नीलांचल चन्द्र : प्रेम, करुणा, भक्ति का यात्री

नीलांचल-चन्द्र'-चैतन्यदेव

नीलांचल चन्द्र' चैतन्यदेव की जीवन यात्रा पर रचित उपन्यास में बचपन की स्मृतियों ने बीजवपन किया; शोध-यात्रा के दौरान इसका पूर्ण प्रस्फुटन हुआ और वर्तमान माहौल की त्रासदियों के बीच उपन्यास ने प्रस्तुत आकार ग्रहण किया।

श्रावण के महीने में वृन्दावन धाम में हरिगोविन्द जी की गौरांग लीला को देखकर पूरा पण्डाल सिसकने लगता था, संगदिल की आँखें भी छलछला जाती थीं तो भावुक भक्तों के कहने ही क्या थे? किन्हीं की आँखों से आँसुओं की फुहारें छूटतीं तो किन्हीं की आँखें रोते-रोते लाल जवाकुसुम के रंग-सी हो जातीं। निमाई का गृह-त्याग और शची माँ की वेदना देखकर आँसुओं के वेग को रोकना बहुत ही मुश्किल हो जाता। मैं उस समय छोटी-सी थी, नहीं जानती लीला के उस दर्शन को समझ पाती थी या नहीं, हो सकता है रुलाई के संक्रमण का शिकार हो जाती होऊँ परन्तु स्मृतियों के झूले में बैठकर आज जब उन दृश्यों को द्रष्टा की तरह देखती हूँ तो मुझे अपना चेहरा भी उस कालखण्ड में आँसुओं से तरबतर दिखायी पड़ता है। अपनी सन्तान से बिछुड़ने के माँ के दुःख को उस समय भी महसूस कर सकती थी। शची माँ के रुदन में मुझे अपनी माँ की वेदना की झिलमिलाहट ज़रूर मिलती फिर भी मेरा मन यही करता कि एक दिन मैं भी चैतन्यदेव की तरह संन्यास लूँगी।

बचपन की हसरत बढ़ती उम्र के साये में धुंधली पड़ती गयी। संन्यास तो नहीं ले पायी, लेकिन विवाह के पश्चात अपनी माँ को छोड़कर चली आयी अपने पति के साथ और संन्यासी बनते-बनते एक स्त्री बन गयी। स्त्री की पीड़ा, उसकी घुटन, उसकी व्यथा, समाज में उसके दोयम दर्जे की स्थिति, धार्मिक जगत् में उसका तिरस्कार आदि एक से बढ़कर एक पाखण्डपूर्ण त्रासदियों को देखकर मन में भयंकर बवण्डर चलने लगा।

इन्हीं मानसिक स्थितियों में मेरे मन में अवस्थित करुणावरुणालय चैतन्यदेव का सिंहासन हिलने लगा। अब मेरे सामने विष्णुप्रिया थी, बीस वर्षीया विष्णुप्रिया, एक ऐसी स्त्री जिसका मात्र चार वर्ष पहले गौरांग देव से विवाह हुआ था, जिसके पैरों की आलता की लाली अभी मद्धिम भी नहीं हुई थी उसी विष्णुप्रिया को अँधेरी रात में सुप्तावस्था में छोड़ निमाई चले गये चैतन्यदेव बनने। कोमल हृदय, करुणावरुणालय कहलाने वाले चैतन्यदेव हमें पाषाण हृदय लगने लगे।

थोड़ा और समय बीता। चैतन्यदेव के प्रति मानसिक अवधारणा में फिर से बदलाव आया। शोधपरक अध्ययन और वर्तमान के सन्दर्भ ने धारणा के बदलाव में प्रेरक कार्य किया। गौरांग देव का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेमोन्माद मन में उछालें मारने लगा। चैतन्यदेव के ऊपर अपना शोध-प्रबन्ध लिखते समय एक बात समझ में आयी कि चैतन्यदेव के सन्देश को अगर एक शब्द में व्यक्त किया जा सकता है तो वह शब्द है -प्रेम-प्रेम के बिना विश्व की कल्पना नहीं की जा सकती। जिस तरह सिर्फ ईंट पर ईंट रखकर महल नहीं बनाया जा सकता उसी तरह बहुत अधिक मात्रा में भोग्य पदार्थों को इकट्ठा कर देने से मानव सभ्यता नहीं बच सकती। प्रेम के बिना मनुष्य की सभ्यता पागलखाने में बदल जायेगी। मानवीय प्रेम एक दिन में जन्म नहीं ले सकता और न हजारों भाषणों, सभाओं या सम्पत्तियों से लाया जा सकता है। मनुष्य और मनुष्य के बीच सम्बन्ध किसी नकली बन्धन से नहीं बाँधा जा सकता है। यह प्रेम तभी स्थापित हो सकता है जब मनुष्य के अन्तस् में रहने वाले ईश्वर से सहृदय सम्बन्ध बनाया जा सके। चैतन्यदेव ने यही किया अपने प्रेम में हिंसक वन्य पशुओं से लेकर दुर्दान्त दुर्जनों को भी सज्जनता के नये अवतरण में लाकर समाज के सम्मुख खड़ा कर दिया। स्वामी विवेकानन्द का मानना है -पृथ्वी पर आज तक जितने आचार्य हुए इनमें श्री चैतन्यदेव श्रेष्ठतम हैं। उनके प्रेम की कोई सीमा नहीं थी, पुण्यवान, पापी, हिन्दू, मुसलमान, पवित्र, अपवित्र, जातिच्युत एवं समाज परित्यक्त सभी को प्रेम दिया, आश्रय दिया।

लगभग साढ़े पाँच सौ वर्षों से चैतन्यदेव सिर्फ बंगाल ही नहीं वरन् भारतीय संस्कृति के जननायक रहे हैं। लाखों के प्रणेता रहे हैं। महात्मा गाँधी और विनोबा की आँखों से चैतन्यदेव के नाममात्र से प्रेमाश्रु निकलने लगते थे। वस्तुतः चैतन्यदेव का प्रेम दर्शन आत्मा का श्रृंगार है। इसे पाकर ही मानवता पुष्ट होती है। चैतन्यदेव ने प्रेम से परिपूर्ण मीठे वचनों से अहिंसात्मक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन दिया। चैतन्यदेव का दर्शन है -प्रेमास्त्र, यह आणविक अस्त्रों से भी अधिक शक्तिशाली होता है। आणविक अस्त्र मनुष्य की देह पर ही प्रहार करता है किन्तु प्रेमास्त्र उसके अन्तरतम के मर्मस्थल पर प्रहार करता है। आणविक अस्त्र विनाशकारी होता है जबकि प्रेमास्त्र कल्याणकारी होता है। स्वयं प्रेम का मूर्तिमान रूप बनकर चैतन्यदेव ने समाज और संस्कृति में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया था।

चैतन्यदेव को कोई भक्तावतार कहता है, कोई प्रेमावतार, उनके अनुयायी तो इन्हें राधा भाव से भावित साक्षात् श्रीकृष्ण ही मानते हैं, ईश्वर ही मानते हैं। परन्तु ईश्वर पर उपन्यास नहीं लिखा जा सकता है, इसी से मेरे चैतन्यदेव महामानव हैं जो यह महसूस करते हैं, उनसे एक भूल हुई है-अपनी माँ एवं पत्नी को त्याग करने की भूल, जीवन भर वे इसे महसूस भी करते हैं। माँ से तो क्षमा भी माँगते हैं पर पत्नी के प्रति वाणी से मौन हैं, उस समय की संन्यास की कठोर मर्यादाएँ शायद उन्हें इसकी इजाजत नहीं देती होंगी। उनके संन्यास की मर्यादा उन्हें राजा प्रताप रुद्र को अपने समीप तक आने से रोकती थी। जहाँ चैतन्यदेव संन्यास की मर्यादाओं में इतने कठोर थे, वहीं श्रीकृष्ण के प्रेम में राधा की तरह महाभाव में अवस्थित थे। श्रीकृष्ण प्रेम में ऐसे डूब गये कि भूल गये अपने आपको, सुध ही नहीं रही कि वे निमाई हैं या गौरांग...। निमाई, चैतन्यदेव यह सोचकर बने कि अपने प्यारे गोविन्द को पा लेंगे लेकिन नहीं पा सके, तब तक, जब तक उनका अन्तस् विष्णुप्रिया नहीं बन गया। उन्होंने पूरी दुनिया को एक नूतन सन्देश दिया कि कोई भी व्यक्ति बिना स्त्री हृदय हुए प्रेम की उस ऊँचाई पर नहीं पहुंच सकता जिससे प्रेम स्वरूप ईश्वर की प्राप्ति हो सके।

यह दुनिया में प्रेम, करुणा, भक्ति का विस्तार करते हुए एक ऐसे महामानव की गाथा है जो ईश्वर से मिलने के लिए स्वयं भाव की उच्चतम अवस्था महाभाव में भावित होकर प्रेमपुरुष नीलांचल चन्द्र बन जाता है। इस परावर्तन से चैतन्यदेव स्वयं न स्त्री रहे और न पुरुष, वे प्रेम स्वरूप अर्थात ईश्वर स्वरूप बन गये।

मेरा यह नीलांचल चन्द्र, जीवन-भर धार्मिक पाखण्डों, कुरीतियों, अन्धविश्वासों के साथ संघर्ष करते नहीं थकता, अपने जाग्रत प्रेम से लोगों को अभिसिंचित करता हुआ भारत देश को ज्योतिमर्य बनाने हेतु कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता। हमारा देश फिर से नीलांचल चन्द्र के मार्गों का अनुसरण करे जिससे सभी जातियों और सम्प्रदायों में प्रेम और सद्भाव की गंगा प्रवाहित हो।

~सुजाता.

नीलांचल चन्द्र
लेखक : सुजाता
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 288
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