निरुपायता के चलते, सन् 2003 के नवम्बर में हमने इलाहाबाद छोड़ दिया। क्या महज़ रेलगाड़ी में बैठना ही शहर छोड़ देना होता है? हमारे पैर अब इस नहीं, उस शहर में चलने लगे; घर का चूल्हा यहाँ नहीं, कहीं और बलने लगा; तनखा, बुरी बावरी, किसी और शहर में मिलने लगी; बस, क्या इसी से इलाहाबाद हमारा नहीं रहा? नहीं, तब तो यह और हमारा हो गया।
शहर-पुड़िया में बाँध कर हम नहीं ला सकते साथ, किन्तु स्मृति बन कर वह हमारे स्नायुतंत्र में, हूक बन कर हमारे हृदयतंत्र में और दृश्य बन कर हमारी आँखों के छविगृह में चलता-फिरता नज़र आता है। इस लिहाज़ से जितने भी लोग वहाँ जिएँगे, सबके पास अपना-अपना इलाहाबाद होगा। विद्वान यहाँ इतिहास खँगालने आते हैं। विशेषज्ञ यहाँ भूगोल नापते हैं। कलाकार यहाँ सड़कें नापते हैं। उन्हीं में कहीं हम भी हैं। ऐसा नहीं कि इलाहाबाद में हमसे पहले कोई फ़नकार नहीं रहा। लाखों रहे, जिये और जलवाफ़रोश हुए। इन्हीं गलियों में उनके पाँव पड़े, इसी संगम का जल उन्हें भिगो गया। यहीं का आसमान उनकी नज़रों ने देखा, यहीं की हवाओं में उन्होंने साँस ली।
हम शहर में आते हैं, जीते हैं, काम करते हैं, अपने दिन तमाम करते हैं। नहीं पता होता कि शहर छोड़ने से छूट नहीं जाता, वह ख़ुशबू, ख़याल और ख़्वाब बन कर हमारे अन्दर बस जाता है। इलाहाबाद वह शहर है जिसने हमारी मस्ती देखी है तो पस्ती भी, संघर्ष देखा है तो सफलता भी। हमारा अधिकांश लेखन यहीं हुआ क्योंकि इलाहाबाद की मिट्टी में निजता की नमी है जिसके बिना कलम नहीं चला करती। राजधानी की चौड़ी सड़कें कभी मुक़ाबला नहीं कर सकतीं उनका जो गलियाँ हम वहाँ छोड़ आए। रहे होंगे कभी यहाँ मुक़द्दर के सिकंदर। अब तो यह मुक़द्दर के पोरसों का शहर है। पोरस हैं तो क्या हुआ? हैं तो राजा-सड़क के सम्राट, नुक्कड़ के नवाब, डगमग नावों के खिवैया। और शहरों में होता होगा सम्पन्नता का स्वाभिमान। इलाहाबाद में तो विपन्नता का वैभव और ग़रीबी का गौरव है। सर्वहारा वर्ग किस अकड़ से जीता है, इसकी खुली किताब है यह शहर!
-ममता कालिया.
जीते जी इलाहाबाद
लेखक : ममता कालिया
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 192
किताब लिंक : https://amzn.to/3Hn3hU0