भारत-चीन LAC टकराव की इनसाइड स्टोरी

भारत—चीन LAC टकराव की इनसाइड स्टोरी
भारत और चीन के बीच अप्रैल 2020 से लेकर फरवरी 2021 के बीच एल.ए.सी. पर सैनिकों का आमना-सामना हुआ। करीब 10 महीने तक जंग जैसे हालात बने रहे।

यह पुस्तक इस तनातनी का सबसे प्रामाणिक ब्योरा लेकर आई है। यह आधिकारिक स्तर पर दिए गए वक्तव्यों, सैन्य तैनाती से जुड़े शीर्ष अधिकारियों और संसद् से लेकर राजनीतिक बैठकों तक के विचार-विमर्श का विवरण पेश करती है। चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत, सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल आर.के.एस. भदौरिया के अलावा चीनी समकालीन अध्ययन केंद्र के प्रमुख ले. जनरल एस. एल. नरसिंहन ने इस पुस्तक में योगदान दिया है।

यह पुस्तक एल.ए.सी. पर तनातनी शुरू होने से पहले की सच्चाई, गलवान की खूनी रात और कैलाश रेंज पर भारतीय सेना की तैनाती का बहुत सटीक विवरण देती है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह तथा विदेश मंत्री एस. जयशंकर की कूटनीति और सैन्य नीति को भी इसमें बेबाकी से पेश किया गया है। कई मायनों में यह पुस्तक भारत-चीन के बीच सैन्य संबंधों का संग्रहणीय दस्तावेज है।

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यह पुस्तक बहुत उपयुक्त समय पर आई है। अब से करीब एक साल पहले ही पूर्वी लद्दाख में घटनाक्रम की परतें खुलनी शुरू हुई थीं। पुस्तक के लेखक मुकेश कौशिक अनुभवी एवं परिपक्व रक्षा पत्रकार हैं और इससे पहले भी कुछ पुस्तकों का श्रेय उन्हें जाता है। उनकी यह पुस्तक वर्ष 2020 के घटनाक्रमों को संतुलित ढंग से समझने का गंभीर प्रयास है।

अगर यह कहा जाए कि सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद से दोनों देशों के संबंध बेहद नीचे चले गए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी और इसका पूरा दोष भारत व चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हुई घटनाओं को जाता है। अगर वर्ष 2020 को समझना है तो हमें एक कदम पीछे रखते हुए 2013 में लद्दाख में एल.ए.सी. पर हुई घटना को देखना होगा। अप्रैल 2013 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का गश्ती दल देपसांग क्षेत्र में बुर्तसे तक आ गया था। इस गश्ती दल को भारतीय सेना ने रोका और इसके बाद दोनों सेनाओं के बीच तनातनी की स्थिति बन गई। तीन सप्ताह तक चली बातचीत के बाद वह गश्ती टुकड़ी लौटी और तनातनी समाप्त हो गई। इसके अगले साल 2014 में चुमार में फिर से ऐसी ही नौबत पैदा हुई। करीब दो सप्ताह तक चली जद्दोजहद, तर्क-वितर्क और कठोर वार्त्ता के बाद मामला सुलझ गया। तीन साल बाद 2017 में जब भारत-चीन सीमा पर डोलम (चीन इसे ‘डोकलाम’ कहता है) मुद्दा उठ खड़ा हुआ तो उस समय पैंगोंग त्सो में पथराव की घटना हुई। 2020 की घटनाएँ तो सबके सामने हैं। इन घटनाओं का बाद में विस्तार से जिक्र होगा; लेकिन समझने की बात यह है कि पिछले एक दशक से पूर्वी लद्दाख में चीन का दबाव लगातार रहा है।

हमें यह भी देखना होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल, इसकी जड़ें भारत और चीन के बीच सीमा विवाद से चली हैं। भारत और चीन के वर्ष 1947 और 1949 में गणराज्य बनने के बाद से सीमा मसले पर दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू हो गई थी। हर बातचीत में चीनी पक्ष का यही कहना था कि उनके पास जो नक्शे हैं, वे प्राचीन गुओमिंगदाग मैप हैं और नई सरकार को उन पर गौर करने का मौका नहीं मिल पाया है। यह भी कहा जाता रहा कि चीनी सरकार इन नक्शों पर बाद में गहराई से गौर करेगी। चीनी प्रधानमंत्री झाउ एनलाई के जवाहरलाल नेहरू को सन् 1959 में लिखे पत्र में चीन ने एक रेखा का जिक्र किया, जो उनके हिसाब से दोनों देशों के बीच की सीमा थी। झाउ एनलाई ने जिस सीमा का उल्लेख उस पत्र में किया था, उस तथाकथित एल.ए.सी. को भारत ने कभी स्वीकार नहीं किया। पूर्वी सेक्टर में भारत और चीन के बीच की सीमा के रूप में मैकमोहन लाइन को चीन ने मान्यता नहीं दी; लेकिन हैरानी की बात यह है कि उसी मैकमोहन लाइन के आधार पर चीन ने म्याँमार के साथ सन् 1960 में अपने सीमा विवाद का निपटारा कर लिया। इतना ही नहीं, भारत और चीन के बीच सन् 1960 में हुई ‘कोलंबो बैठक’ में भारतीय पक्ष ने ऐसे कई मुद्दे उठाए थे, जिनका कोई जवाब चीनियों के पास नहीं था। लिहाजा, पूर्वी सेक्टर में चीन के दावे कमजोर साबित होते रहे हैं। मिडिल सेक्टर में दोनों देशों के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर जो विवाद हैं, वे कम हैं। इतना ही नहीं, वर्ष 2000 में मिडिल सेक्टर को लेकर एल.ए.सी. के बारे में अवधारणा के फर्क को लेकर नक्शों का आदान-प्रदान हो गया था। ऐसे में, पश्चिमी सेक्टर महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इसका मतलब यह नहीं है कि पूर्वी और मिडिल सेक्टर में चीनी गतिविधियाँ थम गई हैं। सन् 1962 की जंग छिड़ने से पहले भी चीनी गतिविधियाँ मिडिल और पश्चिमी सेक्टर में अधिक थीं।

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पश्चिमी सेक्टर के सीमा के सवाल को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि यह सरहद अस्तित्व में कैसे आई? अब से डेढ़ सौ साल पहले कभी, सन् 1865 में, जॉनसन नाम के ब्रिटिश सर्वेक्षक को इस सेक्टर में सीमा का सर्वे करने का जिम्मा दिया गया था। उन्होंने एक रूट लिया, जिसे ‘जॉनसन लाइन’ कहा जाता है। उस समय की स्थिति के हिसाब से जिस सरहद को जॉनसन ने नापा, वह चीन तक जाती ही नहीं थी। सीमा के कई और एलाइनमेंट थे।

‘जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ ने भारत का नक्शा प्रकाशित किया, जो बहुत हद तक ‘जॉनसन लाइन’ के अनुरूप था। एक भारतीय सैनिक गश्ती दल सन् 1957 में भेजा गया था। पेइचिंग में भारतीय दूतावास से मिली सूचना की पुष्टि के लिए यह दल भेजा गया था। मौके पर जाने पर पता चला कि चीन ने अक्साई चिन में वेस्टर्न हाइवे बना लिया है। यहीं से फसाद शुरू हो गया और सीमा मसले पर दोनों देशों के बीच लंबा पत्राचार शुरू हो गया। चीनियों ने अपना वही पुराना रुख कायम रखा कि सरकार को अभी नक्शों पर गौर करने का वक्त नहीं मिला है। लेकिन नवंबर 1959 में झाऊ एनलाई ने वह पत्र लिखा, जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है। पत्र में कहा गया था कि चीन की सीमा वहाँ तक है, जहाँ उसकी इस समय आखिरी पोस्ट है। इसके ब्योरे के मुताबिक लाइन वह है, जो चीन की स्पांगुर पोस्ट, खुर्नाक फोर्ट, कोंगका दर्रे और शर्नालुंगपा से उत्तर की ओर जाते हुए हाजी लंगर को अक्साई चिन की रोड से जोड़ती है।

कभी सन् 1959 के बाद से ही पूर्वी लद्दाख में सैन्य गश्ती दलों की आवाजाही देखी जा रही थी। भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के करम सिंह की शौर्य गाथा सर्वविदित है। चीनी गश्त को देखते हुए पूर्वी लद्दाख में 43 चौकियाँ कायम करते हुए रक्षात्मक नीति अपनाई गई। इस तरह, इलाके में सैन्य ठिकानों को लेकर तनातनी का क्रम शुरू हो गया।

उस समय चीन ने तीन सूत्री प्रस्ताव दिया था। पहला यह कि दोनों पक्ष एल.ए.सी. का सम्मान करें। दोनों एल.ए.सी. से 20-20 कि.मी. पीछे हट जाएँ और बातचीत शुरू हो जाए। यह प्रस्ताव भारत को मंजूर नहीं था। इस प्रस्ताव को मानते तो जिन इलाकों पर चीन कब्जा कर चुका था, उन पर वह कायम रहता और भारत को अपनी जमीन से पीछे हटना पड़ता; लेकिन चीनी सैनिक एकपक्षीय ढंग से 20 कि.मी. पीछे चले गए। मैप-3 में वह लाइन दिखाई गई है, जहाँ वे चले गए थे।

भारत—चीन LAC टकराव की इनसाइड स्टोरी

जंग के बाद भारत और चीन के बीच के राजनयिक रिश्ते ठंडे बस्ते में चले गए। राजदूत को वापस बुला लिया गया और स्टाफ को बहुत कम कर दिया गया। कूटनीतिक रिश्ते कायम होने में चौदह साल लगे। इस दौरान वास्तविक नियंत्रण रेखा पर दो घटनाएँ हुईं। चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने सिक्किम में सन् 1967 में नाथू ला और चो ला में भारत की दो सैन्य चौकियों पर फायरिंग की। हालाँकि, 1962 की जंग में भारत की पराजय हुई थी, लेकिन 1967 की इस घटना में भारतीय सेना ने चीन को करारा जवाब दिया। बड़ी संख्या में चीनी सैनिक हताहत भी हुए।

दूसरी घटना अरुणाचल प्रदेश के तालुंग ला में हुई। इसमें असम राइफल्स के एक गश्ती दल को एल.ए.सी. के पास निशाना बनाया गया। हमारे चार जवान शहीद हुए।

इन दो घटनाओं को छोड़ दें तो एल.ए.सी. आमतौर पर शांत रही। राजदूत की नियुक्ति के तुरंत बाद वर्ष 1980 के शुरू में सीमा मसले पर बातचीत शुरू हो गई; लेकिन ऐसा लगा कि इस दौरान सीमा संबंधी दावों पर चीन का रुख और सख्त हो चुका था। चीनी पी.एल.ए. ने सन् 1986 में फिर शांति भंग करते हुए एल.ए.सी. पर टकराव की नौबत पैदा की। अरुणाचल प्रदेश में सुमद्रोंगचू में पी.एल.ए. ने सर्दियों में भारतीय सैनिकों द्वारा खाली की गई एक चौकी पर कब्जा कर लिया। इस स्थिति से निपटने के लिए ‘ऑपरेशन चेकर बोर्ड’ लॉ†च किया गया। सेना की एक ब्रिगेड को वहाँ विमान से भेजा गया। इससे चीन के रास्ते रोक दिए गए। सात वर्षों तक दोनों ओर की सेनाएँ आमने-सामने तैनात रहीं, लेकिन इस दौरान फायरिंग की एक भी वारदात नहीं हुई।

फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की प्रसिद्ध चीन यात्रा हुई। इससे दोनों देशों के रिश्तों में तेजी आई। इस यात्रा के दौरान दोनों देश शांति और दोस्ताना माहौल में सीमा मसले के समाधान के लिए सहमत हो गए। दोनों ने अन्य क्षेत्रों में भी संबंध विकसित करने का फैसला किया, ताकि सीमा मसले के हल के लिए बेहतर माहौल बन सके। दोनों देशों ने एक संयुक्त बयान जारी किया और सीमा मसले के शांतिपूर्ण समाधान तक एल.ए.सी. पर शांति बनाए रखने पर सहमति प्रकट की। इस सहमति के आधार पर 7 सितंबर, 1993 और 29 नवंबर, 1996 को दोनों देशों ने नियंत्रण रेखा पर शांति बनाए रखने के लिए समझौतों पर हस्ताक्षर किए। इन समझौतों के बाद सेना की गश्त को लेकर प्रक्रियाएँ तय हुईं, ताकि अगर दोनों सेनाओं का आमना-सामना हो जाए तो कोई टकराव पैदा न हो। इसके लिए ‘ज्वॉइंट वर्किंग ग्रुप’ और ‘एक्सपर्ट ग्रुप’ भी बनाए गए। सहमति को आगे बढ़ाते हुए एल.ए.सी. की अवधारणा के बारे में अपने-अपने मैप का आदान-प्रदान करने पर रजामंदी हो गई। मिडिल सेक्टर के मैप का आदान-प्रदान हुआ; लेकिन जब वर्ष 2002 में पश्चिमी सेक्टर के मैप का आदान-प्रदान हो रहा था तो चीनी पक्ष ने प्रक्रिया को आगे बढ़ाने से इनकार कर दिया। उसके बाद से एल.ए.सी. को स्पष्ट करने की प्रक्रिया रुकी हुई है।

तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की वर्ष 2003 में चीन यात्रा भी मील का एक पत्थर है। इस यात्रा के दौरान तय हुआ कि सीमा मसले पर बातचीत तेज करने के लिए दोनों पक्ष अपना-अपना एक विशेष प्रतिनिधि नियुक्त करेंगे। यह व्यवस्था कायम होने पर ‘संयुक्त वर्किंग ग्रुप’ और ‘एक्सपर्ट ग्रुप’ की व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म होती गई। विशेष प्रतिनिधियों की बातचीत तीन चरणों में होनी थी। पहले चरण में उन सिद्धांतों को तय किया जाना था, जिसके तहत सीमा का समाधान हो। यह प्रक्रिया पूरी कर ली गई और दोनों देशों के बीच 11 अप्रैल, 2005 को राजनीतिक मानदंडों एवं निर्देशक सिद्धांतों के बारे में समझौता हुआ। दूसरे चरण में सीमा मसले के समाधान का फ्रेमवर्क तय करना था। दोनों प्रतिनिधियों की बाईस दौर की वार्त्ताओं के बाद भी गाड़ी इसी दूसरे चरण में अटकी हुई है। जैसा कि उल्लेख किया गया है, पूर्वी लद्दाख में वर्ष 2013 के बाद से ही समस्या खड़ी होने लगी थी। चीनी प्रधानमंत्री ली केछियांग जब अप्रैल 2013 में भारत यात्रा पर आए हुए थे तो देपसांग में दोनों देशों की सेनाओं के बीच तनातनी की स्थिति पैदा हो गई थी। चीनी सेना की गश्त इस इलाके में भीतर आ चुकी थी। दोनों के बीच 21 दिनों की बातचीत के बाद पी.एल.ए. पीछे हट गई। बाद में इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए दोनों देशों ने 23 अक्तूबर, 2013 को ‘बॉर्डर डिफेंस सहयोग’ पर हस्ताक्षर किए; लेकिन इसके बावजूद दोनों देशों की सेनाएँ एक-दूसरे की गश्तों को बाधित करती रही हैं।

संयोग की बात यह है कि जब अगले साल शी जिनपिंग भारत आए तो पूर्वी लद्दाख के चुमार के इलाके में तनातनी की घटना हुई। वहाँ भारतीय इलाके में चीनी सेना एक सड़क बनाने का प्रयास कर रही थी। जब उन्हें रोका गया तो मामला उच्च स्तर तक जा पहुँचा। दो सप्ताह के बाद मामले का समाधान हो गया और दोनों पक्ष अपनी लोकेशन पर वापस चले गए। इन घटनाओं में भी दोनों सेनाओं ने संयम बरता और फायरिंग की कोई घटना नहीं हुई।

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भारत-भूटान-चीन के त्रिकोण जंक्शन पर वर्ष 2017 में डोलाम की घटना हुई। इसे मीडिया में ‘डोकलाम की घटना’ कहा जाता रहा है। भारत इसे ‘डोलाम’ कहता है। वहाँ भूटान के तोरसा नाला में चीनी सैनिकों ने एक सड़क बनानी शुरू की। यह तीनों देशों की सहमति के खिलाफ हो रहा था। तय यह था कि कोई भी निर्माण कार्य आपसी सहमति से ही हो सकता है। भारतीय सेना ने चीनी सेना को वह सड़क बनाने से रोक दिया। इसके बाद दोनों सेनाएँ 72 दिनों तक आमने-सामने तैनात रहीं।

डोकलाम की घटना के दौरान ही पैंगोंग त्सो के किनारे फिर एक घटना हुई, जिसमें दोनों ओर के सैनिकों के आमने-सामने आने पर पथराव हुआ। दोनों ओर के सैनिक घायल हुए। गौर करने की बात यह है कि इन घटनाओं में हिंसा का स्तर बढ़ता जा रहा था।

इसके बाद वर्ष 2017 से लेकर 2020 तक काफी हद तक शांति रही। इसी दौरान चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच दो अनौपचारिक शिखर बैठकें भी हुईं। पहली शिखर बैठक वुहान में हुई। इसका एक बड़ा नतीजा यह रहा कि दोनों पक्ष नेतृत्व के स्तर से मिले सामरिक दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए एल.ए.सी. पर शांति बनाए रखेंगे। इसमें कोई शक नहीं है कि इसके बाद अतिक्रमण और आक्रामकता में काफी कमी देखी गई। दूसरी अनौपचारिक शिखर बैठक तमिलनाडु के मल्लापुरम में सन् 2019 में हुई; लेकिन उस बैठक के नतीजों को अभी तक अमल में नहीं लाया गया है।

पी.एल.ए. हर साल पूर्वी लद्दाख के सामने प्रशिक्षण अभ्यास करती रही है। हमेशा की तरह वर्ष 2020 में भी पी.एल.ए. के सैनिक अभ्यास कर रहे थे; लेकिन अचानक उन्होंने एल.ए.सी. की ओर बढ़ना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि 5 मई, 2020 को गलवान और पैंगोंग त्सो में सैनिकों का आमना-सामना हो गया। पी.एल.ए. के सैनिक मध्ययुगीन हथियारों से लैस थे। इस खूनी संघर्ष में दोनों ओर के सैनिक हताहत हुए। फिर 9 मई को सिक्किम के नाकु ला में एक घटना हुई। चीनी गश्ती दल यहाँ भारतीय इलाके में आ गया था। उसे रोका गया तो झड़प हुई। इन घटनाओं और पी.एल.ए. की तैयारियों को देखते हुए भारतीय सेना ने भी अपनी तैयारी शुरू की और सेना एवं साजो-सामान की बराबरी की तैनाती कर दी गई। चीनी सैनिक पैंगोंग त्सो में विवादित क्षेत्र में आ चुके थे और उन्होंने सैन्य स्ट्रक्चर बना लिये थे। यह इलाका फिंगर 1 से लेकर 8 तक फैला हुआ है। भारतीय दावे के अनुसार, एल.ए.सी. फिंगर 8 पर है। चीनी दावा फिंगर 4 तक का है। फिंगर 4 से 8 के बीच का इलाका हमेशा विवाद की जड़ रहा है।

स्थिति बिगड़ती देख दोनों ओर के कोर कमांडरों की वार्त्ताएँ शुरू हुईं। हर बातचीत 10 घंटे से ऊपर ही चली। सहमति बनी कि चीनी सेना गलवान से हटेगी। जब 15 जून, 2020 को 16 बिहार रेजीमेंट के सैनिक अपने कमांडिंग ऑफिसर की अगुवाई में वापसी की पुष्टि करने गए तो देखा कि चीनी सेना ने भारतीय इलाके में टेंट गाड़ लिये हैं। इन इलाकों को खाली कराने के दौरान बड़ी संख्या में चीनी सैनिकों ने उस टुकड़ी को घेर लिया। इस टकराव में 20 भारतीय सैनिक मारे गए। चीन के भी इतने ही सैनिक हताहत हुए। यह दोनों देशों के रिश्तों में बड़ा मोड़ था। करीब 45 साल बाद इतनी बड़ी संख्या में सैनिक हताहत हुए थे। इसी दौरान चीनी सेना ने गोग्रा और हॉट स्प्रिंग के इलाकों पर भी कब्जा कर लिया।

चीनी सेना कैलाश रेंज पर कब्जा जमाने की योजना बना ही रही थी कि भारतीय सेना ने वहाँ अपनी तैनाती कर दी। उसके बाद से उच्च सैन्य कमांडर स्तर पर बातचीत होती रही है। भारत का यही कहना है कि मई 2020 के पहले की स्थिति बहाल की जाए। दस वार्त्ताओं के बाद पी.एल.ए. ने फरवरी में पैंगोंग के उत्तरी छोर और भारत ने कैलाश रेंज से वापसी कर ली; हालाँकि, अब भी कुछ जगह तनातनी की स्थिति है।

सवाल यह उठता है कि पी.एल.ए. ने यह हरकत क्यों की? उसके असली मकसद पर पहुँच पाना तो बहुत मुश्किल है; पर एक इंटरव्यू में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा कि इस हरकत के लिए चीनी पक्ष पाँच अलग-अलग कारण गिना चुका है। परंतु एक बात तो साफ है कि पी.एल.ए. का इरादा कुछ भी रहा हो, लेकिन दोनों देशों के बीच का आपसी विश्वास चकनाचूर हुआ है। रिश्तों को पुरानी स्थिति में लाने में बहुत समय लगेगा। इतना ही नहीं, सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए एल.ए.सी. पर शांति कायम रहना बहुत जरूरी है।

अब आगे क्या होगा? इसका जवाब 28 जनवरी, 2021 को ‘इंस्टीट‍्यूट ऑफ चाइना स्टडीज’ के एक आयोजन में डॉ. एस. जयशंकर के भाषण में तलाशा जा सकता है। गौर करिए, उन्होंने कहा- “दोनों देशों के बीच जो समझौते हुए हैं, उनका जमीन पर पालन सुनिश्चित होना आवश्यक है। दूसरे, एल.ए.सी. का पूरी तरह सम्मान किया जाना चाहिए। वहाँ यथास्थिति को एकपक्षीय ढंग से बदलने का कोई भी प्रयास स्वीकार्य नहीं होगा। तीसरी बात, सीमा क्षेत्र में शांति ही दोनों देशों के रिश्तों में प्रगति का आधार है। अगर शांति भंग होती है तो बाकी रिश्ते भी प्रभावित होंगे। चौथी बात, दोनों देश बहुध्रुवीय विश्व के लिए प्रतिबद्ध हैं तो यह भी स्वीकार करना होगा कि बहुध्रुवीय एशिया भी इसका अनिवार्य पहलू है। पाँचवीं बात, स्वाभाविक है कि हर देश के अपने हित, सरोकार और प्राथमिकताएँ हैं; लेकिन उनके प्रति संवेदनशीलता एकतरफा नहीं हो सकती। आखिरकार, दो बड़े देशों के संबंध परस्पर व्यवहार पर टिके होते हैं। छठी बात, उदीयमान शक्तियों के नाते दोनों देशों की आकांक्षाओं की अनदेखी नहीं की जा सकती। सातवीं बात, मतभेद और भिन्नताएँ हो सकती हैं, लेकिन उनका समाधान होना अनिवार्य है और आठवीं बात, भारत व चीन जैसी सभ्यताओं को दूरदर्शी होना पड़ेगा।”

इस पुस्तक के विषय के अनुरूप पूरी पृष्ठभूमि बताने के बाद अगर मैंने इस पुस्तक की विशेषता का उल्लेख नहीं किया तो मैं अपने फर्ज से चूक सकता हूँ। यह पुस्तक बहुत सरल अंदाज में लिखी गई है। यह अब तक के उपलब्ध प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित है। यह सामरिक और सैन्य मामलों के पाठकों के लिए अत्यंत पठनीय साबित होगी।

-लेफ्टिनेंट जनरल एस.एल. नरसिम्हन.
(चीनी मामलों के विश्वविख्यात विशेषज्ञ तथा वर्तमान में भारतीय विदेश मंत्रालय के अधीन कार्य कर रहे ‘समकालीन चीनी अध्ययन केंद्र’ के प्रमुख)

भारत-चीन LAC टकराव (इनसाइड स्टोरी)
लेखक : मुकेश कौशिक
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 176
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