रामायण-यक-क़ाफिया : क्लासिकल उर्दू भाषा में रचित रामकथा

रामायण-यक-क़ाफिया
इस कृति में 5 भाषाओं के शब्द हैं और करीब 500 मुहावरों का प्रयोग किया है। कई मुहावरे द्वारका जी ने खुद रचे हैं.

'रामायण-यक-क़ाफ़िया' क्लासिकल उर्दू भाषा में रचित रामकथा की पद्यात्मक प्रस्तुति है। यह द्वारका प्रशाद 'उफ़ुक़' द्वारा रचित है। इस पुस्तक का प्रकाशन 1885 में हुआ था। 1914 में इसे पुनः प्रकाशित किया गया। यहाँ रामायण (तुलसीदास और वाल्मीकि) के आधार पर कथानक प्रस्तुत किया है। यह रामायण का अनुवाद नहीं है। यह उर्दू शायरी की मसनवी विधा में लिखी गई है। इसमें लगभग 1200 अशआर हैं। सभी शेर एक ही क़ाफ़िए में हैं। इस कृति में 5 भाषाओं के शब्द हैं और करीब 500 मुहावरों का प्रयोग किया है। कई मुहावरे द्वारका जी ने खुद रचे हैं। 

'उफ़ुक़' लखनऊ घराने के श्रेष्ठ कवि, गद्य लेखक, कथाकार, नाटककार तथा संपादक थे। उनका परिवार कई पीढ़ियों से उर्दू-फारसी अदब से संबद्ध था। 'उफ़ुक़' ने करीब 30 कृतियां प्रकाशित हुईं।

द्वारका प्रशाद 'उफुक़' (1864-1913) की श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों में 'रामायण-यक-क़ाफ़िया' का एक विशिष्ट स्थान है। वर्ष 1885 में प्रकाशित 'रामायण-यक-क़ाफ़िया' में शायर ने तुलसीकृत रामायण और वाल्मीकि रामायण के आधार पर रामायण का कथानक प्रस्तुत किया है, किन्तु यह रामायण का अनुवाद नहीं, अपितु रचनाकार की अपनी रचना है। इस कृति में शायर ने रामायण के कथानक को तीस शीर्षकों के अन्तर्गत वर्णित किया है। यह काव्यकृति उर्दू शायरी की मसनवी विधा में लिखी गई है, इसमें लगभग 1200 अशआार हैं, और इसकी विशि​ष्टता यह है कि इसके सभी शेर एक ही क़ाफ़िये (तुक) में, एक ही बह्र (वृत्त) में और एक ही वज़न में हैं। क्लासिकल उर्दू भाषा में रचित इस रामकथा में विषय की अनिवार्यता के अनुरुप अनेक पौराणिक अंतर्कथाओं और मान्यताओं को स्थान दिया गया है। वर्णन को स्वाभाविक और प्रासंगिक बनाने के लिए इस पुस्तक में हिंदी कविता में प्रयुक्त अलंकारों, उपमाओं, रुपकों आदि का सम्यक् प्रयोग किया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि रचना में हिंदी भाषा के 400 से अधिक शब्द भी उनकी पूरी सांस्कृतिक एवं पारंपरिक पृष्ठभूमि के साथ प्रयुक्त ​हुए हैं। हिंदी भाषा के शब्दों को यथावत उर्दू भाषा के आंचल में टांक कर कवि ने उर्दू भाषा का शब्द भण्डार तो बढ़ाया ही है, साथ ही उर्दू और हिंदी भाषाओं के बीच की दूरियों को कम करने का भी स्तुत्य प्रयास किया है। रचना में यथा आवश्यकता फ़ारसी, अरबी और संस्कृत भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग वर्णन को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए किया गया है, जो कवि के विभिन्न भाषाओं पर अधिकार को दर्शाता है। कवि ने इस कृति में पांच भाषाओं के शब्द, प्रत्येक की साहित्यिक यात्रा को दृष्टिगत रखते हुए व्यवहृत किए हैं, फिर भी काव्य कौशल की विलक्षणता यह है कि वर्णन आद्योपांत उच्च कोटि का और समान स्तर पर रहता है तथा रचना के अनुशीलन में कहीं अवरोध या ठहराव उत्पन्न नहीं होता। पुस्तक की भाषा अत्यंत शिष्ट और सुसंस्कृत है और कवि ने शब्दों के चयन में बहुत सावधानी बरती है। यह कृति लखनऊ की टकसाली मुहावराती भाषा का भी अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है। पुस्तक में लगभग 500 मुहावरों का प्रयोग किया गया है जिसमें कई मुहावरे 'उफुक़' के अपने गढ़े हुए हैं।

उर्दू मसनवियों का प्रारंभ सामान्यत: हम्द या ईश्वर की स्तुति से होता है। इस कृति में भी प्रारंभ में कवि ने रामकथा के प्रमुख पात्रों के माहात्म्य का वर्णन किया है। इसके उपरांत पुराणों में वर्णित विष्णु के दस अवतारों मत्स्य, कच्छप, वाराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि अवतारों से जुड़ी सभी अंर्तकथाओं और मान्यताओं को केवल 38 शेरों में प्रस्तुत कर दिया है। निश्चय ही यह ईजाज़ो इख़्तिसार अर्थात् किसी विशद वर्णन को अति संक्षिप्त रुप से व्यक्त कर देने का उत्कृष्ट उदाहरण है। कुछ शेर देखिये -

दम में ब्रह्मा को किया पैदा कमल के फूल से

ऋग, यजुर, साम, अथर्वन ज़ाहिर किये बह्रे जहां

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शेर नर बनकर हुए ज़ाहिर सुतूने संग से

ली हिरण्यकश्यप की जां, प्रहलाद को बख़्शी अमां

 सुतूने : प्रस्तर स्तंभ  

उर्दू मसनवियों में कहानी के नायक और नायिका का सरापा या नखशिख विशेष रुप से वर्णित किया जाता है जिसमें उनके शारीरिक सौंदर्य का अतिरंजना पूर्ण चित्रण किया जाता है 'उफुक़' ने भी 'रामायण-यक-क़ाफ़िया' में अपने इष्ट श्रीराम का नख शिख वर्णन किया है किंतु इसमें उन्होंने नई-नई उपमाओं और रुपकों के माध्यम से तथा श्रीराम के अंग प्रत्यंग से जुड़ी अंर्तकथाओं और मान्यताओं को व्यक्त करके अपने काव्य का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस सरापानिगारी पर उर्दू की नातिया शायरी का प्रभाव भी झलकता है। कवि ने उर्दू और हिंदी काव्य दोनों की साहित्यिक परम्पराओं के ​सम्मिलित प्रभाव से श्रीराम के नख शिख वर्णन को इस प्रकार प्रस्तुत किया है जिससे उनका मर्यादा पुरुषोत्तम रुप सहज ही उभर कर आ जाता है। कुछ शेर प्रस्तुत हैं -

है सरे पेशानिए पुरनूर चंदन का तिलक

या सदाशिव की जबीने साफ़ पर है चन्द्रमा

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अब्रुओ चश्मो मिज़ा की है सिफ़त पुतली के साथ

इक जगह हैं मुज़्तमा, धनु, मीन, वृश्चिक, कन्या

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ख़ाके पा वह जिसने अपने फ़ैज़ से तारी शिला

जो मरीज़ाने जहां को है सुफूफ़े हिफ़्ज़ो जां

सुंदर शब्द विन्यास, मनोहर उपमाओं और प्रवाहपूर्ण भाषा ने इस वर्णन को श्रेष्ठ उूर्द शायरी का उदाहरण बना दिया है।

 पेशानिए : ललाट, पुरनूर : प्रकाशमान, जबीने : मस्तक 

 अब्रुओ : कटावदार भौंहें, चश्मो : नेत्र, मिज़ा : पलक   

 मुज़्तमा : एकत्रित, ख़ाके : चरणधूलि, फ़ैज़ : उपकार  

 मरीज़ाने जहां : सांसारिक कष्टों से त्रस्त, सुफूफ़े हिफ़्ज़ो : जीवनदायिनी औषधि  

रामायण-यक-क़ाफिया

सीता जी के नखशिख वर्णन में जहां उनके अप्रतिम सौंदर्य और सुकुमारिता का गुणकथन किया गया है उस पर रीति कालीन हिंदी कविता और उर्दू की ग़ज़लिया शायरी दोनों का प्रभाव परिलक्षित होता है किंतु 'उफुक़' के इस वर्णन से सीता जी का जो चित्र सामने आता है वह किसी नाज़ुक बदन, रुप गर्विता नायिका का नहीं बल्कि एक ऐसी देवी का स्वरुप कल्पना में आता है जिनके सामने आदर और श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है। यहां कवि ने सीता जी का नखशिख वर्णन तमाम भारतीय सभ्यता और शिष्टता संबंधी एवं सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखकर किया है। सीता जी की चारित्रिक पवित्रता, कमनीयता और लज्जाशीलता को भारतीय नारी की परम्परागत सोलह श्रृंगार की वस्तुओं के आलंबन से कवि ने जिस प्रकार दर्शाया है वह नायिका नखशिख वर्णन का अपने ढंग का अनूठा उदाहरण है। उर्दू शायरी में इस अंदाज़ की सरापानिगारी ढूंढ़ने से भी मिलना मुश्किल है।

कथानक में शूर्पनखा रावण के सम्मुख सीता जी के रुप और गुणों का वर्णन किस प्रकार करती है 'उफुक़' की काव्य शैली में देखिये -

उनके साथ एक है अरुसे ख़ुश गुलू ख़ुश गुफ़्तगू

अरबिदा जू, ख़ूबरु, म़र्गूला मू, अब्रू कमां

परदादार ऐसी है वो, देखा न लब तक़रीर ने

रहती है पोशीदा चश्मे नाफ़ से उसकी मियाँ

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जो बने ग़ाज़ा वो देखे आरिज़े रौशन का नूर

हाथ वो देखे जो हो बर्गे हिनाए बोस्तां

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नाज़ुकी से बार है पेशानिए ताबां को चीं

ख़त हथेली को गिरां है नुत्फ़ को हर्फ़े बयाँ

बोझ उठा सकती नहीं पोशाक बूए इत्र की

गोट घूंघट को गिरां संजाब आंचल को गिरां

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जुज़ हैं सिंदूर के रंगे शफ़क़ संजर्फ गुल

जौहरे लाले यमन, सुर्ख़ीए मेह्रे आस्मां

 अरुसे : वधू, ख़ुश गुलू : मधुर कंठ वाली 

 ख़ुश गुफ़्तगू : मिष्ट भाषी, अरबिदा जू : प्रेमपात्र 

 ख़ूबरु : रुपसी, म़र्गूला : घुंघराले बालों वाली 

 अब्रू कमां : कमान जैसी भौहों वाली, तक़रीर : वाणी 

 पोशीदा : छिपी हुई, चश्मे नाफ़ : नाभि की आंख 

 मियाँ : कटि/कमर, ग़ाज़ा : अंगराग/सुगन्धित लेप 

 आरिज़े रौशन : आभायुक्त कपोल, बोस्तां : उद्यान की मेहंदी के पत्ते 

 पेशानिए ताबां : प्रकाशमान ललाट, चीं : मस्तक की रेखाएं 

 ख़त : ​हथेली की रेखाएं, नुत्फ़ : वाणी 

 संजाब : पोस्तीन का हल्का कीमती कपड़ा 

 जुज़ : भाग, शफ़क़ : उषा की लालिमां 

 यमन : अरब का माणिक 

उपयुक्त शब्द चयन, अलंकारों से सुसज्जित प्रभाव और प्रवाहपूर्ण मुहावराती भाषा, मानवीय मनोविज्ञान को रेखांकित करते हुए कथोपकथन, सरस प्रकृति चित्रण, हृदयग्राही दृश्यांकन, नवरस निरुपण प्रत्येक दृष्टिकोण से 'रामायण-यक-क़ाफ़िया' एक उत्तम काव्य कृति है।

वस्तुत: इस रचना में कवि ने दो समृद्ध भाषाओं उर्दू और हिंदी काव्य की साहित्यिक परम्पराओं का समन्वय अत्यंत दक्षता के साथ प्रस्तुत किया है। भाषायी सौहार्द, साम्प्रदायिक सद्भाव और हमारी सांझी संस्कृति की अभिवृद्धि की दिशा में कवि का यह प्रदेय सर्वथा स्तुत्य है।

'रामायण-यक-क़ाफिया' सर्वप्रथम 1885 ई. में प्रकाशित हुई। रचना का वर्ष शायर ने पुस्तक के अंतिम शेर में स्वयं वर्णित (नज़्म) किया है। वर्ष 1914 ई. में इस पुस्तक का पुन:प्रकाशन नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से हुआ था। पुस्तक की पाण्डुलिपि के अनुसार नवल किशोर प्रेस से प्रकाशित पुस्तक में 'रावण का ख़ात्मा' तथा 'राम चन्द्र जी की वन से वापसी' शीर्षक के अंतर्गत 50 शेर प्रकाशित होने से रह गये थे जिन्हें प्रस्तुत पुस्तक में सम्मिलित कर दिया गया है।

~डॉ. कोमल भटनागर.

रामायण-यक-क़ाफिया
रचनाकार : द्वारका प्रशाद 'उफुक़' लखनवी
सम्पादक : डॉ. कोमल भटनागर
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन/अयोध्या शोध संस्थान
पृष्ठ : 352
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