यह पुस्तक हिंदू पौराणिक कथाओं के क्षेत्र में एक ऐसी यात्रा है, जिसका प्रयास देवराज इंद्र और सभी असुर योद्धाओं में सबसे बलशाली वृत्र के बीच हुए सबसे भीषण संग्राम की कहानी को आपके लिए लेकर आना है। इस कहानी ने मुझे प्रभावित किया है और मुझे यह जानकार आश्चर्य हुआ कि इस कहानी के विषय में लोग कम ही जानते हैं। इससे मुझे इस कहानी को इस प्रकार कहने की प्रेरणा मिली, जिससे कि हम किरदारों से खुद को जोड़ सकें। इस कारण, देव और असुर को मनुष्य के रूप में रखा गया है। मैं इस बात को कहना चाहूँगा कि इंद्र से जुड़ी पुस्तकों की शृंखला को लिखना कठिन था; क्योंकि देवराज, जिन्हें ‘मेघराज’ भी कहा जाता है, के विषय में आज कई प्रकार की गलतफहमियाँ हैं और सीरियलों, फिल्मों एवं कुछ पुस्तकों में भी उन्हें गलत रूप में दिखाया जाता है। इस बात को समझना होगा कि ऋग्वेद की 250 ऋचाओं में इंद्र की वंदना सबसे बड़े देवता के रूप में की गई है और वह वैदिक काल के सबसे विख्यात देवताओं में से एक हैं। उनका इतना प्रसिद्ध होना ही इस पुस्तक के माध्यम से इस सुविख्यात कहानी को कहने का कारण बन गया।
इस कहानी को कहने के दौरान मैंने रचनात्मक स्वच्छंदता ली है और किरदारों के नाम भी बदले हैं, ताकि कहानी दिलचस्प बनी रहे। कहानी का एक हिस्सा तो मेरे सपने में ही बुन गया था। सच में! मैंने जब लिखना शुरू किया तो मन में सवाल उठा कि क्या ऐसी ही एक और भी दुनिया है, जहाँ ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ जैसी कहानियाँ अलग तरीके से सामने आती हैं? इस कारण, आपको इन महान् रचनाओं के प्रसिद्ध किरदारों के जैसी समानता इस कहानी में देखने को मिलेगी। लेकिन उनकी परिस्थितियों में काफी अंतर है।
यह कहानी कुछ सवाल उठाती है-क्या देव अच्छे थे? क्या असुर बुरे थे? क्या परिस्थितियों ने उन्हें ऐसा बनाया या फिर उनके फैसलों ने? कौन सही था और कौन गलत? पाठकों को इनके उत्तर खुद ही तलाशने होंगे।
साथ ही, मैंने रचनात्मक स्वतंत्रता लेकर एक ऐसे विश्व की कल्पना की है, जो एकदम अलग है और जिसकी अपनी ही सामाजिक संरचना है। उसकी सबसे बड़ी बात यह है कि वहाँ कोई जाति-व्यवस्था नहीं है, बल्कि कुछ और ही है। मुझे उम्मीद है कि इस नई दुनिया में जैसी संभावनाएँ हैं, उनके बारे में पढ़कर आपको आनंद आएगा।
व्यक्तिगत रूप से, यह हमारी समृद्ध विरासत और उन अनगिनत पौराणिक कहानियों के प्रति एक सम्मान है, जिन्हें मैं दिल से चाहता हूँ; जिनमें से कई से हम अनजान हैं, पर वे शायद सच हैं...या शायद उन्हें भी किसी ने अपने सपने में गढ़ा होगा! -सत्यम्.
.............................
“वत्स, अपनी आँखें खोलो।”
उसकी तपस्या इतनी कठोर थी कि स्वर्गलोक भी डोलने लगा। अपने दिव्य स्थान वैकुंठ लोक में निवास कर रहे भगवान् विष्णु को अपने अब तक के सबसे कम उम्र के पाँच वर्षीय ध्रुव के सामने प्रकट होना पड़ा।
ध्रुव की मात्र इतनी इच्छा थी कि वह अपने पिता राजा उत्तानपाद की गोद में बैठ सकें; लेकिन उनकी माता सुरुचि उन पर क्रोधित हो उठीं। सुरुचि ने कहा कि वह उसे पाने की इच्छा न करे, जो उनके पुत्र और ध्रुव के सौतेले भाई उत्तम का है। सुरुचि ने जो किया, उससे उत्तानपाद व्यथित हुए; लेकिन अपनी पत्नी से उन्हें इतना प्रेम था कि वह कुछ बोल नहीं सके। ध्रुव ने इस दुर्व्यवहार पर भी अपने पिता को मौन देखा तो फूट-फूटकर रो पड़े और दौड़कर अपनी माता के पास पहुँचे।
ध्रुव की माँ सुनीति ने उन्हें सांत्वना दी और नियति को स्वीकार कर लेने को कहा। सभी स्त्रियों व पुरुषों को सुख-दुःख उनके कर्म, यानी पूर्व जन्म में किए गए कार्यों के आधार पर मिलता है। सुनीति ने ध्रुव से कहा कि वह इस जन्म में अच्छे कर्म करें और सद्गुणों को अपनाएँ। उन्होंने समझाया कि किसी व्यक्ति का भाग्य और भविष्य इस पर निर्भर करता है कि अपने जीवन में उन्होंने क्या किया।
सुनीति की बातों को ध्रुव ने मान लिया। फिर पलटकर बोले, “माता, यह सत्य है कि पिताजी माँ सुरुचि से अधिक प्रेम करते हैं और मैं माँ सुरुचि का पुत्र नहीं हूँ। मैं आपका पुत्र हूँ। उत्तम को सिंहासन दे दीजिए। मुझे उसकी इच्छा नहीं। मैं अपने ही कर्मों से एक ऐसा स्थान प्राप्त करूँगा, जिसे अब तक किसी ने प्राप्त नहीं किया है।”
इन शब्दों के साथ ही ध्रुव राजमहल को छोड़कर चले गए और राजसी ठाट-बाट भरे जीवन का त्याग कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि शाश्वत शांति के लिए सभी इच्छाओं का त्याग अनिवार्य है और ध्रुव ने बहुत छोटी सी उम्र में ही उस शांति को प्राप्त कर लिया था।
जंगलों में भटकते हुए वह कई साधु-संतों से मिले, जिन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि एक राजकुमार भी दुःखी है। ध्रुव ने उन्हें बताया कि वह न तो धन चाहते हैं और न ही राज-पाट। वह मात्र उस स्थान तक पहुँचना चाहते हैं, जहाँ अब तक कोई न पहुँचा हो। ऋषि-मुनियों ने उन्हें भगवान् विष्णु की प्रार्थना करने की सलाह दी। उन्होंने विष्णु की प्रार्थना का मंत्र भी उन्हें सिखाया— “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।”
इस सलाह के अनुसार, ध्रुव ने अपनी तपस्या शुरू कर दी और छह महीने तक अन्न-जल का त्याग कर अपना ध्यान भगवान् विष्णु पर टिका दिया। जैसे रूप-रंग का वर्णन ऋषि-मुनियों ने किया था, भगवान् की वैसी ही छवि के सिवाय उन्हें और कुछ भी नहीं दिख रहा था।
उनके कठोर प्रण ने भगवान् विष्णु को उनके सामने प्रकट होने पर विवश कर दिया। लेकिन भगवान् की वाणी भी गहन तपस्या में लीन ध्रुव के ध्यान को भंग नहीं कर सकी। उनका संकल्प इतना निश्छल और पवित्र था।
भगवान् विष्णु ने अपने दिव्य शंख से ध्रुव के दाहिने गाल को छुआ और इस स्पर्श से ध्रुव बोल पड़े। उनके मुख से भगवान् के गुणगान में इतनी सुंदर कविता निकली, जो बारह प्रभावशाली छंदों में है और जिसे ‘ध्रुव-स्तुति’ के नाम से जाना गया।
“वत्स, क्या इच्छा है तुम्हारी?” भगवान् विष्णु ने अपने भक्त से पूछा।
भगवान् को याद करते हुए ध्रुव ने इतना समय बिता दिया था कि स्वयं उन्हें भी याद नहीं रहा कि उनकी तपस्या का उद्देश्य क्या था। ध्रुव ने कहा, “मेरी बस, इतनी इच्छा है कि मैं अपना जीवन प्रभु के स्मरण और उनके गुणगान में व्यतीत करूँ।”
उनकी जगह कोई और होता तो वह सांसारिक या स्वर्ग के समान सुखों को या कम-से-कम मोक्ष का वर माँग लेता; लेकिन ध्रुव की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी। अनेक देव और असुर यह देखने आए थे कि भगवान् विष्णु से यह मनुष्य क्या माँगता है और वे भी आश्चर्यचकित रह गए थे।
भगवान् विष्णु इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने ध्रुव को उनकी इच्छा के अनुरूप वरदान दे दिया, फिर कहा, “वत्स, तुम इस ब्रह्मांड के सभी व्यक्तियों का मार्गदर्शन करोगे। तुम स्वर्ग लोक के सर्वोच्च स्थान को प्राप्त करोगे और एक खगोलीय पिंड का रूप लोगे, जिसे महाप्रलय भी छू नहीं सकेगी। तुम आकाश में एक तारे के रूप में चमकते रहोगे, जो दूसरों को राह दिखाएगा। आज के बाद तुम्हारा लोक ‘ध्रुव-लोक’ कहलाएगा। जाओ और धर्म की स्थापना करो और सच्ची श्रद्धा का एक प्रतीक बन जाओ।”
उसी समय से ध्रुव ने जिस पथ को अपनाया, उसे ‘ध्रुव-पद’, यानी सच्ची श्रद्धा का पथ कहा गया है।
भोले-भाले ध्रुव ने कहा, “किंतु प्रभु, मैं तो बस, आपके साथ रहना चाहता हूँ।”
भगवान् विष्णु मुसकराने लगे, “जब भी आवश्यकता पड़ेगी, मैं अलग-अलग अवतारों में ध्रुव-लोक में आता रहूँगा—कभी युद्ध लड़ने तो कभी राह दिखाने के लिए।”
आकाश के ध्रुव-लोक में ध्रुव दिव्य प्रकाश के साथ चमकते हैं और सच्ची श्रद्धा के प्रतीक के रूप में सभी को राह दिखाते हैं। धरती पर उनके वंशजों को ध्रुववंशियों के रूप में जाना गया। पहले ध्रुववंशी ने सतयुग में राज किया।
त्रेतायुग में जब अहंकार, लोभ, मद और क्रोध के वश में आकर आसुरी शक्तियों ने धर्म के चक्र को अस्थिर करने का प्रयास किया, तब भगवान् विष्णु ने धर्मपरायण राजा सत्यव्रत के रूप में जन्म लिया। उन्होंने फिर से धर्म की स्थापना की और ध्रुव-लोक को उसकी अनेक बुराइयों से मुक्त किया, जिन्होंने समाज को छिन्न-भिन्न बना दिया था। वह सिद्ध-लोक के सबसे महान् और अच्छे शासक हुए और उन्हें ध्रुव-लोक के महानतम राजाओं में से एक कहा जाता है।
अब वह चक्र द्वापरयुग की ओर चल पड़ा है।...
त्रिशूलधारी : देवों और असुरों की कहानियाँ
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 344