रविन्द्र कुमार बहुमुखी प्रतिभा के नौजवान हैं। शिक्षा से विज्ञान संवर्ग व नॉटिकल साइंस के अध्येता, चेतना से साहसिक खेल प्रेमी! उत्साह ऐसा कि जीवन के एवरेस्ट और सचमुच के एवरेस्ट शिखर को खेल-खेल में जीतनेवाले। और फिलहाल उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जिले के सर्वेसर्वा उर्फ डी.एम.! उनकी एवरेस्ट विजय के अनुभव को विस्तार से समेटे एक आत्मकथात्मक किताब ‘एवरेस्ट : सपनों की उड़ान : सिफर से शिखर तक’ हिंदी और अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुकी है तथा ‘आंतरिक अंतरिक्ष और स्वप्न यात्रा’ तथा ‘ललक’ नाम से दो कविता-संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। यह उनका तीसरा कविता-संग्रह है। इतनी कम उम्र में प्रशासन की बड़ी जिम्मेदारियों को निभाते हुए यह मामूली उपलब्धि नहीं है। मौजूदा बुलंदशहर में तैनाती हो या गाजीपुर से लेकर गाजियाबाद तक, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के प्रशासन को सफलतापूर्वक सँभालना भी महायज्ञ, एक लंबी कविता से कम नहीं है। लेकिन ऐसी चुनौतियों के बीच ही अदम्यता जीवटता सामने आती है और यह रविन्द्र कुमार जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व में प्रतिबिंबित भी होती है।
संग्रह की एक अपेक्षाकृत लंबी कविता ‘एक सपना’ में यह साफ झलकती है—
एक सपना
जो मुझे बार-बार कचोटता
मेरे मन को मरोड़ता
जल की सतह के ऊपर नीचे डुबोता
और...
कोई ध्वनि घनघनाकर धुँए सा देता
और अंत में
एक हलकी
छोटी सी ज्वाला दे
खत्म हो जाता
...कितना अच्छा होता
जो तू रहता अभी तक!
कविता खत्म होते-होते देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम जी के उन शब्दों की याद दिलाती है कि सपने वे नहीं होते, जो सोते हुए देखते हैं, सपने वह होते हैं, जो आपको सोने नहीं देते। इसलिए कवि हमेशा सपनों के साथ रहना चाहता है। इसलिए कवि हमेशा सपनों के साथ रहना चाहता है। रविन्द्र भी इस कविता में पानी का स्पर्श करते ही सोडियम से पैदा होनेवाली रोशनी का रूपक साधते हुए एक बड़ी बात कह जाते हैं। उसी क्रम में अगली कविता ‘अभी तक’ में भी सपनों को छूने का यह संघर्ष जारी रहता है—
यह तो अंतिम गली है
मेरी इस राह की
पर नहीं, गली तो अनंत है
और...
वहाँ तो कई द्वार खुले हैं
...टूटे काँच फैले हैं गलियारे में
पर बगल से, दीवार से सटे
नमी पाकर
कुछ हरियाली भी उठ खड़ी हुई है।
पाठक को थोड़ा गहराई में जाकर ही ऐसी कविताओं का भावार्थ समझ में आएगा। यानी जीवन की जटिलताओं के बीच भी उम्मीद की कुछ हरियाली सदा मौजूद रहती है और जीवन में कुछ हासिल करने का, सपनों को पाने का यही रास्ता है। व्यक्ति के लिए भी, समाज के लिए भी और देश के लिए भी।
संग्रह की एक और महत्त्वपूर्ण कविता याद रह जाती है ‘बँधी हुई टिक्की’! पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पाठकों के लिए इस कविता मे आँचलिक शब्द ‘टिक्की’ का अर्थ कविता पढ़ने पर ही आएगा, वरना उनके लिए इसका अर्थ आलू चाट की टिक्की या गाँव में साबुन की टिक्की या टिकिया होगा। कविता पूरी शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाती है। कहाँ तो पुरानी व्यवस्था में “बँधी टिक्की, खुला वातावरण, खुला अनुशासन खुला प्रकृति प्रेम” और कहाँ “सुबह-सबह पीठ पर/अपने वजन से/अधिक बोझ लादे हुए बढ़ना है” यानी “बहुत ज्यादा भारी बस्ता” है और “माँ बाप/घर में सपनों की/दुनिया के बादशाह बने/संतान को/कंप्यूटर से अधिक तीव्र दिमाग का बनाने की चाह में” हैं।
वाकई कविता में उठाए लोहे के निर्जीव बिंबों से दुःख का विशाल विषाद बनता जाता है। यह अहसास और भी दुःखी करता है कि जब दुनिया के विकसित देश बस्तों के बोझ से मुक्ति पा चुके हैं, और उनके विकास की उपलब्धियाँ भी कहीं बेहतर हैं तो हमारे बच्चों को इस कृत्रिम रटांत से कब मुक्ति मिलेगी? सिर्फ स्कूल पहुँचने और कुछ किताबों का क्रूर अनुशासन हमारी बची-कुची रचनात्मकता और मान्यता को भी खत्म कर रहा है। रविन्द्र कुमार जैसे संवेदनशील नौकरशाह यहाँ जमीन पर कुछ काम संभव कर सकते हैं! दिल्ली में आए दिन होनेवाले शिक्षा के बड़े-बड़े सेमिनारों में कुछ शिक्षाविदों ने यह सवाल उठाया था कि क्या हमारे जिले के सर्वोच्च अधिकारी महीने में एक बार भी किसी पास के स्कूल को देखने, उन बच्चों के साथ अपने अनुभव बाँटने, उन शिक्षकों की समस्याएँ सुनने के लिए समय निकाल पाते हैं? उन्होंने आगे यह भी कहा कि ब्रिटिश शासन का हमें आभारी होना चाहिए कि जिन्होंने हमें एक सूत्र में तो बाँधा ही, जिला प्रशासन जैसी इकाई भी दी। यह इकाई शिक्षा की सबसे महत्त्वपूर्ण चौकी बन सकती है, यदि प्रशासन का इरादा हो, समझ हो। याद रखिए महात्मा गांधी से लेकर नेल्सन मंडेला तक दुनिया को बदलने का सपना शिक्षा से ही संभव मानते हैं। यह मणिकांचन संयोग होगा, जब रविन्द्र कुमार जैसे अधिकारी कविता के शब्दों को शिक्षा की जमीन पर भी उगते, फलते-फूलते देखें।
कवि को जीवन का व्यापक अनुभव है और इसीलिए देश की सीमा पर ड्यूटी दे रहा जवान और उसका दर्द भी बार-बार उनकी कविता में झलकता है। इस संदर्भ में ‘जवान’ कविता की पंक्तियाँ दृष्टव्य है—“बर्फ बीच सुलगता/जो जल के पार भी आग उगलता/खेत की मेड़ों पर बिल बनाकर रक्षा करता” और “अंधकार में जागनेवाला/जीता प्राण को मुट्ठी में बाँध हरदम” वह जवान। यह इसलिए भी संभव है कि रविन्द्र कुमार जैसे नौजवान गाँव की पृष्ठभूमि से अनेक बाधाओं को पार करते हुए यहाँ तक पहुँचे हैं।
एक और कविता ‘उबलती बर्फ’ में कश्मीर का दर्द उभरकर आया है। “कश्मीर की उबलती है बर्फ”...“धीरे-धीरे इसका ताप बढ़ रहा है/यह दहकते सैलाब में बदल रहा है।” कवि को उम्मीद है कि “कश्मीर में छाएगी शांति/सुप्रभात होगा” तथा वही “लहराएगा तिरंगा/निडर जहाँ-तहाँ।” कुछ समस्याएँ आजादी से आज तक हमारा पीछा नहीं छोड़ पाई हैं। कश्मीर सबसे गहरा जख्म बना हुआ है। लेकिन कवि आशावान है कि जल्दी ही शांति लौटेगी वहाँ।
‘संबंध’ कविता 21वीं सदी में भारतीय समाज का आईना है। “काम बनते देर नहीं लगी/कि अँगूठा दिखाकर घर से निकल जाते हैं।”... और “स्वार्थ पूरा होते ही/बिना कारण के/झट से टूट जाता है (संबंध)।”
मतलब परस्त, स्वार्थपरता और चापलूसी के बीच संबंधों का उतार-चढ़ाव। एक ऐसे समाज में जो अपने कुछ शाश्वत मूल्यों को तो सँभालकर रख नहीं पाया है और सामंती, गैर बराबरी, धर्म, जाति, क्षेत्र की दीवारें और लगातार ऊँची हो रही हैं। वहाँ सामाजिक संबंधों में ऐसा बनावटीपन आना बहुत सहज है। निश्चित रूप से आधुनिक जीवन व्यक्तिवादी होता जाता है, लेकिन जब सामाजिक तानाबाना भी उखड़ने लगे तो ऐसी आधुनिकता समाज को भी नष्ट कर देती है। ‘इसे गिनो मत’, ‘खींच लो मुझे भी मझधार में’ कविताओं में ऐसे जीवन की चुनौतियों से कविता सामना करती है। भले ही पैंतरे बदलने पड़े, लेकिन ऐसे समाज की ऐसी विकृतियों से मुक्ति पानी ही होगी। ‘छिछली नदी में तैरना’ कविता में कवि जनता को आगाह करता है—
क्यों/आज ही
तुम छिछली नदी में तैर रहे हो
क्यों तल की धूल कीचड़ को
ऊपर उठाकर इस बहते जल में मिलाकर
इसे अवरुद्ध कर रहे हो?
हर कवि की संवेदनशीलता आस-पास की बुराइयों को देखकर यही कर सकती है।
यदि आपने कभी प्रेम किया है या उसे पहचानने की क्षमता है तो कुछ कविताएँ इस संग्रह में भी हैं। ‘आपके बारे में’, ‘विसर्जन’, ‘निवेदन’ जैसी कविताएँ उसी का नमूना हैं। “मैं मन का भ्रमर/तू हृदय की कली/आज खोल दे अपनी पँखुड़ियाँ/दे मुझे अपने सौरभ का अंबार।”
‘इक्कीसवीं सीढ़ी’, ‘चौराहा’ ‘जड़ से जूझना, लहर से नहीं’, ‘ये चीख’, ‘सियार से भेड़ तक’, ‘सीमित-जीवन’, ‘मन’, ‘बढ़ते चंगुल’ जैसी कविताओं में जीवन के विविध रंग मिले हुए हैं। ‘धरती की कोख में’ जैसी कविताएँ संग्रह की विविधता की एक और बानगी है कि कैसे अनियंत्रित विकास पूरी सभ्यता के लिए एक चुनौती बनता जा रहा है।कवि के पास जीवन के अनुरूप व्यापक अनुभव है और सच पूछा जाए तो कविता की व्यापकता जीवन की व्यापकता के समानांतर ही चलती है और चलनी भी चाहिए। जब कविता किसी वाद या विचारधारा की गुलाम होने लगे तो शायद यह कवि-कर्म का अपमान है। ऐसा चाहे किसी प्रलोभन में किया जाए या दबाव में। रविन्द्र कुमार की कविताएँ कम-से-कम इस कसौटी पर तो एक शुद्ध झरने की तरह हैं। झरना जिसे अभी एक व्यवस्थित रूप लेना है; शिल्प में ढालना है। लेकिन ऐसा समकालीन कविता के निरंतर पठन-पाठन से ही निकलेगा।
100-150 वर्ष की हिंदी कविता ने अपने शिल्प, संवेदना और सामाजिकता से नई ऊँचाइयों को छुआ है। युवा कविता के लिए दिया जानेवाला ‘भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार’ की चुनी गई कविताएँ इसका एक छोटा सा नमूना हैं। इसके साथ आधुनिक हिंदी कविता के दिग्गज रचनाकार निराला, अज्ञेय, धूमिल, दुष्यंत कुमार, सर्वेश्वर का पठन-पाठन सरोकारों का विस्तार तो सिखाएगा ही शिल्प का अनुशासन भी खुद-ब-खुद आ जाएगा। रविन्द्र कुमार अपने अनुभव, संवेदनशीलता और सीखने की लगन से भविष्य में हिंदी कविता को और समृद्ध करेंगे ऐसी अपेक्षा है।
-प्रेमपाल शर्मा.
इक्कीसवीं सीढ़ी
लेखक : रविन्द्र कुमार
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 136
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