संघम् शरणम् गच्छामि : आरएसएस के सफ़र का एक ईमानदार दस्तावेज़

संघम्-शरणम्-गच्छामि

बेशक, संघ राजनैतिक संगठन नहीं है, लेकिन राजनीति को ज़िन्दगी का अहम हिस्सा मानता है.

उस वक़्त मैं दिल्ली के राजेन्द्र प्रसाद मार्ग पर सांसद वाले बंगले में सुन्दर सिंह भंडारी के साथ बैठा चाय पी रहा था। ख़बरिया चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी, “सुन्दर सिंह भंडारी को राज्यपाल नियुक्त किया गया।” मैंने उनसे पूछा, “अब तो राजभवन जाने की तैयारी करनी पड़ेगी?” भंडारी जी ने हल्की मुस्कराहट के साथ मोटे चश्मे के बीच आँखें फैलाते हुए जवाब दिया था, “तैयारी क्या करनी है, यह सामने बक्सा रखा है, उठाकर चल देंगे।”

बाद में कभी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भाजपा के कुछ नौजवान नेताओं से भंडारी जी का जिक्र करते हुए कहा था, “मैं चाहता हूँ कि हमारे कार्यकर्ता और नेता जानें कि यह संगठन और विचारधारा कैसे आगे बढ़ी है। इसमें सुन्दर सिंह भंडारी जैसे नेता थे, जो रोज सवेरे कपड़े में रोटी बाँधकर साइकिल पर निकल जाते थे और कई बार उस रोटी को पानी में भिगोकर भी खाना पड़ता था।”

भंडारी जी जैसे बहुत से उदाहरण मिल सकते हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को आन्दोलन और तपस्या की तरह आगे बढ़ाया है। ऐसे बहुत से लोगों को मैं जानता भी हूँ और बहुत से किस्से भी सुने हैं। इन्हीं मिसालों से समझा जा सकता है कि अपने सौ साल के सफ़र के करीब पहुंचकर भी संघ इतना सशक्त और बड़ा संगठन कैसे है!

देश में गिने-चुने संगठन ही होंगे जिन्होंने सौ साल पूरे किए होंगे, और अभी भी संघ की तरह सक्रिय हैं। संघ की इस राह में तपस्या, आन्दोलन, जेल जाने की कहानियां, तीन-तीन बार लगा प्रतिबन्ध है। आलोचकों और विचारधारा के विरोध के सैकड़ों स्वर हैं। कोई इसे साम्प्रदायिक संगठन कहता है, कोई कट्टरवादी हिन्दू संगठन; कोई उसे बन्द दरवाज़ों के भीतर रहस्यमयी संगठन मानता है तो कोई पुरातनपंथी। कुछ को लगता है कि इन बीते 95 साल में संघ में कुछ भी नहीं बदला है।

आमतौर पर लोग संघ को सिर्फ़ उनके इलाक़े में लगने वाली दैनिक शाखाओं से जानते हैं, लेकिन ज़्यादातर को इसका अहसास ही नहीं कि आम जिन्दगी का कोई पहलू या क्षेत्र नहीं है, जहाँ संघ, उसके आनुषंगिक संगठनों और गतिविधियों की हिस्सेदारी ना हो। संघ के आज करीब 1,75,000 सेवा प्रकल्प चल रहे हैं। देश के बाहर करीब 40 देशों में उसके संगठन हैं। देशभर में हर दिन 60,000 से ज़्यादा शाखाएं चलती हैं।

कुछ लोग मानते हैं कि संघ एक खुला संगठन नहीं हैं। वह विचारधारा का डंडा चलाने वाला अपरिवर्तनीय और ‘एकचालुकानुवर्ती’ यानी ‘संघ प्रमुख’ के आदेश पर चलने वाला संगठन है। कुछ लोग संघ को कबूतरखाने का छोटा बॉक्स मानते हैं जिसमें कोई एक बार फंस गया तो बाहर निकलना असंभव हो जाता है। कुछ लोगों को दिक़्क़त है कि संघ के लोगों को पूरी तरह आदर्शवादी माना जाता है, जबकि संघ में मैं ऐसे लोगों को निजी तौर पर जानता हूँ, जो मानते हैं कि मानव स्वभाव की कमियां और कमज़ोरियों को किसी भी संगठन से अलग नहीं किया जा सकता।

बेशक, संघ राजनैतिक संगठन नहीं है, लेकिन राजनीति को ज़िन्दगी का अहम हिस्सा मानता है। कुछ आलोचक इसे ‘पॉवर विदाउट अकांउटेबिलिटी’ भी कहते हैं। संघ से इसके राजनैतिक आनुषंगिक संगठन भाजपा को ताकत मिलती है तो संघ को भाजपा के ज़रिए अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने में मदद। हालांकि, संघ में ऐसा मानने वाले लोगों की कमी नहीं, जो यह समझते हैं कि संघ की वजह से भाजपा है, भाजपा से संघ नहीं। लेकिन, जिस संघ के कार्यालय में अमूमन सामान्य रिपोर्टर भी झांकने नहीं जाते थे, आज उसी संघ के पदाधिकारियों से मिलने के लिए देश-दुनिया के नामचीन सम्पादकों को महीनों इन्तज़ार करना पड़ता है।

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आज की तारीख में, संघ की विचारधारा से जुड़े लोग राष्ट्रपति भवन और राजभवनों में बैठे हैं, सरकारें चला रहे हैं, विश्वविद्यालयों में कुलपति हैं, विभिन्न सरकारी संगठनों के अध्यक्षों की कुर्सी पर काबिज हैं। यह भाजपा के सत्ता में आये बिना नामुमकिन था। शिक्षा और इतिहास लेखन में अपनी वैचारिकता का रंग डालना इसी वजह से संभव हो पाया।

बिला शक, संघ की ताकत और स्वीकार्यता बढ़ी है, लेकिन सवाल अब भी प्रासंगिक हैं। 2018 में जब सरसंघचालक मोहन भागवत ने दिल्ली में तीन दिन का अपना कार्यक्रम रखा तो मानो सवालों की बाढ़ आ गई, लेकिन सरसंघचालक ने हर सवाल का जवाब दिया। सवाल संघ के स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल होने, आपातकाल में माफ़ी मांगने, सावरकर और संघ के हिन्दुत्व, बाबरी मस्जिद ध्वंस, साम्प्रदायिकता, विभाजनकारी मानसिकता, मुस्लिम विरोध और महिला विरोधी प्रकृति से जुड़े हैं। ज़ाहिर है, इतने बड़े और पुराने संगठन पर किताब लिखने की ज़िम्मेदारी उठाने पर ऐसे सवालों के जवाब भी ढूँढ़ने थे। करोड़ों लोगों से जुड़े और 95 साल पुराने संगठन पर लिखना समुद्र लांघने से कम बड़ा काम नहीं है और मैं कम से कम ‘हनुमान’ नहीं हूँ। फिर, दूसरी मुश्किल यह भी रही कि मैं संघ से कभी सीधा जुड़ा नहीं रहा और न ही कभी किसी शाखा में गया। हाँ, संघ के लोगों के साथ मिलना-जुलना हमेशा चलता रहा। किताब लिखने से पहले भी मैं संघ से जुड़े सवालों के जवाब ढूँढ़ने की कोशिश करता रहा।

सचाई यह है कि संघ के बहुत से लोगों ने मुझे शक भरी निगाहों से देखा, लेकिन यह पत्रकारिता के पेशे से जुड़ा जोखिम है। इस किताब पर काम करते-करते तीन साल से ज़्यादा वक़्त लग गया, संघ के कई पदाधिकारियों सहित सैकड़ों लोगों से मुलाकातें हुईं, नागपुर समेत बहुत से शहरों में गया। संघ का दरवाजा पूरा भले ही नहीं खुला हो, लेकिन खिड़की खुली हुई थी। उस खिड़की से मैं रोशनी भरे संघ के आंगन और घर को देखने की कोशिश करता रहा।

यह दावा क़त्तई नहीं किया जा सकता कि संघ के बारे में सब कुछ इस किताब से जाना जा सकता है, लेकिन इतना भरोसा किया जा सकता है कि जो कुछ लिखा गया है, उसमें भाव निर्विकार हैं, ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से वैर’। इस दौरान संघ के आलोचकों से भी मुलाकात हुई और उन लोगों से भी, जो एक ज़माने तक संघ से न केवल जुड़े रहे, बल्कि ताक़तवर हैसियत में भी रहे जिन्होंने संघ को गढ़ने में अहम भूमिका निभाई और अब वह हाशिए पर हैं। हाशिया कहना भी ग़लत ही है क्योंकि वाजपेयी कहा करते थे कि हाशिए को अक्सर मुश्किल हिसाब-किताब लिखने के लिए काम में लाया जाता है।

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संघ भले ही एक ‘परिवार’ हो पर इसके ज़्यादातर पदाधिकारी पूरे भारत में संघ को टुकड़ों में ही पहचानते हैं। साथ ही संघ परिवार में बहुत से सहयोगी संगठन हैं, लेकिन एक संगठन के पदाधिकारी या प्रभारी को दूसरे संगठन के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं होती। इसलिए कई बार यदि किसी एक आनुषंगिक संगठन के पदाधिकारी की दूसरे सम्बद्ध संगठन या प्रान्त के बारे में जाहिर की गई राय या टिप्पणी से मतभेद भी होते हैं।

संघ में सबसे प्रमुख है शाखा कार्य। इसकी वजह से अधिकतर प्रचारकों और पदाधिकारियों को पढ़ने-लिखने का वक़्त ही नहीं मिलता। ज़ाहिर है, उनको ज़्यादातर विषयों पर गहराई से जानकारी नहीं होती।

संघ के वरिष्ठ नेता यशवन्त राव केलकर कहते थे, “संघ, संघ परिवार के बाद संघ महापरिवार तक की दूरी तय करनी है।” ऐसे सभी लोग या समूह जो समाज के अन्तिम हिस्से के हक़ और हित के लिये रचनात्मक हैं या आन्दोलनात्मक तरीक़ों से काम कर रहे हैं और शान्तिपूर्ण कार्यपद्धति पर आग्रह रखते हैं, वे संघ महापरिवार के अंग माने जाने चाहिए। उनसे आदरपूर्वक संवाद स्थापित करने की ज़रूरत है। यशवन्त राव संघ के स्वयंसेवकों की तीन क़िस्में बताते थे। पहले वर्ग में ऐसे स्वयंसेवक हैं जो संघ के नहीं हैं। मसलन, स्वामी विवेकानन्द, ऋषि दयानन्द, वीर सावरकर, महात्मा गाँधी आदि जो कभी संघ की शाखा में नहीं गए, गणवेश नहीं पहना, गुरुदक्षिणा नहीं की पर देशभक्ति, त्यागपूर्ण जीवन में किसी भी स्वयंसेवक से कमज़ोर नहीं माने जाएंगे। दूसरे वर्ग में वे लोग है जिन्होंने संघ की शाखा से संस्कार पाए हैं और उन्हीं संस्कारों के रास्ते आगे चलते रहे हैं। दुर्भाग्य से तीसरा वर्ग उन लोगों का है जो खुद को स्वयंसेवक तो कहते हैं लेकिन उनमें स्वयंसेवक का जीवन-व्यवहार बहुत कम होता है।

उनका निर्देश होता था कि पहले और दूसरे वर्ग पर ध्यान दो, तीसरे के प्रति उत्साह मत दिखाओ। कहा जाता है कि संघ के नाम पर इस तीसरे वर्ग के स्वयंसेवकों की तादाद तेज़ी से बढ़ रही है।

लम्बे समय तक प्रचारक रहे एक वरिष्ठ स्वयंसेवक ने कहा कि आरएसएस में अन्दर आओगे, तभी पता चलेगा। बाहर से यह संगठन बहुत सुन्दर और संस्कारित लगता है, लेकिन अन्दर की दीवारों पर सड़ांध महसूस होती है, मगर बाहर निकलने का रास्ता आसान नहीं है।

माना जाता है कि संघ एक विकासशील संगठन है, शाखा और विविध कार्यों के अलावा यहाँ बहुत-सी परम्पराएँ विकसित होती हैं। पारिवारिक संगठन होने के कारण यहाँ हर काम के लिए संविधान नहीं देखना पड़ता। संघ में सन्त ज्ञानेश्वर के उपदेश ‘अलौकिक नोहावे लोकाम्प्रति’ (लोगों के बीच अलौकिक ना हों) के मुताबिक़ काम होता है। शायद इसीलिए डॉ. हेडगेवार ने शुरुआत से ही इस बात पर ज़ोर दिया और प्रचारकों के लिए कोई विशेष वेशभूषा या पद व्यवहार नहीं रखा गया। कुछ लोगों ने उन्हें भगवा वस्त्र धारण करने की सलाह भी दी थी, जिसे नहीं माना गया। डॉ. हेडगेवार ने संगठन के लोगों को एकजुट रखने के लिए एक मन्त्र दिया–‘एकशः सम्पत्’ यानी एक पंक्ति में खड़े रहो। संघ में सरसंघचालक भी स्वयंसेवक की तरह व्यवहार करता है।

आलोचक स्वतन्त्रता आन्दोलन में संघ की भूमिका पर सवाल उठाते हैं, लेकिन सच यह है कि डॉ. हेडगेवार अपने कॉलेज के दिनों से ही आज़ादी के आन्दोलन में शामिल रहे। आरएसएस शुरू करने के बाद वह दो बार जेल गए, एक बार तो सरसंघचालक का पद छोड़कर जेल में रहे। दूसरे सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर ने संघ के संगठन निर्माण पर ज़ोर दिया था और उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर तो आन्दोलन में शामिल होने की इजाज़त दी, लेकिन पदाधिकारियों को नहीं। वे खुद भी शामिल नहीं हुए। संघ का सबसे मुश्किल दौर गुरुजी गोलवलकर के वक़्त रहा, जब महात्मा गाँधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया था। उस वक़्त आर्थिक मुश्किलें भी दरपेश हुईं, मगर पाबन्दी हटने के बाद गुरुजी ने संगठन को न केवल खड़ा किया बल्कि उसका विस्तार भी किया और कई नए सहयोगी संगठन शुरू किए।

गुरुजी आध्यात्मिकता पर ज़ोर देते थे। उन्होंने संघ के लिए सम्पत्ति जुटाने, चन्दा इकट्ठा करने और राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने का विरोध किया। उनकी पुस्तक ‘बंच ऑफ थॉट्स’ को लेकर हमेशा सवाल खड़े किए जाते हैं, लेकिन मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत ने मुसलमानों और ईसाइयों को लेकर किताब में शामिल विचारों पर स्पष्ट कर दिया कि वे समय आधारित विचार थे और अब उनका कोई मतलब नहीं है। इसलिए ‘गुरुजी समग्र’ में उन्हें शामिल नहीं किया गया। गुरुजी ने हिन्दुओं को एकजुट करने के लिए विश्व हिन्दू परिषद की शुरुआत भी की।

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संघ की आलोचना करने वाले ज़्यादातर लोग संघ को गोलवलकर के चश्मे से देखते हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि व्यावहारिक तौर पर संघ अपने तीसरे मुखिया बालासाहब देवरस के रास्ते पर चलता दिखाई देगा। देवरस के वक़्त संघ को आपातकाल के दौरान दूसरी बड़ी पाबन्दी झेलनी पड़ी, लेकिन उस दौरान संघ ज़्यादा मज़बूत होकर निकला और स्वयंसेवकों ने उस दौर में भूमिगत रहकर बहुत काम किया। संघ के ज़्यादातर नेता जेलों में रहे। जनता पार्टी के गठन में देवरस की अहम भूमिका रही। गुरुजी के उलट, देवरस राजनीतिक मिज़ाज के व्यक्ति थे और अधिक व्यावहारिक भी। उन्होंने अपने कार्यकाल में मुसलमानों के लिए दरवाज़े खोलने की कोशिश की, लेकिन संगठन के भीतर विरोध की वजह से बात आगे नहीं बढ़ पाई। मगर देवरस को छुआछूत पर उनके नज़रिए को लेकर ज़रूर याद किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा था, “अगर छुआछूत पाप नहीं है तो फिर कुछ भी पाप नहीं है।”

संघ में जातिगत आधार पर कोई भेद नहीं किया जाता, लेकिन अब भी वह अपने सवर्ण संगठन की छवि से नहीं निकल पाया है। कम लोगों को याद होगा कि राम जन्मभूमि आन्दोलन में शिलान्यास के दौरान पहली ईंट बिहार के दलित कामेश्वर चौपाल ने रखी थी और शायद यह जानकारी भी आम नहीं होगी कि संघ की ‘रूल बुक’ माने जाने वाली किताब ‘विषय बिन्दु’ को लिखने में संघ में दलित पदाधिकारी रंगाहरि का बड़ा योगदान है और रंगाहरि ने ही गुरुजी गोलवलकर का जीवन चरित्र भी लिखा है।

महिलाओं की भूमिका और संघ में हिस्सेदारी को लेकर अक्सर आरएसएस को कटघरे में खड़ा किया जाता है, लेकिन डॉ. हेडगेवार ने ही महिलाओं के लिए ‘राष्ट्र सेविका समिति’ बनाने की न केवल मंज़ूरी दी थी, बल्कि उसे खड़ा करने में पूरी मदद की। संघ के दूसरे सहयोगी संगठन विद्यार्थी परिषद, भाजपा और दूसरे संगठनों में महिलाओं की न केवल हिस्सेदारी है, बल्कि वे पदाधिकारी भी हैं। लेकिन संघ के मूल संगठन में अब भी महिलाओं का प्रवेश नहीं है।

मुझे याद नहीं आता कि संघ के किसी भी संगठन की मुखिया कोई महिला रही हो और पचास साल से ज़्यादा उम्र के इन संगठनों के पास बचाव का कोई तर्क मान्य नहीं हो सकता। सौ साल पूरे होने तक महिलाओं की भूमिका में बदलाव को लेकर विचार चल रहा है, लेकिन ज़रूरत औपचारिकता पूरी करने भर की नहीं है। यही सवाल देश की सबसे बड़ी दूसरी धार्मिक आबादी मुसलमानों के प्रति उनके नज़रिए को लेकर भी है। देवरस ने उनके लिए रास्ता खोलने की कोशिश की, सुदर्शन ने ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ की शुरुआत की और मोहन भागवत ने कहा कि ‘बिना मुसलमानों के हिन्दुत्व अधूरा है’, लेकिन लगता है संघ के स्वयंसेवकों ने अभी उनके लिए मन से दरवाज़े नहीं खोले हैं। बल्कि, शायद ही कोई मौका होता हो जब मुसलमानों को किसी भी मसले पर निशाना बनाने की कोशिश नहीं की जाती हो।

देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा, केन्द्र में उसकी सरकार और राज्यों की सरकारों, सांसदों और विधायकों में मुसलमानों की भागीदारी पर सवाल तो उठते ही हैं। महिलाओं और मुसलमानों को ‘शो केस’ में सजाने की नहीं, साथ लेकर चलने की ज़रूरत है। हालांकि, इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि संघ की शुरुआत ही हिन्दुओं को एकजुट करने के लिए हुई थी, लेकिन तब से अब तक बहुत पानी बह चुका है।

डॉ. हेडगेवार और गुरुजी गोलवलकर ने संघ को सामाजिक संगठन बनाए रखने पर ज़ोर दिया, लेकिन बालासाहब देवरस ने सक्रिय राजनीतिक भूमिका निभाने से परहेज़ नहीं किया। यह बात और है कि अब भी संघ खुद को राजनीति से दूर बताता है और भाजपा को रिमोट कंट्रोल से चलाने का खंडन करता है। मुझे लगता है कि यह बेमानी है और संघ के राजनैतिक होने या फिर भाजपा को दिशा-निर्देश देने में भी किसी को क्या परेशानी हो सकती है? मुमकिन है कि रोज़मर्रा में संघ से भाजपा को कोई निर्देश नहीं मिलता हो, लेकिन महत्वपूर्ण फ़ैसले बगैर संघ के परामर्श के नहीं लिए जाते।

1951 में जनसंघ गठित करने का फ़ैसला और फिर कई महत्वपूर्ण पदाधिकारियों को उसमें भेजना, दीनदयाल उपाध्याय का नियन्त्रण, जनता पार्टी के गठन और 1977 के चुनाव में संघ की भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता। कई घटनाएं हैं, मसलन बलराज मधोक जैसे ताक़तवर नेता को हटाना, 1984 में भाजपा की करारी हार के बाद वाजपेयी को हाशिए पर भेजकर लालकृष्ण आडवाणी को आगे बढ़ाना, राम जन्मभूमि आन्दोलन में भाजपा की हिस्सेदारी, 1991 में वाजपेयी की बजाय आडवाणी को लोकसभा में विपक्ष का नेता बनाने का निर्णय, ये संघ ने ही तो किए थे! 2004 में वाजपेयी सरकार का साथ नहीं देने, फिर 2005 में जिन्ना विवाद के बाद अपने चहेते आडवाणी से इस्तीफ़ा लेने, नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री पद का दावेदार बनाने का निर्णय कहाँ पर हुआ, यह भी किसी से छिपा नहीं है। के. एस. सुदर्शन का रात को प्रधानमन्त्री वाजपेयी के घर पहुंचकर मन्त्रिमंडल की लिस्ट से जसवन्त सिंह और प्रमोद महाजन का नाम हटाने के फ़रमान के बारे में भी सब जानते हैं। तब तर्क यह था कि वे दोनों लोकसभा का चुनाव हार गए थे, लेकिन 2014 में लोकसभा चुनाव हारने वाले अरुण जेटली और स्मृति ईरानी को मोदी सरकार में सबसे ताक़तवर मन्त्री बनाने पर मौजूदा संघ नेतृत्व ने कम से कम सार्वजनिक तौर पर आपत्ति ज़ाहिर नहीं की।

~विजय त्रिवेदी.

संघम् शरणम् गच्छामि
लेखक : विजय त्रिवेदी
प्रकाशक : एका वैस्टलैंड
पृष्ठ : 458
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