मुझे अच्छी तरह याद है, उस शाम मुझे साहिर से जुड़े कई रहस्यों को जानने का मौक़ा मिला था। हमारे बीच पंजाबी लेखिका, कवि और उपन्यासकार अमृता प्रीतम और साहिर के बीच के अन्तरंग सम्बन्धों के बारे में भी चर्चा हुई। दरअसल अमृता ही वह लड़की थी जो कुछेक साल पहले साहिर के सामने ऑटोग्राफ़ के लिए अपनी हथेली बढ़ाकर चर्चा का सबब बन चुकी थी और उन दोनों की मौत के बाद भी लोगों के बीच बहस का मुद्दा बनी रही। इसी बीच दोनों मुल्कों के बीच बँटवारा हो गया जिसके असर की ज़द में हज़ारों ज़िन्दगियाँ तबाह हो गयीं। ज़ाहिरन अमृता की ज़िन्दगी पर इसका ख़ासा असर पड़ा था। औरतें बँटवारे के वक़्त की दरिन्दगी की सबसे ज़्यादा शिकार बनी थीं और उनकी अस्मत के साथ बड़े स्तर पर खिलवाड़ हुआ था। अमृता ने इस वेदना को अपनी पंजाबी कविता में कारुणिक रूप में व्यक्त किया और इसके लिए पंजाबी के कवि वारिस शाह की लोककथा हीर राँझा को अपना सांकेतिक माध्यम बनाया। उन्होंने सदियों पहले मर चुके वारिस शाह की क़ब्र पर उनकी इकलौती बेटी का हवाला देते हुए दुआ माँगी और ख़ुद को पंजाब की मिट्टी की बेटी (हीर) के तौर पर पेश किया। वारिस शाह ने हीर की त्रासदीपूर्ण कहानी को एक विलक्षण प्रेमगीत में ढालने का काम किया, लेकिन अभी भी मुल्क में लाखों की तादाद में ऐसी लड़कियाँ हैं जो इस हृदयविदारक पीड़ा को झेल रही हैं। उनकी इस मर्मान्तक व्यथा को स्वर देना सचमुच आवश्यक था। अमृता अपनी नज़्मों में वारिस शाह से सवाल करती हैं कि इस जघन्य अपमान की शिकार औरतों की हिफ़ाज़त के लिए वे अपनी क़ब्र से क्यों नहीं उठ खड़े होते?
अज्ज आखां वारिस शाह नूं
कि तों कब्रां विचों बोल
ते अज्ज किताब-ए-इश्क़ दा
कोई अगला वर्का फोल
यह इतनी सशक्त नज़्म थी कि इसने केवल पंजाब में रहने वालों पर ही गहरा असर नहीं डाला बल्कि इसका अनुवाद अनेक भारतीय भाषाओं में भी हुआ है। एक तरह से यह साहिर की नज़्म ताजमहल का अमृता की तरफ़ से दिया गया जवाब था।
मुझे सलीके से साड़ी पहनी उस छरहरी और ख़ूबसूरत अमृता प्रीतम की याद है जिसे प्रधानमन्त्री नेहरू ने साहित्य अकादेमी का पुरस्कार दिया था। सफ़ेद मोतियों की माला पहने वह सचमुच एक ज़हीन कवयित्री नज़र आ रही थीं। उनकी ये तस्वीर साहित्य अकादेमी के लाइब्रेरी हॉल में कई दशकों तक टँगी रही। उनकी हल्की मुस्कुराहट और चमकीली आँखें देखने वालों के हृदय पर जादू का-सा असर करती रहीं। उन दिनों वह बेहतरीन कविताएँ लिख रही थीं लेकिन ऑल इंडिया रेडियो पर पंजाबी ख़बरें पढ़ने के अपने काम से वह शायद बहुत ख़ुश नहीं थीं। जब उन्होंने अपनी बहुचर्चित आत्मकथा रसीदी टिकट लिखी तब साहिर के प्रति उनका आकर्षण दुनिया की निगाहों से छुपा नहीं रह सका। अपनी आत्मकथा में अमृता ने साहिर के साथ अपने रिश्तों के बारे में बहुत विस्तार और साफ़गोई के साथ लिखा है। यह आत्मकथा साहित्यिक हलक़ों में ख़ासी मशहूर रही, लेकिन साथ ही इसने अमृता की ज़िन्दगी में नयी चुनौतियों को भी जन्म दिया। करतार सिंह दुग्गल और हिन्दी व पंजाबी के अनेक दूसरे बड़े लेखकों ने उसके ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ रखी थी कि वे किसी भी क़ीमत पर अमृता को सुप्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार हासिल नहीं करने देंगे। अमृता के हौज़ ख़ास के छोटे से घर के क़रीब ही एक विशाल बँगले में दुग्गल रहते थे। शाम को अक्सर दुग्गल और उसके कुछ दोस्त स्कॉच की चुस्कियाँ भरते हुए अमृता के ख़िलाफ़ साज़िश रचते रहते। दूसरी तरफ़ अमृता को पाठकों का अपार स्नेह हासिल था और आख़िरकार उनके जीवन में ऐसा भी क्षण आया जब उन्हें साहित्य का यह सर्वोच्च सम्मान हासिल हुआ। इस अभूतपूर्व उपलब्धि के पीछे साहिर की कल्पना और प्रेरणा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। साहिर उनके जीवन में उस प्रेम की तरह आये जो अपनी अनुपस्थिति में भी हमेशा स्थायी तौर पर उपस्थित रहा-टीस से भरे एक ज़ख़्म की तरह, या उनके सपनों के हमसफ़र की तरह जिसकी स्मृतियाँ बहुत गहरी थीं और जिन स्मृतियों से लगातार ख़ून रिसता रहता था।
लेकिन अमृता के विरोधियों ने उन्हें कभी चैन से रहने नहीं दिया। उन्होंने हरदित का ज़िन्दगीनामा नाम से एक लघु उपन्यास लिखा था जबकि हिन्दी की सुपरिचित लेखिका कृष्णा सोबती ने ज़िन्दगीनामा नाम से अपनी आत्मकथा लिखी थी। मौक़े का लाभ उठाते हुए नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी ने सोबती को अमृता पर कॉपीराइट का मुक़दमा दायर करने के लिए उकसाया। नतीजा यह हुआ कि सोबती के प्रकाशक ने अमृता पर भोपाल की अदालत में मामला दायर कर दिया। हालाँकि यह एक बेबुनियाद मामला था जिसे पहली सुनवाई में ही अदालत में ख़ारिज हो जाना चाहिए था, लेकिन जिस तरह से यह मुक़दमा चलता रहा उससे यह ज़रूर साबित हो गया कि भारत में न्यायिक प्रणाली किस तरह से काम करती है।
उस समय तक अमृता अपने पति से क़ानूनी तौर पर अलग हो चुकी थीं और इमरोज़ नाम के आर्टिस्ट के साथ रहने लगी थीं जिन्होंने अमृता की कमनीयता और सौन्दर्य के पेंसिल स्केच उकेरकर अपार प्रसिद्ध अर्जित की थी। चूँकि वह मेरे पड़ोस में ही रहती थीं लिहाज़ा मैं उनसे और इमरोज़ से मिलता रहता था। मैं और मेरी पत्नी मनोरमा हमारे बेटे तरुण के साथ फ़ुटबाल की प्रैक्टिस के लिए क़रीब के पार्क में जाया करते थे। एक दिन अमृता मेरे घर आयी थीं। वह बहुत निराश थीं और हमने कॉपीराइट उल्लंघन के मामले को लेकर विस्तार से बातें कीं। मैंने उन्हें बताया कि ज़िन्दगीनामा एक मौलिक उर्दू और फ़ारसी शब्द है और कॉपीराइट के दायरे में नहीं आना चाहिए। उन्होंने मुझसे इस शब्द की उत्पत्ति और प्रयोग के बारे में शोध करने का आग्रह किया। मैंने उन्हें अपनी तरफ़ से पूरा सहयोग करने का आश्वासन देते हुए वे सभी ज़रूरी दस्तावेज़ और शब्दकोश जुटाये और अदालत से पहली ही सुनवाई में मामले को ख़ारिज कर देने की दरख़्वास्त की। लेकिन दुर्भाग्यवश जज नाकारा था। शायद वह ख़ुद शोहरत चाहता था जिसके कारण वह मामले को बेवजह दस-बारह साल लम्बा खींचता रहा।
यहाँ यह बात बताना बहुत ज़रूरी है कि उस वक़्त तक अमृता और इमरोज़ के बीच के रिश्ते महज़ दोस्ताना थे और वे दोनों निहायत आज़ादख़याल, परिपक्व और दोस्ताना तबीयत के आदमी थे। अमृता सिर्फ़ एक आदमी से ही इश्क़ करती थीं और वह आदमी साहिर थे। वह साहिर से कई बार मिल चुकी थीं और एक बार तो जब वह साहिर से मिलने बम्बई गयीं तो इमरोज़ भी उनके साथ थे। उन्होंने जब-जब साहिर से अपने दिल की बात कहने की कोशिश की, तब-तब उन्हें मायूस होना पड़ा। उन्होंने साहिर और गायिका सुधा मल्होत्रा के बीच प्रेम-सम्बन्धों की अफ़वाहें भी सुन रखी थीं। लेकिन सालों बाद श्रीमती मल्होत्रा ने ऐसी किसी भी अफ़वाह का खण्डन बार-बार किया। बहरहाल, इन अफ़वाहों को सुनने के बाद अमृता अपना टूटा दिल लेकर दिल्ली लौट आयीं।
अमृता से मेरी आख़िरी मुलाक़ात तब हुई थी जब मैंने साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष के रूप में उन्हें अकादेमी की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर अकादेमी की प्रतिष्ठित फ़ेलोशिप से नवाज़ा था। यह उपाधि उन्हें प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के द्वारा प्रदान की गयी थी। उस समय तक अमृता अपनी शख़्सियत की ख़ूबियाँ और ताज़गी खो चुकी थीं। वह बेहद कमज़ोर नज़र आ रही थीं और हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गयी थीं। लेकिन अभी भी उनकी आँखों की तिलस्मी चमक और गुफ़्तगू करने का जादुई और ओजस्वी अन्दाज़ ज़िन्दा बचा था। आज जबकि साहिर और अमृता दोनों ही हमारे बीच नहीं हैं, उनकी शख़्सियत और मुहब्बतों के क़िस्सों का रहस्य अभी तक अनसुलझा है और मेरे ख़याल से यह गुत्थी कभी सुलझ भी नहीं सकेगी।
साहिर का प्रकाशित लेखन भी उनके फ़िल्मी गानों की तुलना में अधिक असरदार और गहरा था
किसी भी लेखक की सबसे बड़ी लेखकीय चुनौती उसके रचना साहित्य को हिस्सों में बाँटना होती है। अख़्तर उल-ईमान जो एक बेहतरीन शायर थे, फ़िल्मों में महज़ एक संवाद लेखक बन गये। उन्होंने फ़िल्मों में कभी अपने गीतों के इस्तेमाल की इजाज़त नहीं दी। गुलज़ार अपनी फ़िल्मी ज़िन्दगी और अपनी साहित्यिक ज़िन्दगी को अलग-अलग रखने में ख़ासे कामयाब रहे। जावेद अख़्तर ने फ़िल्मों में बतौर पटकथा लेखक अपना करियर शुरू किया था लेकिन गीतकार बनने की क़ीमत पर उन्होंने पटकथा लेखन छोड़ दिया। साहिर का प्रकाशित लेखन भी उनके फ़िल्मी गानों की तुलना में अधिक असरदार और गहरा था। अपने अनेक साक्षात्कारों में साहिर ने यह बात क़ुबूल भी की कि फ़िल्मों के लिए गीत लिखना केवल एक साहित्यिक काम नहीं था। यह लेखन की तुलना में अधिक रचनात्मक काम था क्योंकि फ़िल्मी गीत उन लाखों लोगों तक पहुँचने की क्षमता रखते हैं जहाँ साहित्यिक लेखन पहुँचने में असमर्थ होता है। इस धारणा में कितनी सच्चाई है, इस बात का निर्णय मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ लेकिन एक साहित्यिक आलोचक की दृष्टि से मेरा मत बिल्कुल भिन्न है।
साहिर के पिता चौधरी फज़ल मोहम्मद के लिए साहिर की पैदाइश जश्न का एक बड़ा मौका था क्योंकि इसके पहले दस शादियाँ कर चुकने के बाद भी उनके परिवर में पहली बार बेटा पैदा हुआ था। साहिर की माँ उनकी ग्यारहवीं बीवी थीं। चौधरी के भीतर वे तमाम बुराइयाँ थीं जो अमूमन एक बिगड़ैल ज़मींदार के भीतर हुआ करती थीं। मज़दूरों और किसानों का शोषण, अज्ञानता से जन्मे अहंकार और विलासितापूर्ण जीवनशैली के कारण उनका परिवार गहरे कर्ज़ में डूब चुका था। साहिर की माँ सरदार बेगम कश्मीरी मूल की एक खुशमिज़ाज और खुद्दार औरत थीं जिन्होंने सालोसाल अपने शौहर की ज़्यादतियाँ बर्दाश्त की थीं। लेकिन जब साहिर तीन या चार साल के रहे होंगे तब सरदार बेगम ने अपने शौहर का घर छोड़ देने का एक मुश्किल फैसला लिया। वे लुधियाना चली आयीं और अपने भाई अब्दुल रशीद की मदद से एक नयी ज़िंदगी शुरु की। चूंकि जब साहिर ने अपने पिता का घर छोड़ा था तब वे उम्र में बहुत छोटे थे, लिहाज़ा उनके बचपन की स्मृतियाँ बहुत धुँधली थीं।
-प्रो. गोपी चन्द नारंग.
(प्रोफ़ेसर गोपी चन्द नारंग पूरी दुनिया में अपने साहित्यिक अवदान के कारण एक सुविख्यात नाम हैं। उन्हें बहुत से पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया जा चुका है।)