1857 की क्रांति और नीमच

1857 की क्रांति और नीमच

डॉ. सुरेंद्र शक्तावत द्वारा लिखित ग्रंथ ‘1857 की क्रांति और नीमच’ क्षेत्रीय इतिहास का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है।


1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में नीमच के क्रांतिकारियों की विशिष्ट भूमिका रही है। मध्य प्रदेश में सर्वप्रथम क्रांति का सूत्रपात नीमच की लाल माटी से 3 जून, 1857 को मोहम्मद अलीबेग ने किया था। ये क्रांतिवीर नीमच से विजय-पताका लेकर चित्तौड़, बनेड़ा, नसीराबाद, देवली होते हुए आगरा पहुँचे, जहाँ अंग्रेजों पर विजय प्राप्त की। नजफगढ़, दिल्ली में नीमच के क्रांतिकारियों ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन करते हुए अपने रक्त की अंतिम बूँद तक संघर्ष किया।

मंदसौर के स्वयं घोषित सम्राट् शाहजादा फिरोज की सेनाओं की युद्धस्थली नीमच की लाल माटी रही है। उनके सैनिकों ने जीरन में अंग्रेजों के सिर काटे। नीमच में दो-दो बार अंग्रेजों को परास्त कर उन्हें भागने को विवश किया।

महान् क्रांतिवीर तात्या टोपे नीमच को लक्ष्य में रखकर नीमच के चहुँओर सिंगोली, जावद, रामपुरा, प्रतापगढ़ में अंग्रेजों से युद्ध करते रहे। मारवाड़ के स्वाधीनता संग्राम के महानायक ठाकुर कुशाल सिंह आउवा का आत्मसमर्पण नीचम में हुआ।

प्रस्तुत ग्रंथ में अंग्रेजों की क्रूरता का प्रतीक भूनिया खेड़ी का अग्निकांड, निबाहेड़ा के निर्दोष पटेल ताराचंद की हत्या व तात्या की फाँसी पर अंग्रेजी न्याय की सप्रमाण पोल खोलने का प्रयत्न लेखक ने किया तथा सिद्ध किया कि नीमच की क्रांति केवल सैन्य विद्रोह न होकर जनक्रांति थी, जिसमें स्थानीय जन-समुदाय की भी भागीदारी थी।
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नीमच सिटी का पुराना मोहल्ला जिसे सरदार मोहल्ला या बक्सरिया मोहल्ला कहा जाता है, इसी मोहल्ले में मेरा जन्म हुआ, बचपन यहीं बीता। जब मैं कंधे पर बस्ता रखकर स्कूल जाने लगा, कोठी स्कूल के पास पुराने बरगद के पेड़ के नीचे से गुजरते समय साथीगण डराते थे। जिस स्कूल में पढ़ता था वह अंग्रेजों की जेल हुआ करती थी, उसमें एक फाँसी घर भी है जहाँ अंग्रेज फाँसी देते थे। हम लोग बरगद के पेड़ से लटकती हुई प्रशाखाओं को पकड़कर झुलते भी थे, जिन पर चार-पाँच पीढ़ी पहले हमारे पुरखों को फाँसी पर चढ़ाया गया था।

सन् 1980 के आसपास तेज आँधी और मूसलाधार बरसात में वह बरगद का पेड़ धराशायी हो गया। मैंने सड़क पर गिरे इस बूढ़े बरगद की शाखाओं को करीब से देखा। अपने पूर्वजों के बलिदान का साक्षी यह वटवृक्ष भी काल के गाल में समा गया। उसके किनारे खड़ा मैं आँसू बहाने के अतिरिक्त क्या कर सकता था। मैंने शाम को अपनी माँ को बताया—माँ! बरगद का पेड़ गिर गया। माँ की आँखें भर आईं। मैंने कहा—माँ, तुम क्यों रोती हो? माँ ने कहा—मुन्ना, तू नहीं समझेगा। इसी बरगद के पेड़ पर अंग्रेजों ने अपने पूर्वजों को फाँसी दी थी। इस मोहल्ले के इतने लोग शहीद हुए कि इसे विधवाओं का मोहल्ला भी कहा जाता था। माँ की यह बातें मुझे उस समय अटपटी लगी थीं, उन्हें समझने की उम्र नहीं थी। आज उम्र है तो माँ नहीं है। कौन समझाए मुन्ना को?

मैं 2003 में विधायक बना तो इस स्थान को अतिक्रमण से मुक्त कराकर उसे शहीद पार्क के रूप में विकसित करवाकर म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से लोकार्पित कराया। मेरे मन में इस स्थान के इतिहास के प्रति जिज्ञासा यथावत् बनी रही। तीन दशक पूर्व मेरे अनुजवत् मित्र सुरेंद्र शक्तावत पिपल्यारावजी से नीमच आए। उन्होंने इतिहास को अध्ययन का विषय चुना एवं अनेक शोध कार्य किए व शा.महाविद्यालय में प्राध्यापक रहे। मैंने उनसे 1857 में नीमच के योगदान पर एक पुस्तक लिखने का आग्रह किया। उन्होंने मेरे प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इतिहास संकलन समिति के जिला संयोजक बने तो एक प्रायोजना के तहत कार्य आरंभ कर दिया। उन्होंने प्रामाणिक तथ्यों के संकलन हेतु नेशनल आर्काइव्ज से लेकर नटनागर शोध संस्थानों तक देश के अनेक शोध संस्थान में बैठकर खोजबीन की समसामयिक अंग्रेजी व हिंदी ग्रंथों का अध्ययन किया।

1857 में नीमच में अंग्रेज सेनापति रहे कर्नल शावर्स जिसने क्रांतिकारियों के खून से हाथ रंगे थे, की पुस्तक ‘ए मिसिंग चैप्टर ऑफ दी इंडियन म्यूटिनी’ को ढूँढ़कर उसका हिंदी अनुवाद किया। नीमच में 1857 में मेवाड़ के सेनापति अर्जुन सिंह सहीवाला के जीवन चरित्र का गहन अध्ययन करने के साथ-साथ 150 हिंदी, अंग्रेजी के प्रामाणिक इतिहास ग्रंथों से प्रामाणिक तथ्य जुटाकर 8 वर्ष में यह ग्रंथ तैयार किया।

सन् 1857 के स्वातंत्र्य समर के गौरवपूर्ण इतिहास में नीमच की क्रांति एक स्वर्णिम अध्याय है। नीमच की लाल माटी से 3 जून, 1857 को क्रांति की ज्वाला दिल्ली तक पहुँची। यहाँ के क्रांतिवीरों ने आगरा और दिल्ली में अपूर्व शौर्य का परिचय देकर अपने प्राणों की आहुति देकर इस माटी की रक्तिम आभा को द्विगुणित किया। वे दिल्ली तक ही सीमित न रहे, लखनऊ, अवध और बरेली तक अंग्रेजों से दो-दो हाथ करते रहे। इनके मन में केवल मातृभूमि की मुक्ति की आकांक्षा थी। वे सिर पर कफन बाँधकर लड़ते-भिड़ते रहे जब तक उनके शरीर में रक्त की आखिरी बूँद थी उन्होंने हार नहीं मानी। उनका संकल्प था ‘तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें।’

भारत माँ को गुलामी के बंधन से मुक्त कराने हेतु प्राणोत्सर्ग करनेवाले क्रांतिकारियों की संख्या दस-बीस नहीं थी। 8 नवंबर, 1857 को मोहन की बेरी की लड़ाई में शॉवर्स के अनुसार इनकी संख्या दो हजार से अधिक थी (देखिए, शावर्स, ए मिसिंग चैप्टर ऑफ दी इंडियन म्यूटिनी पृ. 119) मेवाड़ के सेनापति अर्जुन सिंह ने, जो इस युद्ध के भागीदार थे, क्रांतिकारियों की संख्या दस हजार बताई। (अर्जुन सिंह जीवन चरित्र पृ. 67)। ये क्रांतिवीर आज अनाम-अज्ञात हैं। इन महान् क्रांतिवीरों को अंग्रेजों ने बागी, विद्रोही, गद्दार कहकर उपेक्षित किया इनके संघर्ष को जानबूझकर छिपाया। आजादी के इस स्वतंत्रता संग्राम के 164 वर्ष बाद भी इन क्रांतिकारियों को समुचित सम्मान नहीं मिला, वहीं उँगली कटाकर शहीदों में नाम दर्ज करवानेवालों की लंबी कतार लग गई।

नीमच की क्रांति यद्यपि आंचलिक स्तर से प्रारंभ हुई थी तथापि इसका प्रचार-प्रसार राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली, आगरा में निर्णायक संघर्ष के कारण हुआ। इनकी संघर्ष गाथा का उल्लेख कार्ल मार्क्स एवं सावरकर ने अपने ग्रंथों में किया। नीमच के बलिदानी क्रांतिवीरों के संघर्ष को याद कर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करना हमारा पुनीत कर्तव्य है।

नीमच के क्रांतिवीरों ने नीमच छावनी से एक बार नहीं दो-दो बार अंग्रेजों को मार भगाया। जीरन में उनके सेन्य अफसरों के सिर काटकर मंदसौर ले गए। निंबाहेड़ा में अंग्रेजों को करारी टक्कर दी। जावद में कैप्टन लॉयड को भागना पड़ा। एक तरफ शाहजादा फिरोज के सैनिक मंदसौर से नीमच तक अपनी सत्ता कायम कर चुके थे। दूसरी ओर तात्या टोपे सिंगोली रतनगढ़ होते हुए नीमच आने का प्रयत्न कर रहा था। उनका रास्ता 6-6 अंग्रेज सेनापति अपनी सेना के साथ रोके हुए थे। 3 जून, 1857 से लेकर 24 नवंबर, 1857 तक नीमच पर क्रांतिवीरों का अघोषित कब्जा था। इनके साथ बक्सरिया सरदार व स्थानीय नागरिक भी थे। अफसोस कि क्रांति सफल नहीं हुई, पासा पलट गया और अंग्रेजों ने महारानी के घोषणा-पत्र की धज्जियाँ उड़ाते हुए इन क्रांतिवीरों के परिवार को नेस्तनाबूत करने में कसर नहीं छोड़ी, फिर भी ये महान् क्रांतिकारी देश की आजादी के महान् लक्ष्य को लेकर ध्येय-पथ पर बढ़ते रहे। मैं बार-बार कहता हूँ-
कोई चलता पदचिन्हों पर कोई पद चिह्न बनाता है।
है वही सूरमा इस जग में जो अपनी राह बनाता है।।

इन अमर हुतात्माओं ने खुद अपनी राह बनाई और स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राण चढ़ाए। नीमच की लाल माटी के इन सपूतों को मैं जनसेवक होने के साथ-साथ इन बलिदानी वीरों का वंशज होने के नाते प्रणाम करता हूँ। यह कृतज्ञ राष्ट्र इनके बलिदान को कभी भुला न पाएगा।

-दिलीप सिंह परिहार
(विधायक नीमच विधान सभा क्षेत्र)

1857 की क्रांति और नीमच 
लेखक : डॉ. सुरेंद्र शक्तावत
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 312
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