक देशवासी की बाँहें फड़कने लगेंगी और वह स्वराज्य, देश या मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तत्पर होगा।
प्रत्येक युग में साहित्यकार या इतिहासकार ऐतिहासिक घटनाओं या प्रकरणों को समसामयिक संदर्भों में प्रस्तुत करता है, क्योंकि घटनाओं के धागों से बना इतिहास स्वयं दोहराता है, अतः साहित्यिक-ऐतिहासिक कृति लोकरंजन के साथ-साथ लोक-संग्रह भी करती है, ताकि भविष्य की पीढ़ियाँ इतिहास की भूलें न दोहराएँ। रानी लक्ष्मीबाई का चरित्र सार्वकालिक तथा सार्वभौमिक है। डॉ. वृंदावनलाल वर्मा के उन पर उपन्यास ‘झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई’ के प्रकाशन के पचहत्तर वर्ष बाद रानी लक्ष्मीबाई पर काफी गवेषणा हुई है तथा अनेक नए-नए ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में आए हैं। मेरी कृति के प्रकाशन के पश्चात् भी इतिहास के गंभीर अध्येता तथा साहित्यकार झाँसी की रानी पर नए तथ्य प्रकाश में लाएँगे, जो पूर्ववर्ती लेखकों की कृतियों से भिन्न होंगे। यह ही नई पीढ़ी एवं जीवंत भारत का द्योतक है, पर इतिहास की सत्य घटनाएँ नहीं बदलेंगी, उनकी व्याख्या बदल जाएगी।
अंग्रेजी में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई पर सैकड़ों कृतियाँ आईं, शायद हिंदी, मराठी एवं अन्य भारतीय भाषाओं से अधिक, क्योंकि ब्रिटिश तथा यूरोपीय लेखकों को आसानी से ईस्ट इंडिया कंपनी तथा ब्रिटिश साम्राज्य के तत्कालीन अधिकारियों तथा सेनानायकों के अंग्रेजी में लेख तथा संस्मरण उपलब्ध थे। मैं भी लक्ष्मीबाई की नंबर एक शत्रु ईस्ट इंडिया कंपनी का हश्र जानने के लिए लंदन गया तथा मैंने पाया कि साम्राज्यवादी तथा शोषक ईस्ट इंडिया कंपनी अस्तित्वहीन होकर एक कमरे में सिमटकर रह गई है, जबकि रानी लक्ष्मीबाई जन-जन में विराजमान हैं। मैंने इस उपन्यास को लिखने के लिए कोरोना कालखंड में भी यात्राएँ कीं, कई ऐतिहासिक गोष्ठियों में भाग लिया तथा रानी लक्ष्मीबाई पर कई विद्वानों से विचार-विमर्श किया।
-डॉ. प्रमोद कुमार अग्रवाल.
झाँसी की वीरांगना
लेखक : डॉ. प्रमोद कुमार अग्रवाल
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 224