स्वाँग यानी बर्बाद व्यवस्था का रंगमंच

स्वाँग यानी बर्बाद व्यवस्था का रंगमंच

यह सच है कि बुंदेलखंड ज्ञान चतुर्वेदी में बसता है और उनकी बुंदेली में ही बेजोड़ रंग जमता है.

प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी का नया उपन्यास 'स्वाँग' का इंतजार लंबे समय से था। उनका पिछला उपन्यास 'पागलखाना' था जो बाजारवाद पर नये तरीके से लिखा था। मगर जाने क्यों हम उनके पाठक उनको 'बारामासी' और 'हम न मरब' में ही असली ज्ञान चतुर्वेदी को पाते हैं। 'स्वाँग' को ज्ञान चतुर्वेदी ने 'बारामासी' और 'हम ना मरब' सरीखी बुंदेलखंडी आन-बान-शान की उपन्यास त्रयी की अंतिम कड़ी कहा है। और सच है यहां पर ज्ञान जी अपनी पूरी रंगत में दिखे हैं। झांसी और मऊरानीपुर के पास कहीं बसे कोटरा गाँव के बहाने कही गयी इस चार सौ पन्नों की कथा में संवादों में बेहद चुटीलापन है तो पात्रों में गजब का काइयाँपन पहले से लेकर आखिरी पन्ने तक बरसता रहता है। बस दिक्कत इन पन्नों की है जो जरूरत से ज्यादा हो गये हैं। कुछ दृश्य जरूरत से ज्यादा लंबे हो गये हैं और पाठक मुख्य कथानक तलाशने में उनको छोढ़कर आगे बढ़ता रहता है।

कहानी कोटरा गाँव की है जो 'राग दरबारी' के शिवपालगंज जैसा ही है। यहां भी इंटर कॉलेज है जिसके मालिक पंडित जी शिक्षा दान और समाज सेवा के नाम पर नकल से पास कराने का बेईमानी का धंधा पूरी ईमानदारी से करते हैं। अब वो ये धंधा कर रहे हैं तो फिर पॉलिटिक्स से कैसे बच सकते हैं तो इलाके की पॉलिटिक्स को भी अपने छल कपट से साधे रहते हैं। हर दूसरे दिन जज्जी यानी कि कोर्ट कचहरी करने कालपी जाते हैं और कानून के नियमों को पैसों के दम पर अपने मुताबिक चलाते हैं। पूरे कोटरा में उनकी धाक बस इसी बात पर है कि उनके कितने केस हैं कि उनको कोर्ट में जाकर ही पता चलता है कि किस केस की बारी है। उनके बेटे अलोपी भी हैं जो कोर्ट कचहरी पर विश्वास नहीं कर अपने तमंचेबाजी पर इतराते हैं। सारे झगडों को वो मारपीट और ना माने तो इलाके के युवाओं में आम हो गये तमंचे के दम पर सुलटाते हैं। गाँव में थाना भी है तो उसके थानेदार भी जो तमाम मक्कारी और रिश्वतखोरी को थानेदार का सबसे बडा औजार मानते हैं। इसी क्रम में एक पत्रकार बिस्मिल जी भी हैं जो पत्रकार कम दलाल ज्यादा हैं और वक्त आने पर किसी को नहीं छोड़ते बिना पैसा वसूले। अफसरों से लेकर थाने तक अपने संपर्कों के बल पर रिश्वत इनके हाथों से ही जाती है। और इन तमाम किरदारों के बीच पटवारी, एसडीएम, जिला शिक्षा अधिकारी के दर्शन भी होते हैं जो छोटे कस्बों में स्वर्ग से उतरे देवदूत से कम नहीं होते। सरकारी नौकरी में है तो पैसा तो खायेंगे ही। नौकरी में इसी काम के लिये तो आये थे।

'स्वाँग' में ढेर सारे खल किरदारों के बीच दो अबोध कैरेक्टर भी ज्ञान जी ने बेहद खूबसूरती से उतारे हैं- गजानन बाबू और नत्थू। गजानन बाबू स्वतंत्रता सेनानी हैं। आजादी के बाद हुए मोहभंग ने उनको पागल कर दिया है। हर पुराने शहर में ऐसे पगलेट बाबा मिलते हैं जो खादी पहन कर जयहिंद करते रहते हैं। 'स्वाँग' के गजानन बाबू दिल्ली जाकर राष्ट्रपति चुनाव लड़ना चाहते हैं। उनकी बेइज्जती का मार्मिक वर्णन है। दूसरा नत्थू है जिसे पढ़कर राग दरबारी का लंगड़ याद आता रहता है जो गरीबी को ही किस्मत मानकर ईमानदारी से जीने की कोशिश करता रहता है।

डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी का स्वांग उपन्यास

इन ढेर सारे खल किरदारों के मार्फत लेखक ने तस्वीर रची है कि कल जो गलत या बुरा माना जाता था वो अब सारे पैमाने बदल गये हैं। बदमाशी, मक्कारी, नकलखोरी, रिश्वत लेना-देना, हत्या और मारपीट अब गरीब बुंदेलखंड की आबो हवा में रच बस गये हैं। ये सच है गलत कोई कुछ नहीं सोच रहा। जनता यही स्वाँग कर रही है और देखा रही है वो इसी का आनंद ले रही है।

ज्ञान जी इस इस उपन्यास में 'हम ना मरब' के बाद अपनी पूरे रंग में हैं। छोटे-छोटे, लंबे संवाद और उन संवादों में चुटीलापन, मक्कारी, भोलापन सब एक साथ दिखता है। दृश्य रचने में उनको महारत हासिल है। अनेक दृश्य उपन्यास में ऐसे हैं कि पढ़ने के बाद भी याद रहते हैं। मगर ये दृश्य और संवाद कई जगह पर लंबे हैं जो उपन्यास की गति को बोझिल बनाते हैं। उपन्यास में शुरुआत से चल रही ढेर सारी कथाओं को लेखक ने जिस तरह से आखिर में समेटा है वो सिर्फ ज्ञान चतुर्वेदी ही कर सकते हैं। यह सच है कि बुंदेलखंड ज्ञान चतुर्वेदी में बसता है और उनकी बुंदेली में ही बेजोड़ रंग जमता है।

~ब्रजेश राजपूत.

(लेखक ABP न्यूज़ से जुड़े हैं. उन्होंने कई बेस्टसेलर पुस्तकें लिखी हैं)

स्वाँग
लेखक : डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 392
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