छोटे-छोटे स्वार्थ सबके अलग-अलग हैं। विविधताओं से भरा हुआ देश है। पंथ, संप्रदाय, जाति, उपजाति, भाषा, प्रांत कितनी सारी बातें हैं। इन सबको एक रसायन के आधार पर उनकी विविधता-विशेषता कायम रखते हुए और हजारों वर्षों से एक दिशा में चलनेवाली जो राष्ट्रीयता है, उसके आधार पर सबका विचार स्पष्ट हो, उसके आधार पर समाज में संवाद चले। स्वतंत्रता के बाद ऐसा होना चाहिए था, लेकिन आज तक ऐसा नहीं हुआ।
अपरिवर्तनीय है परिवर्तन का नियम
परिवर्तन यह अपरिवर्तनीय नियम है, ऐसा कहते हैं। समय के अनुसार यात्रा अपनी चलती रहे, इसलिए जो-जो परिवर्तन करना पड़ता है, वह करते हैं। वैसा ही ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’2 के बारे में हुआ है और थोड़ा पहले होता तो और अच्छा होता, लेकिन ठीक है। अब यह जो दृष्टि है कि समय के अनुसार कुछ बदलना है, वह दृष्टि स्थापित हो गई और चलती रहेगी। क्या परिवर्तन होना चाहिए, कहाँ-कहाँ आगे बढ़ना चाहिए, यह कैसा चलना चाहिए, गोयनकाजी स्वयं पत्रकारिता में इतने वर्षों से काम कर रहे हैं कि मैं नहीं मानता हूँ कि उनसे अधिक सलाह और कोई देगा। मैं एक दूसरी बात कहने के लिए खड़ा हूँ। परिवर्तन यह एक अपरिवर्तनीय नियम है, परंतु परिवर्तनशील दुनिया का जो मूल सत्य है, वह शाश्वत है और वह अपरिवर्तनीय है। परिवर्तन हितकारी हो, इसलिए अपरिवर्तनीय जो है, उसका मान रखकर चलना पड़ता है। तभी परिवर्तन भी सफल होता है।
‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ के कार्यकर्ताओं को यह बताने की आवश्यकता नहीं है, मैं केवल स्मरण दिला रहा हूँ। समाचार-पत्र, प्रचार-पत्र, विचार-पत्र, एक-एक प्रकार को चलाना भी बहुत कठिन हो गया है। ऐसे समाचार-पत्र की अथवा प्रचार-पत्र की अथवा विचार-पत्र की चिंता करनेवाले अच्छे-अच्छे व हट्टे-कट्टे लोगों को लगता था कि आज चट्टान जैसे ये जो खड़े हैं, कोई हवा इनको डिगा नहीं सकती, लेकिन ऐसी चिंता करने से काम उनके पास आ गया तो नींद की गोलियाँ खाना उनका प्रारंभ हो जाएगा, यह मैंने स्वयं देखा है। इसलिए यह यात्रा कठिन है। परंतु तीनों की थोड़ी-थोड़ी भूमिका निभाते हुए और उनको चलाते रहना, यह और भी कठिन है। यह कार्य इतने दिनों से कर रहे हैं, उसकी आदत हो गई है। अनुकूलता में ही ज्यादा सावधान रहना पड़ता है। कठिनाइयों में तो कैसे चलना है, इसकी तो बहुत आदत है। अनुकूलता उत्पन्न हुई तो कभी-कभी यह लगता है कि संकट आया, गया। ऐसा न लगने देते हुए और पर्याप्त सावधानी रखकर इन सबको करना पड़ता है, वह भी करना पड़ेगा।
शाश्वत बात क्या है, कागज बदले, आकार बदले, रंग बदले, सब बदले, परंतु जो करने के लिए ये सारे बदलाव करते हैं, वह न बदले, आखिर यह समाचारों का आदान-प्रदान वृत्तपत्रों के द्वारा, फिर दूरदर्शन के द्वारा और आजकल अंतरतानों के द्वारा ऐसा एक सिस्टम चल रहा है, उसके पहले भी होता था, लेकिन उसके पहले लोग जाते थे, गाँव-गाँव जाते थे, प्रवचन करते थे, कथाएँ करते थे, समाचार बताते थे, इतिहास बताते थे। माध्यमों का वह प्रकार उस समय था। अब आज का प्रकार है, जब यह प्रकार है, तो उसको करना है, परंतु किसको करना है, विचार की स्पष्टता होनी चाहिए और संवाद उत्पन्न होना चाहिए। संवाद माध्यम ही है, वैसे और आज देखते हैं चित्र, तो ऐसे लगता है कि संवाद माध्यमों से विसंवाद ज्यादा पैदा होता है। वास्तव में माध्यमों का काम जन प्रबोधन और जनों में संवाद पैदा करना है। समाज के सारे जो व्यापार चलते हैं, खेती-नौकरी से लेकर राजनीति तक, वह समाज चलाने के लिए हैं।
संवाद बिन समाज अधूरा
जिस समाज में संवाद नहीं है, वह आदि समाज कैसे आगे बढ़ेगा। संवाद उत्पन्न होने के लिए गंतव्य की स्पष्टता चाहिए। मैं कौन हूँ, इसकी स्पष्टता चाहिए, मुझे कहाँ जाना है और मैं कौन हूँ, उसके संदर्भ में परिस्थितियों का कैसे हमें विचार करना है, इसकी स्पष्टता चाहिए। वह स्पष्टता उत्पन्न करना और वह संवाद उत्पन्न करना। संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा जीवन के अन्य-अन्य क्षेत्रों में ये जो सारे कार्य और प्रकल्प खड़े किए गए हैं, वे इसलिए नहीं खड़े किए गए हैं कि उनसे कोई प्रभाव पैदा होगा। प्रभाव पैदा होता है, उनका कोई इलाज नहीं है।
संघ के स्वयंसेवक व्यक्ति-निर्माण का, संघ का कार्य चलाए रखते हुए अन्य-अन्य कार्यों में क्यों गए हैं। इसलिए कि संपूर्ण समाज को एक विशिष्ट दिशा में चलाना है और संपूर्ण समाज को जोड़कर रखना है। इस दृष्टि से समाज के सभी क्रियाकलापों में कुछ परिवर्तन की आवश्यकता है। यह परिवर्तन करने के लिए वहाँ वे लोग गए हैं। क्योंकि विचार के बारे में हम सब लोग भ्रमित हैं। जैसे छोटी बात मैं बताता हूँ, राष्ट्रवादी पत्रकारिता अब राष्ट्रवाद का विषय है नहीं, वह एक सत्य है। लेकिन भाषा जो आती है, उसी के शब्दों का उपयोग हम करते हैं। सोचकर बोलनेवाला शब्दों को परिवर्तित कर देता है।
पूजनीय बालासाहब ने एक बार कहा था कि ‘हिंदुत्ववाद’ कहते हैं, यह गलत शब्द है, हिंदुत्व शब्द है, यह हिंदुइज्म नहीं है, ‘हिंदुनेस’ है। इसलिए राष्ट्रवाद भी राष्ट्रीय पत्रकारिता वाली बात है। विचारधाराएँ अनेक हो सकती हैं, उस परिस्थिति में उस समय क्या करना है, इसके अनेक दृष्टिकोण हो सकते हैं, अनेक मत हो सकते हैं, परंतु एक बात पक्की होनी चाहिए कि हम एक राष्ट्र हैं, लेकिन उसके बारे में एक भ्रम है, इसलिए हम देखते हैं कि वह भी एक खूँटा है, जहाँ सारी बातें जन-जन से एक दिशा में जाती हैं। वहाँ बँधी नहीं रहने से वे भटकती हैं।
पतंग आसमान में खुला विचरण करती है, पतंग उड़ाते हैं हम लोग, कई बार हवा की दिशा से इधर-उधर जा सकती है, लेकिन जब तक नीचे किसी के हाथ में उसकी डोरी है, तब तक वह विचरण करती रहेगी। वह नीचे का आधार जब छूट जाता है, तो हवा उसको कहाँ उड़ा ले जाएगी और क्या-क्या उसकी गति करेगी, इसका कोई भरोसा नहीं है। ऐसे समाज के सब लोगों में एक मूल बात हम कौन हैं, हम क्या हैं, हम एक हैं, इसका आभास होना अत्यंत आवश्यक है। ऐसे राष्ट्र को निर्देश करने के लिए कौन से शब्द का उपयोग करना है, यह अपना-अपना मत होता है, लेकिन एक राष्ट्र है और वह राष्ट्र यानी संयोग से एकत्र हुए लोगों में कोई स्वार्थ सामूहिक रूप से पूरा करने के लिए, कोई तंत्र उत्पन्न करके, जबरदस्ती थोपी हुई एकता नहीं है।
विविधता हमारी विशेषता
संपूर्ण सृष्टि के मूल में जो एकता है, उसे प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उस एकता के भान में से पैदा हुआ यह आत्मीय संबंध है। इसलिए चाहे जिसका दबाव बनाओ और छोटे-छोटे स्वार्थ अलग प्रकार के हों, हम लोग एक घर के, एक बनकर रहेंगे, इस प्रकार के दृढ़ भाव से सब लोगों को जवान, वृद्ध, महिला-पुरुष, जंगलों में रहनेवाले वनवासियों से लेकर अंतरराष्ट्रीय उद्योग चलानेवाले उद्योगपतियों तक को ओत-प्रोत होने की पहली आवश्यकता है। जिस सत्य के आधार पर हमारा यह राष्ट्र बना है, उस सत्य की अपेक्षा में हमारा गंतव्य क्या होना चाहिए, सृष्टि के सारे क्रियाकलापों में योगदान देने के लिए हमारा कर्तव्य क्या होना चाहिए? इसके बारे में सबकी समझ होनी चाहिए। यह गंतव्य और यह हमारा स्वरूप निश्चित होने के कारण उसके आलोक में आज की परिस्थिति में जो-जो यहाँ बिखरा है, उस पर क्या विचार करना है, क्या चर्चा करनी है, इसकी नीति उसके संदर्भ में बननी चाहिए। यह जब तक होगा नहीं, तब तक संवाद नहीं चलेगा, विसंवाद ही रहेगा। ये छोटे-छोटे स्वार्थ तो सबके अलग-अलग हैं, विविधताओं से भरा हुआ देश है। पंथ, संप्रदाय, जाति, उप-जाति, भाषा, प्रांत कितनी बातें हैं! इन सबको एक रसायन के आधार पर उनकी विविधता-विशेषता कायम रखते हुए, उनको बढ़ाते हुए, सब बातें होनी चाहिए और हजारों वर्षों से एक दिशा में चलानेवाली जो राष्ट्रीयता है, उस राष्ट्रीयता के आधार पर सबका विचार स्पष्ट हो, उस राष्ट्रीयता के आधार पर सब समाज में संवाद चले। ऐसा स्वतंत्रता के बाद होना चाहिए था, लेकिन आज तक ऐसा हुआ नहीं है।
भौगोलिक एकता की घोषणा तो बहुत देर से हुई है, चर्चा तो बहुत हुई; लेकिन भौगोलिक एकता के पीछे भावना कौन सी है, इसकी स्पष्टता नहीं है। इसलिए स्पष्टता को उत्पन्न करना, उसके प्रकाश में परिस्थिति को कैसे देखना, इसके विचार समाज में लाते रहना-यह काम निरंतर करते रहनेवाले ये दो साप्ताहिक हैं और यही उनको करना है। यह काम स्वयंसेवकों ने इन दो नामों से प्रारंभ किया है और चला रहे हैं। उसके पीछे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम के संगठन में मिला संस्कार और प्रेरणा है। लेकिन वह संस्कार ही उनको कहता है कि मत अलग-अलग हो सकते हैं, मन अलग-अलग नहीं होना चाहिए। हमारी तो पहले से परंपरा है, मतों को लेकर एक-दूसरे से वाद करना, शास्त्रार्थ करना किसलिए-तत्त्वबोध के लिए। यह हमारी परंपरा है और आज तो हमने प्रजातांत्रिक रूप को स्वीकार किया है। उसमें तो है ही कि मैं तुम्हारी बात को बिल्कुल भी नहीं मानता, लेकिन अपनी बात को तुम रख सको, इसके लिए मैं प्रतिबद्ध हूँ। इस प्रकार का वातावरण दिखता नहीं और इस प्रकार का वातावरण माध्यमों के कारण उत्पन्न हो रहा है, ऐसा भी दिखता नहीं। जन-प्रबोधन करनेवाले सबकी यह जिम्मेदारी है, दायित्व है, यह कर्तव्य है, जन-प्रबोधन करनेवाले सब लोगों का यह धर्म है।
सत्य का हो संचार
प्रिय ही क्यों, सत्य बोलना है तो सत्य तो कटु भी होता है। लेकिन सत्य बोलने के बाद आदमी जुड़ना चाहिए और आदमी जुड़े इसलिए असत्य मत बोलो। अप्रिय सत्य मत बोलो। यह कुशलतापूर्वक करने का काम है और समाज इसको कुशलतापूर्वक कर सके, इसलिए उसके प्रबोधन करने का कर्तव्य माध्यमों का होता है। जिस जमाने में वृत्तपत्र नहीं थे, प्रिंट मीडिया जिसको कहते हैं, नहीं था, विजुअल मीडिया नहीं था, ऐसा कुछ नहीं था, उस समय आदमी आदमी के पास जाता था। इसकी व्यवस्था थी, तरह-तरह के लोग, तरह-तरह के वेश बनाकर आते थे और ये सारी बातें बताते थे। खेल-खेल में बताते थे, अपनी आजीविका भी उस पर चलाते थे। अब वह समय गया। अब आते ही नहीं, लेकिन यह दायित्व तो है और दायित्व माध्यम होता है। उसको रिझानेवाली बात बननी चाहिए, कैसे बनेगी, नमक के घोल में सेर नमक को एक स्फटिक के रूप में जमा करना है, तो पहले किसी नमक के स्फटिक को बाँधकर उसमें टाँगना पड़ता है। घुला हुआ नमक अगर स्फटिक के रूप में फिर से लाना है, तो स्फटिक का रूप लेकर किसी को वहाँ अंदर घोल में रहना पड़ता है। वह स्वयं घुल न जाए, वह बना रहे स्फटिक के रूप में तब सारा नमक उस स्फटिक के नाते उसमें जमा होता है। तो उदाहरण के रूप में राष्ट्रीय पत्रकारिता को चलाना यह काम है। हम सब लोग यह कह सकते हैं, यह देख रहे हैं कि वर्षों की लंबी परंपरा में ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ दो ऐसे नाम हैं, जिन्होंने इतने दशकों तक इस व्रत को अखंड-अक्षुण्ण रखा है। यह एक व्रतस्थ होकर अपनी परंपरा को अखंड-अक्षुण्ण रूप से निभाना, यह बात न बदलनेवाली बात है और उसका बार-बार पालन किया है। बाकी सब बदले, वह बदलना ही पड़ता है, समय के अनुसार रूप बदलना पड़ता है। लेकिन रूप के पीछे जो व्यक्ति है, अंदर का जो व्यक्त होता है, उस रूप के माध्यम से वह वहीं रहता है और वह समय को देखता है और उसके लिए चलता है, वह कालजयी बनता है। ऐसी कालजयी यात्रा जो करते हैं, उनके उद्घोष में यह सामर्थ्य रहता है कि सोए हुए को जगा सके। दुष्ट बुद्धिवाले को हटा सके और सज्जनों को उनका अधिकार दिला सके। सामान्य लोगों को उनका संदर्भ रहता है।
राम जन्मभूमि के आंदोलन में कौन समाचार ठीक रहेगा कौन नहीं, इसका कोई भरोसा नहीं था, तो आम जनता भी ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ को देखने के लिए भागती थी कि वास्तव में क्या हो रहा है। क्योंकि उनको विश्वास था, उनके ऊपर कि सही क्या है, यह उनको यही बताएगा। यह एक विचारधारा की प्रेरणा है, एक संगठन के स्वयंसेवक हैं, परंतु वह संगठन ही ऐसा है और वह विचार ही ऐसा है, जो कहता है कि ‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति’ कि सत्य एक है, इसलिए एक होकर सबको चलना चाहिए और विचार भी ऐसा है कि वह संगठन की उत्पत्ति नहीं है, वह तो अपने देश का सनातन काल से चलता आया हुआ विचार है, दुनिया का सत्य है, जिसको पहचानने की आवश्यकता आज दुनिया के सामने फिर से उपस्थित हो गई है। इसलिए ये लोग चलेंगे, तो ठीक चलेगा। क्योंकि ये धैर्यशाली लोग हैं। यह जो शब्द प्रयोग यहाँ हुआ, अभी विवेक गोयनकाजी ने भी यहाँ किया, पत्रकारिता कौन सी ‘करेज’, ‘जर्नलिज्म ऑफ करेज’। तो धैर्य और साहस दोनों की ध्वनि है करेज शब्द में। ‘धृत्युत्साहसमन्वितः’ ऐसा देखा गया है, तो जिसके पास धृति नहीं है, वह साहसी नहीं बन सकता, वह दुःसाहसी हो सकता है और जिसके पास साहस नहीं है, उसकी धृति का कोई उपयोग नहीं है। यह तो कायरता हो गई। इसलिए धृति उत्साह समन्वितः चलनेवाले ये लोग हैं, यह विश्वास है। उसका बड़ा महत्त्व होता है।
धृत्युत्साहसमन्वितः
अभी जो दृश्य दिखता है देश में, उसमें ध्यान में आता है कि आधार कहाँ है, कहाँ मिलेगा, इससे लोग परेशान हैं, जहाँ उनको दिखता है, वहाँ जा रहे हैं। परंतु उनको आधार ही देना है तो धृत्युत्साहसमन्वितः वाले लोग आधार दे सकेंगे। विचारों की भूमि में जिनके पैर पक्के जड़े-गड़े हैं, कहाँ जाना है, जिनकी दृष्टि के सामने साफ है, उसे नित्य स्मरण है, वहाँ जाने का अटूट संकल्प जिनके पास है, वे स्वयं की चिंता नहीं करते, वे संकल्प की पूर्ति की चिंता करते हैं। ऐसे लोग जहाँ मिलेंगे, वहाँ जैसा वह सारा नमक एक स्फटिक के रूप में इकट्ठा आ जाता है, वैसा होगा। वैसा होने की आवश्यकता है। इसलिए ‘पाञ्चजन्य’, ‘ऑर्गनाइजर’ का जब मैं विचार करता हूँ, क्योंकि उनकी यात्रा की कठिनाइयों को मैंने भी बहुत करीब से देखा है, सुलझाया उन्होंने ही है, लड़कर अपने रास्ते को निकालनेवाले वीर तो वही हैं। मैं उनका वर्णन करनेवाला एक कार्यकर्ता हूँ। परंतु मुझे एक अंग्रेजी कविता याद आती है, कविता कोई बड़े जगप्रसिद्ध कवि की है, ऐसा नहीं है, लेकिन पाँचवीं की क्लास में अंग्रेजी विषय में हमको वह कंठस्थ करनी पड़ी थी। पाँचवीं की परीक्षा होने के बाद पाँचवीं का पाठ्यक्रम याद रखने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन वह कविता जिसकी याद जीवन भर रहती है, उसका जीवन सफल हो-न-हो, उसका जीवन समाधानी-सुखी तो निश्चित हो जाता है। वह कविता कहती है-‘गॉड गिव मी करेज, टू डू व्हाट इज राइट, करेज टू स्पीक, करेज टू फाइट फॉर ऑनेस्टी, गुडनेस, जस्टिस एंड ट्रुथ, करेज टू डू, इन माई यूथ...’ बाकी तो आसान है, पाँचवीं की कक्षा की जिसकी इंग्लिश ठीक है, वह व्यक्ति इसका अर्थ जान सकता है। लेकिन उससे अगर पूछा जाए कि करेज टू डू गुड इन माई यूथ ऐसा क्यों? बुढ़ापे में भी क्यों नहीं, बचपन में भी क्यों नहीं? तो इन सब सद्गुणों की तारुण्य एक परीक्षा है। ‘यौवनं धनसंपत्ति: प्रभुत्वमविवेकिता’ एक-एक आदमी के जीवन को तबाह कर सकने की क्षमता रखनेवाला विकार है, दुर्गुण है।
चार इकट्ठा आ गए तो क्या होगा, तो एक सुभाषित है। तरुणाई में शक्ति रहती है भटकने की, बुढ़ापे में भटकने का साहस नहीं रहता और बचपन में भटकने की इच्छा नहीं रहती, बड़ों के पीछे चलना। अब मनुष्य की तरुणाई एक अलग विषय है। ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ मैं मानता हूँ कि अभी अपने यौवन में हैं, उनका शैशव समाप्त हो गया है। अभी आ गए हैं, ऐसा नहीं है, कुछ वर्ष हो गए हैं। लेकिन अभी अपने यौवन में हैं। इसलिए इन सब बातों पर ध्यान रखना। नए-नए परिवर्तन अपने जीवन में उत्पन्न होते हैं, यश उत्पन्न होता है, वैभव उत्पन्न होता है, उस समय अविवेक हटाना, विवेक रखना।
विवेक यानी कहाँ जाना है-इसका स्मरण, मैं कौन हूँ-इसका स्मरण। इसके संदर्भ में परिस्थिति का विचार और अपना रास्ता तय करना। सारे समाज में जो भान लाना है, विचारों की स्पष्टता लानी है, उसका उदाहरण इन साप्ताहिकों का विचार बने, इन साप्ताहिकों का चलना बने। अब तक बना है, जो एक बड़ी तपस्वी परंपरा मिली है। उदाहरण अपने सामने हैं, आदर्श अपने सामने हैं और जो आदर्श-कल्पनाएँ उन्होंने दी हैं, हो सकता है, यह उनके जीवन से हम देख रहे हों, यह कठिन नहीं है। कष्टसाध्य है, कष्ट सहने पड़ेंगे, कष्टों से डरना नहीं है, संकटों से डरना नहीं है, विपत्तियों से डरना नहीं है, यह हमारे खून में है। उसका उपयोग करना चाहिए और उसके अनुसार चलना चाहिए। तो उद्यम-साहस, धैर्य ऐसे जो सद्गुणों की संपत्ति है, वे जिनके पास हैं, उनकी दैव भी सहायता करते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यात्रा, ‘पाञ्चजन्य’ की परंपरा, ‘ऑर्गनाइजर’ की परंपरा, ये सब इसकी साक्षी हैं। उसको ध्यान में रखना, उसी दिशा में आगे बढ़ना। तो हम भी जिस बात के लिए इतने सारे कष्ट करके, कठिन यात्रा, प्रवाह के विरुद्ध चलनेवाली यात्रा को धीरे-धीरे उसको बढ़ाते हुए उसको करने में लगे हैं, वह यात्रा बहुत जल्दी संपूर्ण सफलता के साथ सफल होगी, यह विश्वास मन में मेरे भी है, उनके भी है।
~मोहन भागवत.