ख़ानज़ादा : मेवाती अस्मिता और शौर्य का दस्तावेजी प्रमाण

ख़ानज़ादा-मेवाती-अस्मिता

हसन खां और उनके खानदान की शौर्यगाथाओं पर केन्द्रित यह उपन्यास एक प्रकार से मेवाती संस्कृति का इतिहास है.

हरियाणा के मेवात जिले के मूल निवासी भगवानदास मोरवाल एक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने अपनी मिट्टी, अपनी संस्कृति, उसके इतिहास और सामाजिक व आर्थिक पक्षों पर गंभीरता से दृष्टि डाली है। इन पक्षों को बचाये रखने अथवा बनाए रखने में सर्वस्व न्योछावर करने वाले ऐतिहासिक सपूतों पर उन्होंने खुलकर लिखा है। इनमें कई को भुला दिया गया अथवा ​इतिहास में टिमटिमाते अस्तित्वहीन बनाकर उनके साथ अछूतों की तरह व्यवहार किया गया। मोरवाल जी ने मेवाती संस्कृति के कई नायकों का दस्तावेजी प्रमाणों के साथ पाठकों को परिचय कराया। 'ख़ानज़ादा' उनका इसी तरह का एक उपन्यास राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। मेवाती शूरवीर हसन खां और उनके खानदान की शौर्यगाथाओं पर केन्द्रित यह उपन्यास एक प्रकार से मेवाती संस्कृति का इतिहास है।

इसे पढ़ने से पता चलता है कि मेवाती हमारे समाज का कौन-सा वर्ग है? उनकी देशभक्ति, आन-बान के प्रति समर्पण और गंगा जमुनी तहजीब से उनके ताल्लुक की हकीकत जानने के लिए यह पुस्तक सभी को पढ़नी चाहिए। लेखक ने बहुत ही अन्वेषण, परिश्रम और विद्वता के द्वारा उपन्यास में ऐतिहासिक घटनाओं को हमारे सामने रखा है। यह कोरा कल्पित उपन्यास न होकर ऐतिहासिक घटनाओं का दस्तावेजी स्वरुप है।

शाज़ी ज़मां के शब्दों में : ऐतिहासिक गल्प के लेखक को पात्र को नई ज़िन्दगी देने का इख्त्यिार होता है। हसन खाँ मेवाती जैसे पात्र गुज़रे वक्त के पन्नों पर टिमटिमा के बुझ जाते हैं क्योंकि ना उन्हें कोई इतिहासकार मिला ना उपन्यासकार जो क़द के मुताबिक ज़िन्दगी देता। उम्मीद है कि भगवानदास मोरवाल के 'ख़ानज़ादा' उपन्यास से मेवात के इतिहास और उसके ऐतिहासिक पात्रों पर नए सिरे से चर्चा शुरु होगी।

ख़ानज़ादा

दरअसल चौदहवीं सदी के मध्य में तुगलक, सादात, लोदी और मुगल राजवंशों द्वारा दिल्ली और उसके आसपास जो तबाही मचाई, मेवातियों ने उसका जिस शौर्य के साथ ऐसी ताकतों का मुकाबला किया और भारी संख्या में बलिदान दिए। उन्हें इतिहास में वह स्थान नहीं दिया गया, जो दिया जाना चाहिए था। बल्कि उसे भुलाने की कोशिश की गयी। भगवानदास मोरवाल ने 'ख़ानज़ादा' में दस्तावेजी प्रमाणों के साथ मेवातियों के इतिहास के साथ न्याय किया है। इसकी पड़ताल के लिए पुस्तक पठनीय है।

पुस्तक में एक जगह नरबलि प्रथा को मेवातियों द्वारा हमेशा के लिए बंद कराने जैसे समाज सुधारक कार्य का भी उल्लेख है। बाहरी आक्रमणकारियों द्वारा किए अत्याचारों आदि का भी बार-बार उल्लेख है।

पुस्तक में बाबर का भारत आना, हिन्दू अस्मिता और तत्कालीन मुस्लिम आक्रान्ता, धर्म परिवर्तन क्यों और कैसे? इस सबके बावजूद देश में गंगा-जमुनी तहजीब का कायम रहना, आदि महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर शोधपरक और नितांत भरोसेमंद जानकारी दी गई है। यह श्रम साध्य और गंभीर विवेकशीलता से तैयार एक बेजोड़ कृति है।

ख़ानज़ादा
लेखक : भगवानदास मोरवाल
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 388
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