मलय जैन का यह उपन्यास व्यवस्था पर चोट करता है तथा बहुत कुछ सोचने पर मजबूर भी करता है.
लेखक मलय जैन द्वारा खिलंदड़ भाषा में लिखा गया "ढाक के तीन पात" एक व्यंग्य उपन्यास है जो काफी रोचक है। लेखक की यह अपनी शैली है। उपन्यास के केंद्र बिंदु में है एक गाँव। जिसका नाम लेखक ने गूगल गाँव रखा है। लेखक का कहना है कि इसकी सारी घटनाएं काल्पनिक है मगर क्योंकि लेखक पुलिस में वरिष्ठ अधिकारी है तो ऐसा जान पड़ता है कि उनका यह देखा, भोगा हुआ है। उपन्यास में पुलिस की भी मुख्य भूमिका है— खासकर कत्ल होना और लाश का मिलना जैसी घटनाओं का होना। गुलाबी बाई के ट्रक ड्राइवर पति का अपनी पत्नी के बलात्कार होने पर पुलिस में रिपोर्ट लिखाना इत्यादि घटनाएं बताती है कि लेखक ने नजदीकी से यह सब देखा है। खैर उपन्यास के मूल विषय की बात करते हैं।
यूं तो गाँव पर कई उपन्यास लिखे गए हैं। तकरीबन गाँव पर लिखे गए सभी उपन्यासों में किसानों की ही समस्या की बात की गई है। हो सकता है मेरी जानकारी कम हो। इस उपन्यास में गूगल गाँव के विकास की बात की गई है। गांव के विकास के लिए सरकार कई योजना पास करती हैं मगर भ्रष्ट सरकारी अधिकारी और कर्मचारी की वजह से गाँव का विकास नहीं हो पाता। उपन्यास में गाँव के अस्पताल, गाँव के स्कूल, गाँव की सड़क, गाँव के शौचालय इत्यादि हर विषय पर बात की गई है।
ढाक यानी पलाश...और पात, वही तीन के तीन, यही हैं हालात हिन्दुस्तान की विकास-गाथा के। देश को इक्कीसवीं सदी में ले जाने के प्रयासों में सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है, मगर क्रियान्वयन के स्तर पर ढाक के तीन पात होते हम सबने देखा है। गूगलगाँव हिन्दुस्तान के मुख्तलिफ गाँवों में से ही एक है मगर हालात कमोबेश सर्वत्र एक ही हैं। व्यंग्य की इस कृति में पुरानी परम्पराएँ हैं तो उनमें टाँग अड़ाती आधुनिकताओं का अधकचरापन भी है।
जहां एक तरफ भ्रष्ट अधिकारियों की बात की गई है तो वहीं उपन्यास में ईमानदार और कर्मठ कमिश्नर साहिबा भी हैं जो सख्त और कर्तव्य प्रेमी अफसर हैं, जिन्हें विश्वास है कि यदि देश में हर व्यक्ति ईमानदारी से अपना काम करने लग जाए तो विकास के फूल खिलने में देर नहीं।
जब कमिश्नर साहिबा का दौरा गूगल गाँव की तरफ होता है गाँव के भ्रष्ट अधिकारी और कर्मचारियों में हड़कंप मच जाता है। फिर एसडीएम साहब की अगुआई में मुख्तलिफ विभागों के अफसर और उनके करिंदे जीपों में लदकर गूगल गाँव की तरफ भागते हैं। रातों रात लीपापोती कर वहां क्या चमत्कार किया जा सकता था। विकास तो गाँव में खूब हुआ था मगर सब कागज़ी। लेकिन वो सब यही सोचते हैं कि मैडम साहिबा आएंगी और चली जाएंगी पर कमिश्नर साहिबा सुबह से लेकर रात तक रूकती हैं। हर एक बिंदु को परखती हैं। डांट फटकार लगाती हैं और कई लोगों को तो सस्पेंड भी कर देती हैं। उनके जाने के बाद ही गूगल गाँव में एक नया सवेरा होता है। मगर फिर भी आखिर तक वही होता है— ढाक के तीन पात।
उपन्यास में वैद्य जी जैसे झोलाछाप डॉक्टर, पराशर जी जैसे शिक्षक, लपका सिंह जैसे लोकल पत्रकार पात्र हैं जो आपको गुदगुदाते भी हैं, हँसाते भी हैं और सोचने के लिए मजबूर भी करते हैं। कुल मिलाकर फुल एंटरटेनमेंट और पैसा वसूल उपन्यास है।
उपन्यास पुरस्कृत भी हो चुका है। मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी से उपन्यास वर्ग में बाल कृष्ण नवीन पुरस्कार और हिंदी अकादमी से सोपान पुरस्कार मिला है।
~विक्रम सिंह.