वाया फ़ुरसतगंज : आधुनिक समाज और राजनीति का आईना

वाया-फ़ुरसतगंज

आप इस शहर को भले छोड़ दें पर ये शहर आपको कभी नहीं छोड़ता-हर पल धड़कता है एक एहसास बनकर…!

वाया फ़ुरसतगंज की कहानी इलाहाबाद की है। इसलिए बात सीधे इलाहाबाद से ही शुरू करते हैं। लेकिन इस शहर के बारे में एक सीधी बात कहना ही शायद सबसे टेढ़ा काम है। इसलिए न चाहते हुए भी बात कहाँ से और कैसे शुरू की जाय, समझ में नहीं आता। अच्छा…! चलिए तनिक कोशिश करते हैं। तो सन्तो…! बड़े-बुज़ुर्ग इसकी सबसे बड़ी पहचान यही बता गये हैं कि जब एक सनातनी चोरी करने जाता है तो इसे इलाहाबाद पुकारता है और जब अपने मरे हुए बाप की अस्थियों का तर्पण करने जाता है तो प्रयागराज…! असल में यह एक ऐसा शहर है जो जितना ज़मीन के ऊपर है उससे कई गुना अधिक ज़मीन के नीचे…! इसकी पुरातनता सर्वविदित है और कदाचित् इसकी लंठई उससे भी अधिक प्रसिद्ध…! यह एक ऐसा शहर है जो जितना समय दोनों पैरों पर खड़ा रहता है उससे कहीं अधिक समय एक पैर पर खड़े रहने के लिए व्यग्र…! साधना और आराधना दोनों के चक्कर में…!! इसके अतिरिक्त यह एक ऐसा शहर भी है कि जीते-जी आप चाहे दुनिया के किसी कोने में साँस लें लेकिन शरीर त्यागने के बाद आपकी अस्थियों की राख यहीं आयेगी, तभी आपको मुक्ति मिलेगी। इसलिए आप अपनी पसन्द से कहीं भी मरना चाहे; लेकिन मरने के बाद भी आपका बहना इसी शहर के भरोसे है…!

पहचानें तो दरअसल इसकी बहुतेरी हैं जिन्हें यदि गिनने-गिनाने पर उतारू हो जायें तो इसे लिपिबद्ध करने के लिए, इसके चारों तरफ़ प्रवाहित होने वाली गंगा और यमुना का पानी भी कम पड़ जाये…! यदि मैं इसका प्रारम्भ इसकी तारीफ़ से करना चाहूँ तो शायद सबसे पहले काशी वाले बिदक जायें; मुँह फुला लें और भोजपुरी की दो-चार ख़ूबसूरत गालियों से मुझे बख़ूबी न्यौत दें…! रिश्ता-नाता ख़त्म कर लें सो अलग…! क्योंकि काशी वालों को अपने से बेहतर कोई शहर नज़र नहीं आता। भोले बाबा की आदिकालीन नगरी और बूढ़े से लेकर नौजवानों तक को सुबह से शाम तक भाँग का गोला लीलने और चिलम चढ़ाने की बेख़ौफ़ छूट…! मस्ती का आलम…! वाह क्या बात है…! क्यों न इसे सबका मन चाहे…!! इसीलिए तो यहाँ विदेशी कन्याएँ तक खिंची चली आती हैं-‘दम मारो दम’ के चक्कर में…! और विदेशी युवा तो सारे दिन गले में गेंदे की माला ऐसे लटकाये फिरते हैं मानो काशीवासियों से हाथ जोड़कर उन्हीं की भाषा में कहना चाहते हों कि ‘ए गुरू…! पहले से ही पहिन रखा है। अब और पहिनाने की कोशिश न करो…!’

लेकिन मेरी मजबूरी है कि चाहकर भी मैं इलाहाबाद की हेठाई कर नहीं सकता। इसको लेकर मैं उतना ही रूमानी हूँ-जितना काशी को लेकर काशीनाथ…! और यदि न चाहते हुए भी सपने में भी, मैं इसकी हेठाई का ज़िक्र कर दूँ तो शहर के तमाम बम-विशेषज्ञों के आक्रोश से बचना मेरे लिए सम्भव नहीं होगा। और विश्वास मानिये…! मैं पल भर में ही ‘धुआँ-धुआँ’ हो जाऊँगा। ‘दम-मारो-दम’ का स्थान ‘बम-मारो-बम’ ले लेगा। तब मुझे न तो गंगा मइया बचा पायेंगी; न सिविल लाइंस के खड़े हनुमान जी बचा पायेंगे और न ही संगम तीरे के पड़े हनुमान जी…!

वाया-फ़ुरसतगंज-आधुनिक-समाज

गंगा, जमुना और अदृश्य सरस्वती इस शहर के जीवन में प्राणवायु की तरह हैं। फ़िलहाल शहर की बसावट देखकर ऐसा लगता है जैसे जीवनदायिनी गंगा, इस शहर के सिर और गालों पर इस कदर हाथ फेर रही हों जैसे कोई माँ गोद में रखे अपने नवजात बच्चे को निरन्तर दुलरा रही हो-पुचकार रही हो…! कई बार गंगा माँ को जब उसके इस दुलार का कोई माक़ूल जवाब नहीं मिलता तो वह भावुक हो जाती है और उसके फेनिल शोर में सारा शहर जलप्लावित होने लगता है। एकबारगी ऐसा लगता है कि गंगा अपने प्रवाह में सब कुछ बहा ले जायेगी। चारों तरफ़ हाहाकार मच जाता है। दारागंज वाले, अल्लापुर वाले, बघाड़ा वाले और गोविन्दपुर वाले-सभी बँधे वाले हनुमान जी के पैरों पर माथा टेकने लगते हैं। तमाम तरह की मन्नतें माँगने लगते हैं। पूरी-पकवान और चढ़ावे चढ़ाने लगते हैं। लेकिन माँ तो माँ ठहरी…! वह अपने कोप से अपने ही बच्चों को कब तक सतायेगी भला…?

धीरे-धीरे गंगा मैया का ग़ुस्सा शान्त होने लगता है। उसका पानी उतरने लगता है। तब दूर-दूर तक फैले रेतीले मैदान और उसकी बाँहों में अक्सर समा जाने वाली ज़मीन पर नरम मिट्टी की एक चादर-सी बिछ जाती है। क़ायदे से गंगा जाते-जाते शहर और आसपास के बाशिन्दों की अनुर्वर होती ज़मीनों को उपजाऊ बना जाती है। परन्तु गंगा भी क्या करे…! जैसे परुआ बैलों में हल का बोझ उठाने की ताक़त नहीं होती वैसे ही यहाँ के अधिकांश होनहार, परुआ बैलों की तरह व्यवहार करते मिल जायेंगे।

परुआ बैलों से इनकी कहानी याद हो आयी। इनकी कथा भी बड़ी विचित्र है। यदि किसी ने कभी धान कटने के बाद उसकी दँवरी-ओसौनी की प्रक्रिया देखी हो तो उसे यह बख़ूबी पता होगा कि खेतों से जब धान के बोझे काटकर खलिहान में दो बैलों की जोड़ी से उनकी दँवरी कराई जाती है तो इन दोनों बैलों में जो सबसे मज़बूत होता है उसे थून्हीं में बाहर की ओर, और जो कमज़ोर होता है उसे भीतर की ओर नाधा जाता है। थून्हीं में बाहर की ओर जिस बैल को नाधा जाता है वह हृष्ट-पुष्ट और मज़बूत होता है और वास्तव में उसी पर पूरी दँवरी का भार होता है। भीतर की ओर जो बैल बँधा होता है वह परुआ होता है; शारीरिक रूप से कमज़ोर होता है; कामचोर और ढीठ होता है। बाहर वाला बैल मेहनत करता है फिर भी मार खाता है। परुआ मेहनत भी नहीं करता, दँवरी का धान भी चबाता रहता है, मौक़ा देखकर धान के डण्ठलों के बीच हगता भी रहता है और मार भी नहीं खाता। देखा जाय तो पूरी दँवरी में इस परुआ बैल की उपादेयता बिल्कुल शून्य है। पर यह इस सिस्टम का इंटीग्रल पार्ट है और इसके बिना दँवरी सम्पन्न नहीं हो सकती। उसको बनाये रखना किसान की मजबूरी भी है और अनिवार्यता भी।

इसी तरह इलाहाबाद की धरती पर ऐसे तमाम वीर, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘लहकट’, ‘बकैत’ और न जाने क्या-क्या कहा गया है, मिल जायेंगे जो यों तो सुबह से शाम तक कुछ भी नहीं करते; इलाहाबाद के विकास में उनका योगदान धेला भर भी नहीं है; अपने चारों तरफ़ फैले उर्वर माटी में ‘झड़ी झाँट’ भी नहीं उगा सकते; सुबह से शाम तक यहाँ-वहाँ केवल बकैती पेलना उनका एकमात्र जीवन-धर्म है। विधाता ने भी मारे डर के, इनके ज़िम्मे केवल ‘खाना-पचाना-हगना और सोना’ केवल यही चार काम सौंपे हैं। पर क़ायदे से अपने इस ‘साधु-रूप’ में भी ये इस शहर की शान हैं और यहाँ की ठेठ संस्कृति के इंटीग्रल पार्ट हैं। इनके बिना इलाहाबाद की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यहाँ पर जनाब अकबर इलाहाबादी साहब का एक शेर याद आता है के-

कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के

याँ धरा क्या है ब-जुज अकबर के और अमरूद के।

तो अकबर इलाहाबादी साहब को भी इलाहाबाद में यदि कुछ दिखा तो एक तो वे स्वयं थे और दूसरी चीज़ थी-यहाँ की सेब के माफिक़ लाल-लाल अमरूद। बाक़ी चीज़ें उन्हें भी समझ में नहीं आयीं। सम्भव है कि अकबर इलाहाबादी साहब ने किसी ग़ुस्से या खीझ में यह शेर लिख दिया हो; क्योंकि उनके कई शेर ऐसे भी हैं जो इलाहाबाद का बखान करते हैं। और उनके स्वयं के नाम में ‘इलाहाबादी’ शब्द का जुड़ना इलाहाबाद के किसी बखान से कम नहीं…!

ऐसा लगता है अकबर इलाहाबादी साहब के आक्रमण की मूल वजह यहाँ की सुस्त जीवन-शैली है। असल में यह एक बेहद सुस्ताया-सा शहर है जो जागने के बाद नित्यप्रति चाय के साथ अपनी दिनचर्या की शुरुआत करता है और दही-जलेबी संग जशेर की अँगड़ाई लेता है…! जिसने कभी इस शहर में वास किया हो उसे प्रयाग स्टेशन के प्लेटफ़ार्म नम्बर एक से टहलते हुए, लल्ला चुंगी होते हुए यूनिवर्सिटी रोड की किताब वाली गलियों से होते हुए कटरा बाज़ार में गुम हो जाना, फिर नेतराम की कचौड़ियाँ उड़ाते हुए लक्ष्मी टाकीज पर चाय और समोसे की पार्टी उड़ाना-कैसे भूल सकता है भला…!

बालेन्दु-द्विवेदी

कटरा मोहल्ला एक ओर यहाँ के मध्यवर्गीय परिवारों के लिए आकर्षण का कारण है; वहीं युवाओं के आकर्षण का केन्द्र भी है। सारा दिन यह मार्केट भीड़-भाड़ से अटा पड़ा रहता है। शाम होते-होते तो इसका आलम यह होता है कि आप इसके बीच से कितना भी बचकर निकलें, आपका शरीर दूसरे के शरीर से रगड़ ही जायेगा। बल्कि यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले बहुतेरे युवा तो केवल इस रगड़ की लालच में ही शाम को यहाँ घूमने आते हैं और थोड़ी देर ठिठक कर गणेश की दुकान पर इतिहास, दर्शन और साहित्य की चाशनी के विमर्श के साथ सड़कों पर भाग रहे सौन्दर्य का निंद्य-अनिंद्य दर्शन कर लेना चाहते हैं।

फिर कटरा और कर्नलगंज की सन्धिस्थल पर स्थित राजू, चन्दन, गोलू, गणेश नामधारी तमाम चाय की दुकानों के सामने लगे बेंचों पर दोनों टाँग फैलाकर बैठे छात्रों के, ज्ञानवितरण और ज्ञानार्जन का तरीक़ा आपको अक्सर हतप्रभ कर देगा। यहाँ के वातावरण में बौद्धिकता का आलम यह है कि यूनिवर्सिटी रोड पर निरक्षर किताब बेचने वाला भी किसी विषय के प्रोफ़ेसर से ज़्यादा किताबों और लेखकों के नाम जानता है। और कृष्णा कोचिंग के एक कोने पर सड़क के किनारे बैठा हुआ हस्तरेखा विशेषज्ञ तो कांट, हेगल और हुसर्ल पर आपसे इस क़दर बात करेगा मानो अपने यूनिवर्सिटी के दर्शनशास्त्र विभाग के तमाम प्रोफ़ेसरान करते हैं…!

यों कर्नलगंज भी कटरा से कम मादक नहीं है। विश्वविद्यालय के सबसे क़रीब होने के कारण अब यह घरनुमा दुकानों और दुकाननुमा घरों में बदल-सा गया है। यहाँ पंडीजी का सकौड़ा और बुढ़ऊ दादा के दुकान की कुल्हड़ में मलाई वाला दूध भुलाये नहीं भूलेगा। वहीं कुछ दूर पर ख़ामोश खड़े आनन्द भवन के साये में आलू टिक्की और फुलकी दबाना कोई कैसे विस्मृत कर पायेगा…! थोड़ा और आगे जाने पर सदियों का इतिहास समेटे कम्पनी बाग़, जो शहर का हृदयस्थल है, सुबह-शाम स्वास्थ्य को लेकर सचेत रहने वाले समाज के विविध तबक़ों की आवाजाही से गुलज़ार रहता है और बीच की अवधि में नव प्रेमी-प्रेमिकाओं के स्निग्ध आलिंगन और चुम्बन से…!

यह शहर अपने इस तेवर में एक विचित्र क़िस्म का सामाजिक-सांस्कृतिक कलेवर लेकर जीता है। सामान्य तौर पर यहाँ उच्चवर्ग के बाशिन्दों की संख्या अपेक्षाकृत कम दिखायी देगी, लेकिन जो उच्चवर्गीय समाज के लोग हैं-उनके संस्कार सीधे दिल्ली और मुम्बई जैसे शहरों से जुड़े दिखायी देंगे। फ़िलहाल मध्यवर्ग यहाँ का एक बड़ा वर्ग है और इसकी रोज़मर्रा की जीवन-चर्या में उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के संस्कारों का घाल-मेल है। इसलिए यहाँ एक ही आदमी कई संस्कृतियों को अपने दिनचर्या में निभाता मिल जायेगा-बड़े शान से, बड़े ही आत्मविश्वास से…! फिर यहाँ उत्तर प्रदेश के विभिन्न कोने से आकर बसे एक ही बिरादरी के अलग-अलग संस्कृतियों में जीने वाले भी ख़ूब मिलेंगे। जैसे पण्डित मिलेंगे तो सरयूपारीण से लेकर कान्यकुब्ज तक और पण्डा से लेकर शाकलद्वीपी-मोहपातर तक; फिर क्षत्रियों, कायस्थों और बनियों की तो इतनी प्रजातियाँ मिल जायेंगी कि स्वयं विधाता को भी अपना रजिस्टर खोलकर मिलान करना पड़ जाये…!

यहाँ के मध्य आयु वर्ग के युवाओं में आलस्य एक सार्वभौमिक विशेषता है। किसी से मिलने के लिए समय माँगो तो वह बारह बजे के पहले आपको समय नहीं देगा; क्योंकि वह अमूमन सोकर उठता ही है बारह बजे…! लेकिन जब वह आपसे बारह बजे आने को कहेगा तो उसके चेहरे से ऐसा लगेगा कि वह आप पर कोई एहसान कर रहा हो और सारी रात किसी रोबोट के अनुसन्धान में लगा रहा हो…! फिर दोपहर में सोने के लिए भी उसे समय चाहिए। उसका सीधा फंडा है-‘फ़ायदा हो या नुक़सान/एक घण्टे चादर तान/जय जवान/जय किसान/जय लेटे हनुमान…!’

हनुमान जी से याद आया कि यहाँ का हर आदमी हनुमान जैसा ही है। जब तक उसे अपनी ताक़त का ज्ञान नहीं है, तब तक कुण्डली मारे कोने में दुबका रहेगा; लेकिन ज्यों ही किसी जामवन्त ने उसे उसकी मेधा से परिचय कराया, समझिये उसी दिन कर्नलगंज के राजू चायवाले की दुकान से पाकिस्तान के ऊपर मिसाइलों से सीधा हमला पक्का है। यह अलग बात हो सकती है कि ऐसे लगातार इलाहाबादी हमलों के बावजूद, दुश्मन देश जस-का-तस खड़ा रह जाय।

यहाँ निम्न वर्ग के बाशिन्दों की संख्या अपेक्षाकृत सबसे ज़्यादा है लेकिन उनकी निपट स्थानीयता, उनकी भाषाई एकरूपता और उनका सांस्कृतिक अन्दाज़ एकदम अक्षुण्ण है; उसमें तनिक भी घालमेल या मिलावट कहीं से नहीं है। यह एकरूपता झूँसी से लेकर धूमनगंज तक और फाफामऊ से लेकर नैनी तक एक जैसी है-बात चाहे गालियों की बौछार से शुरू होने वाली बतकही की हो या फिर गंगा-यमुना के रेत में बम बाँधने की कला सीखते नौजवानों के अन्दाज़ की…! चाहे शहर के मुहल्लों-कंडैलगंज, लछमी टाकिस, सिबिल लैन के नाम के उच्चारण की एकरूपता की हो या फिर ‘चरस बोइ दिहिस’, ‘अरदब देइ रहा है में’ के माध्यम से विचारों के आदान-प्रदान की…! इनके लिए ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ किसी वर्णमाला के परम्परागत चिद्द भर नहीं हैं बल्कि इनका एक नितान्त आधुनिक और क्रियात्मक अर्थ भी है-मसलन ‘क’ से कट्टा, ‘ख’ से खंजर और ‘ग’ से गुंडई…! ‘कट्टा, खंजर और गुंडई’ रूपी त्रयी का अनिवार्य ज्ञान यहाँ सड़क के किनारे अनवरत चलने वाली शिक्षा में प्रवेश के आवश्यक अंग हैं। जिसे इनके मूलभूत ज्ञान का अभ्यास नहीं, उसे इन दैनन्दिन कक्षाओं में प्रतिभाग करने का भी कोई अधिकार नहीं…!

तो कुछ ऐसा है हमारा इलाहाबाद…! स्वभाव से अक्खड़, मिज़ाज से फक्कड़…! तहज़ीब में बिल्कुल ठेठपन, बातचीत में खासा ऐंठपन…! स्वभाव में लंतरानी और असल में कलकल करती नदी का बहता पानी…!! एक अजीब तरह की मदहोशी है इस शहर में। एक ख़ास क़िस्म का अल्हड़पन भी-जैसे कोई ज़िन्दगी अपनी जवानी पर जाकर ठहर-सी गयी हो…! कहाँ से मिलेगा ये सब एक दौड़ते-भागते महानगर में…!! आप इस शहर को भले छोड़ दें पर ये शहर आपको कभी नहीं छोड़ता-हर पल धड़कता है एक एहसास बनकर…! हम चाहे दुनिया के किसी भी कोने में जाकर बस जायें; जुबाँ पर इसका नाम आते ही मन करता है कि सारी दुनिया को छोड़कर बस वापस लौट जायें; उन्हीं बेपरवाह गलियों में-हमेशा के लिए…!! 

~बालेन्दु द्विवेदी.

(वाणी प्रकाशन से लेखक का नया उपन्यास 'वाया फ़ुरसतगंज' प्रकाशित हुआ है।)

वाया फ़ुरसतगंज 
लेखक : बालेन्दु द्विवेदी
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 280
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