यह पुस्तक हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों को उनके सांस्कृतिक अतीत से रु-ब-रु कराती है.
सामाजिक, साहित्यिक, आंचलिक तथा राष्ट्रवादी सरोकारों के अध्येता और विचारक साथ ही ऐसे विषयों पर विद्वतापूर्ण लेखन करने वाले लेखक और प्रखर वक्ता डॉ. कुमार विश्वास की पहचान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आम और खास जनमानस में बन चुकी है। उन्होंने 'ब्रज व कौरवी लोकगीतों में लोकचेतना' नाम से एक ऐसी पुस्तक लिखी है जिसमें ब्रज और कौरवी भाषाओं के लोक साहित्य पर गहन शोध द्वारा उसे एकत्र कर सुरक्षित तो किया ही है, साथ उसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करते हुए उत्तरी भारत के लोक जीवन और तत्कालीन इतिहास की भी पड़ताल की है। वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों को उनके सांस्कृतिक अतीत से रु-ब-रु कराती है।
डॉ. विश्वास के शोध प्रबंध के रुप में प्रकाशित यह पुस्तक इसलिए महत्वपूर्ण है कि दिल्ली और उसके चारों ओर दूर तक कई राज्यों में जिस हिन्दी का बोलबाला है उसकी नींव के पत्थर यानी मूलाधार कौरवी और ब्रजभाषा हैं। आज भी इस क्षेत्र के लोक जन मानस में दोनों भाषाओं (बोलियों) के लोकगीत मौखिक रुप से प्रचलित हैं। जिनमें से विभिन्न अवसरों पर हमारी महिलाएं सस्वर उन्हें गाती हैं। शादी, विवाह, तीज, त्योहार हर्षोल्लास के अवसर से लेकर शोक संतप्त वातावरण में भी उनकी गूंज सुनाई देती है।
सात अध्यायों में विभाजित पुस्तक में लोकगीतों और उनका आशय स्पष्ट करने से लेकर, उनकी व्याप्त काव्यगत विशेषताओं के उल्लेख तक बहुत ही रोचक और साहित्यिक भाषा में पाठकों को ब्रज एवं कौरवी लोक काव्य के बारे में बताया गया है। लेखक ने इसके लिए संस्कृत पुस्तकों, पौराणिक साहित्य और क्षेत्रीय तथा स्थानीय लेखकों की पुस्तकों से रचनायें या जानकारियां एकत्र कर उन्हें क्रमबद्ध सम्पादित किया और कुछ जानकारियां उन्होंने दूसरे सूत्रों से प्राप्त कीं। उसके लिए गहन अध्ययन और परिश्रम का सामना करना पड़ा होगा। सांस्कृतिक जड़ों की अमूल्य धरोहर ब्रज और कौरवी भाषायें प्रचलन से बाहर होती जा रही हैं। यह पुस्तक निसंदेह दोनों भाषाओं को पुनर्जीवित कर जन मानस में पहुंचाने का काम करेगी।
ब्रजभाषा के एक लोकगीत का प्रसंग करना उचित होगा। यह गीत आज रसिया के नाम से ग्रामांचलों में खूब प्रचलित है —'जोडूं हाथ बालम मैं तेरे मुख सौं अपने कहि दै।
मेला देखन जाऊँ खरच कूँ पाँच रुपईया दई दै।
चम्पा और चमेली जाय रई मैं कैसे रह जाऊँगी।
पाँच आना की पाव जलेबी बैठ सड़क पै खाऊँगी।
लड्डू-पेड़ा और जलेबी, सभी माल आय जायेंगे।
मेला में तोय ददुआ, प्यारी, नोंच नोंच खाय जायेंगे।'
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लोकगीत कभी शीतल फुहारों से मन को गुदगुदाते हैं, तो कभी गुलामी, अन्याय, अत्याचार और बुराइयों के खिलाफ चिनगारियां जगाते हैं। इसीलिए वे राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन के उत्प्रेरक बनते हैं। हम आधुनिकता के नशे में अपने पुरखों की इस धरोहर को भुलाते जा रहे हैं। इसे बचाना और बढ़ाना साहित्य, समाज और राष्ट्र की बहुत बड़ी सेवा है।
~कैलाश सत्यार्थी (नोबेल पुरस्कार सम्मानित बाल अधिकार कार्यकर्ता)
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~मालिनी अवस्थी (पद्मश्री अलंकृत, सुप्रसिद्ध लोक गायिका)