सफलता-असफलता के बीच फँसा इंसान, इंसान न होकर किसी मशीन की तरह बनता जा रहा है.
भवतोष पाण्डेय का नया उपन्यास आया है। नाम है 'अपने पैरों पर'। यह अमेज़न किंडल पर मौजूद है। इसमें उन्होंने आज के समाज की वास्तविक दशा को प्रस्तुत किया है। किस तरह अच्छी नौकरी और सुरक्षित कल के लिए परिवार अपने बच्चों के लिए सपने सँजोते हैं। यही वजह है कि बच्चों और परिवारों पर दवाब की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। खासकर बच्चे भारी घुटन के दौर से गुजरते हैं। उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए समाज का बहुत दवाब होता है। यह इस तरह लगने लगता है जैसे मजबूरी हो कि ये करना ही है, वो बनना ही है, चाहें कुछ भी दाँव पर क्यों न लगाना पड़े।
उपन्यास का नायक दक्ष परीक्षा की तैयारी के लिए कोटा जाता है। उसके पिता उसे इंजीनियर देखना चाहते हैं। उसके लिए लोन लेने से भी पीछे नहीं रहते। उनका सपना है बेटा बड़ा आदमी बनेगा, नाम रौशन होगा, समाज में रुतबा बढ़ेगा।
कोचिंग संस्थान किस तरह गिद्ध-सी नज़र से हर छात्र को देखते हैं, उसका वर्णन इस किताब में पढ़ा जा सकता है। उसी तरह हॉस्टल आदि के मालिकों को अपने व्यवसाय से मतलब है। यानी हर तरफ पैसे की जोड़तोड़ है। हर तरह पैसे के लिए पैसा खर्च किया जा रहा है। मगर वास्तव में समाज उस बारीकी को समझने से बच रहा है जो अंधी दौड़ में बस भाग रहा है। हर ओर आपाधापी है। किसी के पास ठहरकर सोचने का समय नहीं है। यही वजह है कि यह दौड़-भाग बढ़ती जा रही है।
सफलता-असफलता के बीच फँसा इंसान, इंसान न होकर किसी मशीन की तरह बनता जा रहा है। उसके इंसान होने पर उसे खुद भी कभी-कभी शक होने लगता है। युवाओं को केंद्र में रखकर लिखा यह उपन्यास आज के दौर की वास्तविकता को बयान करता है। अपने पैरों पर खड़ा होना उतना आसान नहीं है।
दक्ष के सामने अलग-अलग मोड़ आते हैं। वह चुनौतियों से सबक लेता हुआ, उनसे मुकाबला करता हुआ और भविष्य की रणनीति पर विचार करता हुआ आगे बढ़ता है। यहाँ उसका मानसिक द्वंद्व एक आम इंसान की तरह दिखाया गया है कि किस तरह जीवन में हम मुश्किल और आसान राह का चुनाव करते हैं। साथ ही अपनी जिम्मेदारियों का बोझ किस तरह उठाते हैं। पढ़ाई-लिखाई-परिवार के बाद क्या? शायद कहीं न कहीं कुछ बाकी रह जाता है। यह प्रश्न इस उपन्यास के नायक के लिए रह गया कि वह 'अपने पैरों पर खड़ा हो पाया या नहीं'!