प्रस्तुत संग्रह में कुल नौ कहानियाँ हैं। ये अपनी कथावस्तु के रूप में पूर्ण हैं। इनकी विषय-वस्तु के बारे में सुधी पाठक स्वयं अपनी राय बना सकते हैं। एक-दो कहानियों पर मैं आप से बात करना आवश्यक समझता हूँ।
तो आइए सबसे पहले प्रस्तुत संग्रह की शीर्षक कहानी ‘हाथ तो उग ही आते हैं’ पर बात करते हैं। यह कहानी राजेन्द्र यादव ने कथा मासिक ‘हंस’ में छापी थी। कहानी में घटित घटना तो आपके हाथ में है। मैं हाथ की बात में कुछ और जोड़ना चाह रहा हूँ। सहयोग और सकारात्मकता तो यह है कि हाथ में हाथ मिलकर नयी बात बनती है। व्यक्तियों, समाजों और देशों में दोस्ती कायम होती है। हाथ सहारा बनते हैं तो गिरे हुए समाजों को हाथ पकड़ कर उठाया जाता है, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया जाता है और हाथ मिलाकर मैत्रीपूर्ण भाव से सहयात्राएँ तय की जाती हैं।
परन्तु दुखद यह है कि इतिहास में कामगार हाथ के साथ बहुत कुछ बुरा होता रहा है। अद्भुत इमारतें बनाने वाले कारीगरों के हाथ कटवा लेने की कहानियाँ हम बचपन से सुनते आये हैं। चकित करने वाली कलाकृतियाँ देने वाले, अपनी तीरन्दाजी से भौचक्का करने वाले (एकलव्य) जैसे कितनों के हाथ असमर्थ बनाये गये हैं। हाथ कुछ अच्छा करते हैं तो पारितोषिक पाते हैं। कोई ठीक वैसी ही दूसरी कृति न बना दे, इसलिए मज़दूरों के हाथ काट दिये जाते हैं। पर हम संस्कृतिकर्मी, लेखक, चित्रकार, गायक और कलाकार हाथों का आह्वान अच्छी बातों के लिए करते रहे हैं। हमारी फ़िल्मों में भी–
साथी हाथ बढ़ाना
साथी हाथ बढ़ाना
एक अकेला थक जायेगा
मिल कर बोझ उठाना
जैसे सामूहिक सहयोग का भाव जगाने वाले गीत गाये और गुनगुनाये जाते रहे हैं।
जहाँ तक कहानी के अन्तर्गत वास्तविक समाज और संसार के सम्बन्ध का प्रश्न तथा प्रासंगिकता का सवाल है तो उसके लिए दूर जाने की ज़रूरत नहीं है, हमारे सामने और हमारे समय में भी हाथों पर हमले हो रहे हैं और परस्पर सहयोगी हाथों में तालमेल की कमी का संकट दिखायी दे रहा है।
वर्ण-भेद और अर्थ-भेद के आधार पर हमारे देश में दलितों, अप्रवासी मज़दूरों और ग़रीबों के हाथ काटे जाते रहे हैं। आदिवासी एकलव्य को असहाय बना देने के उद्देश्य से महान गुरु अँगूठा ही दान में माँग लेते हैं (या कटवा लेते हैं)। क्या इस तरह से प्रतिभा हनन कर राष्ट्र को उन्नत बनाया जा सकता है? क्या इस तरह से अविद्या, अज्ञान, दारिद्र्य और गृह-कलह से मुक्त राष्ट्र बनाया जा सकता है?
साहित्यिक कर्म के बीच में ज्ञान-विज्ञान के रचनात्मक उपयोग की बात मैं क्यों कर रहा हूँ? इसलिए कि मैंने जब यह कहानी लिखी थी तब मेरे ज़हन में बहुत-सी घटनाएँ नहीं थीं। हाथ उगने की कल्पना प्रतीकात्मक थी। वह एक आशावादी सांकेतिक आश्वस्ति भी थी।
दो सौ साल दास बनाकर रखे कालों को गोरे आज हाथ दे रहे हैं, तो सन् सैंतालीस में हुए आज़ाद देश में सवर्ण हिन्दू निर्वर्ण दलितों के हाथ काटने में क्यों लगे हैं? क्या वे बाहरी देशों से राष्ट्रोन्नति की बातें नहीं सीख सकते? क्या इनकी मंशा आज भी चार हज़ार साल के वर्ण-भेद को पुनर्स्थापित करने की है? क्या हम चिकित्सा को मानव-सेवा का साधन नहीं बना सकते? व्यावसायिक क्रूरता, धन-लोलुप स्पर्धा से क्या देश में सन्तुलित और सामूहिक विकास सम्भव होगा?
‘हाथ तो उग ही आते हैं’ कहानी के अलावा इस संग्रह की अन्य कहानियों के बारे में शायद कुछ ज़्यादा कहने की आवश्यकता नहीं। हाँ, आत्मकथात्मक कहानियों में मुझे ‘अस्थियों के अक्षर’ के सन्दर्भ में पाठकों को अवश्य कुछ बताना है। यह ‘हंस’ के फ़रवरी, 1996 के अंक में छपी थी। यह मैंने फर्स्ट ड्राफ़्ट के रूप में ही सम्पादक राजेन्द्र यादव को भेजी थी। असल में उस समय जेएनयू में मैंने यह कहानी शान्ति यादव और रजत रानी ‘मीनू’ को सुनायी थी। यह एक आत्मकथात्मक संस्मरण था। वे बोलीं, “तुम इसे सुना कर छोड़ क्यों रहे हो! लिख क्यों नहीं देते?” तो मैंने कहा, “आप लोग आराम कीजिये, मैं लिखता हूँ।” सो, रात भर बैठा लिखता रहा और अगले दिन कार्बन प्रति अपने पास रख कर जेएनयू पोस्ट ऑफ़िस जाकर हंस के पते पर भेज दी। दो-ढाई महीने बाद जेएनयू सिटी सेंटर (मण्डी हाउस) में किसी साहित्यिक आयोजन में यादव जी मिले तो मैंने पूछा–“सर, आपको मैंने एक संस्मरण भेजा था, है तो अभी रफ ही पर आपकी राय जानने की अपेक्षा से भेजा है। क्या आपने पढ़ा है?” तो वे कहने लगे–
“ ‘हंस’ का अंक बाज़ार में आ चुका है, वह कहानी तो मैंने छाप दी है।”
तब मुझे उत्सुकता हुई, मैंने हंस की प्रति ली और यादव जी से कहा–“यह तो सच्ची घटना है, मेरी आत्मकथा का अंश है। आपने इसे कहानियों में क्यों छाप दिया?”
तो वे बोले–“अच्छी कहानियाँ आत्मकथात्मक ही होती हैं; छप गयी। उस पर कई प्रतिक्रियाएँ भी आ गयी हैं, हंस में आना तब और बातें करेंगे।”
अब जब ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’ शीर्षक से आत्मकथा आ गयी और उसके बाद वाणी से ही मेरा कहानी संग्रह ‘भरोसे की बहन’ छपा तब मैंने इसे उस संग्रह में शामिल नहीं किया। परन्तु हंस में इसके प्रकाशन के इन बीसवें सालों में मैंने पाया कि इस अंश को कहानी के रूप में मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, उर्दू, जर्मन आदि तमाम भाषाओं में अनुवाद के बाद आत्मकथांश जानते हुए भी कहानी के रूप में भी काफ़ी ख्याति मिली है। कथाकार कमलेश्वर, महेश दर्पण और रमणिका गुप्ता आदि ने विभिन्न प्रकाशनों से प्रतिनिधि कहानियों के संकलन निकाले हैं? बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर रचनावली (अंग्रेज़ी) के सम्पादक वसन्त मून की पत्नी मीनाक्षी ‘मून’ ने इसे अपनी पत्रिका ‘आम्ही मैतरिणी’ (मराठी) में 1996 में ही प्रकाशित कर दिया था। अंग्रेज़ी के ‘beyond borders’ में और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपी पाठ्यक्रम की पुस्तक LISTEN TO THE FLAMES अँग्रेज़ी में ‘अस्थियों के अक्षर’ को शामिल किया और बकौल सम्पादक प्रो. तपन वासू ‘यह पुस्तक सत्तरह’ विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी शामिल हो गयी है। तो पाठकों के सामने रचना की विधा और अपनी दुविधा को स्पष्ट करते हुए अब संग्रह में भी इसे शामिल किया जा रहा है।
मन तो यहाँ तक था कि इस संग्रह का नाम ही ‘अस्थियों के अक्षर’ रखूँ, परन्तु काफ़ी सोच-विचार करने के बाद कि ऐसी किसी रचना को संग्रह की प्रतिनिधि रचना नहीं बनाया जिसमें आंशिक तौर पर भी संस्मरण होने की सम्भावनाएँ हों। अतः इस कहानी के नाम को प्रस्तुत पुस्तक का शीर्षक नहीं बनाया है।
‘हाथ तो उग ही आते हैं’ कहानी बेशक वास्तविक घटना पर आधारित है, परन्तु इसमें मेरा आत्म सम्मिलित नहीं है। यह अनुभव जन्य नहीं ज्ञान-सृजित है।
इसलिए संग्रह का उपयुक्त शीर्षक होने की अधिकारिणी कहानी सम्भवतः यही है। मेरी कहानी तो एक कहानी ही थी, पर गूगल बाबा से ज़्यादा जुड़े बच्चों ने जुड़े हुए हाथों की ओर मेरा ध्यान खींचा और तब चिकित्सा विज्ञान में विकसित हुए देशों के डॉक्टरों के चमत्कार जैसे कारनामे मेरे संज्ञान में आये। एक आठ साल के ज़ायन हारवी (ZION HARVEY) ने अपने दोनों हाथ गँवा दिये थे, यह एक अश्वेत माता-पिता का अश्वेत बच्चा है, इसके कटे हाथों के बदले नये हाथ गोरे डॉक्टर ने जोड़े हैं।
दूसरा व्यक्ति अब्दुल रहीम है जो अफ़गानिस्तान में मिलिट्री कैप्टन है, इसके दोनों बाजुओं से नीचे हाथ कटे थे। इस अफ़गानी को ऑपरेशन से दक्षिण भारतीय के काले हाथ लगाये गये और वे काम करने लगे। मुझे आयूष सिंह ने बताया कि डिस्कवरी पर एक केस दिखाया गया है, जिसमें एक मुर्दा व्यक्ति के हाथ लगाये गये, तो वे हरकत में आ गये। विचारणीय बात यह है कि ये सब चमत्कार विदेशों में हुए, हमारे देश में अँगूठे से लेकर हाथ तक काटे गये, उगाये नहीं गये? हाँ, राजनीति में एक हाथ का साथ पूरे चालीस साल दिया गया। हाथ ‘ग़रीबी हटाने’ एस.सी., एस.टी. को मुख्यधारा में लाने का वायदा कर चला था। पहुँचा उनके प्रतिनिधित्व के अन्त पर, राजकीय संस्थाओं का निजीकरण करके।
रजत ने एक दिन मुझे एक अख़बार की कटिंग दी थी जिसमें ख़बर थी कि एक बच्चे के हाथों को बिजली का करंट लगा जिससे उसके दोनों हाथ जल गये और काटने पड़े। बच्चा कटे हाथों को देखता तो माँ उसे झूठा दिलासा देती, ‘बेटा, तू बड़ा होगा तो तेरे हाथ उग आयेंगे।’ जबकि वह जानती थी कि हाथ नहीं उगते हैं। क्या हमारे देश में ऐसी कोई चिकित्सा-व्यवस्था है? क्या कोई ग़रीब-अमीर ऐसा इलाज ख़रीद सकता है?
अब सुधी पाठकों के मन में एक प्रश्न उठ सकता है कि जब प्रस्तुत संग्रह में नौ कहानियाँ हैं तो बात केवल दो ही पर क्यों की गयी है? इसलिए कि मुझे उम्मीद है मेरे पाठक आँख-कान खोलकर इन्हें पढ़ेंगे तो पायेंगे कि कहानियाँ बोल रही हैं, कहानीकार को पाठक और कहानी के बीच से हट जाना चाहिए।
कहानी में हाथों का उगना मेरे देश में भी सम्भव होता। एक तो हाथ कटने की आशंकाएँ, चिन्ताएँ आदि समाप्त हों तथा दूसरे हाथ उगने की, देश-समाज रचने की जो संकल्पना है उस दिशा में हम क़दम-दो-क़दम आगे बढ़ें।
बेशक वे नदियों की पूजा-सम्मान करते हों, पशुओं की सेवा में कोई कोताही न करें, परन्तु भारत के दलित-आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की वैयक्तिक गरिमा और नागरिक-सम्मान पर हमला न करें, प्रस्तुत संग्रह इसी विनम्र निवेदन के साथ आपके सम्मुख प्रस्तुत है।
-श्यौराज सिंह बेचैन.
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय
हाथ तो उग ही आते हैं
लेखक : श्यौराज सिंह बेचैन
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 158
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