त्रिलोकनाथ पांडेय के इस उपन्यास के कई संस्करण छप चुके हैं. यह लेखक की दूसरी किताब है.
त्रिलोकनाथ पांडेय का उपन्यास 'चाणक्य के जासूस' एक ऐसा उपन्यास है जिसमें हज़ारों साल पूर्व के इतिहास को रोचकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। इसे जासूसी कला को समझने वाले जरूर पढ़ें या जिन्हें गुप्तचरी कला पसंद है। शायद ही किसी विषय को इस अंदाज़ के साथ हिंदी में कभी समझाया गया हो। त्रिलोकनाथ जी ने चाणक्य के जासूसी संसार को हमसे साझा किया है कि किस तरह बिना अधिक बल के बुद्धि का सफलतापूर्वक प्रयोग कर एक शक्तिशाली राजा को परास्त कर दिया। यह सब सम्भव हुआ जासूसों की एक छोटी फौज से जिसे चाणक्य ने प्रशिक्षित किया।
'चाणक्य के जासूस' का प्रकाशन किया है राजकमल प्रकाशन ने। लेखक त्रिलोकनाथ पांडेय के इस उपन्यास के कई संस्करण छप चुके हैं। यह लेखक की दूसरी किताब है। इससे पहले 'प्रेम लहरी' भी खूब चर्चित रहा है। लेखक भारत सरकार के गृह मंत्रालय में वरिष्ठ अधिकारी के तौर पर कार्यरत रहे हैं। कार्यकाल के दौरान विशिष्ट सेवाओं के लिए आपको राष्ट्रपति से भी पदक मिल चुका है तथा अन्य अवसरों पर भी सम्मानित हुए हैं।
उपन्यास के अनुसार मगध के सम्राट धननंद को उसके पद से अपदस्त करना बहुत मुश्किल कार्य था। वह इतना शक्तिशाली था कि बाकी राजाओं को उससे पराजय का भय सताता था। इसलिए उससे उलझना कोई नहीं चाहता था।
सत्ता का मद ऐसा होता है कि वह किसी को भी अंधा कर सकता है। सत्ता की ताकत ने राजाओं को भगवान की तरह महसूस करने पर मजबूर किया। प्रजा पर अत्याचार इसी का नतीजा था। स्वयं को शक्तिशाली समझना और प्रजा पर राज करना किसी भी राज्य के घातक होता है।
ऐसी जगह विद्वान और गुरुओं का सम्मान नहीं होता। चाणक्य ने यह बीड़ा उठाया कि वे अपने बुद्धिबल और कूटनीति के जरिए धननंद को परास्त करेंगे तथा उसके अत्याचारी शासन से प्रजा को निजात दिलाएंगे।
धननन्द के पास भी ऐसे लोग थे जो जासूसी कला में प्रवीण थे जैसे महामात्य कात्यायन। उसे इतिहास में राक्षस का दर्जा हासिल है। उसकी क्रूरता के किस्सों से इतिहास लाल है। उसमें नैतिकता नहीं थी, बल्कि स्वार्थपरता थी। उसकी जासूसी केवल राज्य की सत्ता के लिए थी।
चाणक्य ने अपने शिष्यों को मगध की जनता की भलाई के लिए जासूसी में प्रशिक्षित किया। उनका उद्देश्य था जनकल्याण। यही वजह रही कि उन्होंने एक कला को इस तरह इस्तेमाल किया कि बिना कतरा खून बहाए धननन्द का राज्य चन्द्रगुप्त के पास आ गया। चन्द्रगुप्त चाणक्य का शिष्य था जिसने मगध की प्रजा का कल्याण किया और नए भविष्य का निर्माण किया।
किताब में एक जगह चाणक्य ने अपने शिष्यों को गुप्तचरी के बारे में विस्तार से समझाया है। देखें —‘गुप्तचर्या भयावह कार्य है। इसमें पग-पग पर सजग गोपनीयता की आवश्यकता पड़ती है। चाहे गुप्तचर को अपनी पहचान छुपानी हो, चाहे साधन और साध्य की गोपनीयता हो या चाहे एकत्र की गई सूचनाओं को गोपनीय रखने की आवश्यकता-हर जगह गोपनीयता की आवश्यकता पड़ती है। गोपनीयता हटी, दुघर्टना घटी। सारा का सारा अभियान असफल हो जाता है यदि गोपनीयता की श्रंखला किसी भी बिन्दु पर कमजोर हो जाती है। इससे न सिर्फ अभियान व्यर्थ हो जाता है, बल्कि गुप्तचर का स्वयं का जीवन भी खतरे में पड़ जाता है। यदि गुप्तचर द्वारा एकत्र की गई सूचना गलती से शत्रु के हाथ लग जाती है जो विस्फोटक परिणाम हो सकते हैं। गुप्त अभियान के सारे प्रयास क्षण भर में ध्वस्त हो जाते हैं। इसीलिए कहा गया है कि एक गुप्तचर के पकड़े जाने पर एक सहस्र सैनिकों के मारे जाने के बराबर क्षति होती है।’
ऐसे उपन्यास बहुत गहन शोध और तैयारी के साथ लिखे जाते हैं। इसे पढ़कर और ऐतिहासिक तथ्यों को जानकर यह कहना गलत नहीं कि त्रिलोकनाथ जी ने लंबी रिसर्च की है।
जासूसी विधियों को बेहद सरल तरीके से पाठकों को समझाया भी है। यहाँ आधुनिक संदर्भ भी शामिल हैं।
'चाणक्य के जासूस' के बाद हम चाणक्य को और अच्छे से समझ पाए हैं। वे राजनीति शास्त्र के ज्ञाता तो थे ही अपितु जासूसी कला में भी महारथ रखते थे। यह उपन्यास बहुत दिलचस्प है।