इन दिनों पढ़ें कुछ ख़ास किताबें

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कुछ ख़ास किताबें प्रकाशित हुई हैं. इनमें 'क़ब्ज़े ज़माँ', 'अमेरिका 2020', 'ठाकरे भाऊ', 'इश्क़ में शहर होना' प्रमुख हैं. 

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क़ब्ज़े ज़माँ :

उर्दू के दिग्गज कथाकार-आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के चर्चित उपन्यास 'क़ब्ज़े ज़माँ' का हिन्दी अनुवाद राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. यह उपन्यास एक सिपाही की आपबीती के बहाने वर्तमान समय से शुरू होकर गुजरे दो जमानों का हाल इतने दिलचस्प अन्दाज में बयान करता है कि एक ही कहानी में तीन जमानों की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक तसवीर साफ उभर आती है.

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का 25 दिसम्बर, 2020 को निधन हो गया था. आधुनिक उर्दू साहित्य के प्रमुख स्तंभों में शुमार फ़ारूक़ी की उर्दू और अंग्रेेजी में 40 से अधिक किताबें छप चुकी हैं.

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बिसात पर जुगनू :

यह उपन्यास सदियों और सरहदों के आर-पार की कहानी है. हिंदुस्तान की पहली जंगे-आजादी के लगभग डेढ़ दशक पहले के पटना से शुरू होकर यह 2001 की दिल्ली में ख़त्म होती है. बीच में उत्तर बिहार की एक छोटी रियासत से लेकर कलकत्ता और चीन के केंटन प्रान्त तक का विस्तार समाया हुआ है. गहरे शोध और एतिहासिक अंतर्दृष्टि से भरी इस कथा में इतिहास के कई विलुप्त अध्याय और उनके वाहक चरित्र जीवंत हुए हैं. यहाँ 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की त्रासदी है तो पहले और दूसरे अफीम युद्ध के बाद के चीनी जनजीवन का कठिन संघर्ष भी. इनके साथ-साथ चलती है, समय के मलबे में दबी पटना कलम चित्र-शैली की कहानी, जिसे ढूंढती हुई ली-ना, एक चीनी लड़की, भारत आई है.

यहाँ फिरंगियों के अत्याचार से लड़ते दोनों मुल्कों के दुखो की दास्तान एक-सी है और दोनों जमीनों पर संघर्ष में कूद पड़नेवाली स्त्रियों की गुमनामी भी एक सी है. ऐसी कई गुमनाम स्त्रियाँ इस उपन्यास का मेरुदंड है. बिसात पर जुगनू कालक्रम से घटना-दर-घटना बयान करनेवाला सीधा (और सादा) उपन्यास नहीं है. यहाँ आख्यान समय में आगे-पीछे पेंगें मारता है और पाठक से, अक्सर ओझल होते किंवा प्रतीत होते कथा-सूत्र के प्रति अतिरिक्त सजगता की मांग करता है.

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अमेरिका 2020 :

‘अमेरिका 2020 : एक बँटा हुआ देश' कल्ला की पहली किताब है जिसे राजकमल प्रकाशन समूह के उपक्रम सार्थक ने प्रकाशित किया है. कल्ला ने इसका लेखन करने से पहले अमेरिकी चुनाव के दौरान वहां सड़क मार्ग से तकरीबन 18 हजार किलोमीटर की सड़क मार्ग से यात्रा की. इस तरह उन्होंने वहाँ की सियासत के विभिन्न पहलुओं के साथ साथ आम अमेरिकी लोगों के जीवन-संघर्ष को भी बारीकी से उकेरा है.

यह किताब बतलाती है कि व्यापक नागरिक हितों से जुड़े मुद्दों पर व्यावहारिक कदम उठाने के बजाय  सियासत का हथियार बनाकर उससे किनारा कर लेने का हुनर अमेरिकी राजनेता भी अच्छे से जानते हैं. ऐसा न होता तो कोविड-19 महामारी वहाँ स्वास्थ्य का मसला बनने की जगह राजनीतिक मुद्दा बनकर न रह जाती. किताब से यह भी पता चलता है कि भारत की तरह अमेरिका में भी ज्यादातर किसान, छात्र, पेंशनर आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहे हैं.

इस किताब से पता चलता है कि इस बार के राष्ट्रपति चुनाव ने रंगभेद, सार्वजनिक स्वास्थ्य, रोजगार, राष्ट्रवाद जैसे अनेक मुद्दों पर अमेरिकी जनमानस में मौजूद विभाजन को सतह पर ला दिया. इसके साथ ही यह अमेरिकी लोकतंत्र की शक्ति को भी रेखांकित करती है, जब निरंकुशता के रास्ते पर बढ़ने की प्रयास कर रहे राष्ट्रपति को सत्ता से बाहर कर दिया गया.

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ठाकरे भाऊ :

राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे की राजनीतिक सोच में बिल्कुल अलग है. एक बाल ठाकरे की चारित्रिक विशेषताओं को फलीभूत करने वाला है, उनकी आक्रामकता को पोसनेवाला, जबकि दूसरा कुछ अन्तर्मुखी जिसकी रणनीतियाँ सड़क के बजाय काग़ज़ पर ज़्यादा अच्छी उभरती हैं. शिवसेना की राजनीति को आगे बढ़ाने के दोनों के ढंग अलग हैं. 

बाल ठाकरे की ही तरह कार्टूनिस्ट के रूप में कैरियर की शुरुआत करनेवाले राज ने पार्टी के विस्तार के लिए चाचा की मुखर शैली अपनाई. दूसरी तरफ़ उद्धव अपने पिता की छत्रछाया में आगे बढ़ते रहे. राज ठाकरे ने अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का गठन किया, वहीं उद्धव महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी व्यावहारिक सूझ-बूझ के चलते आज महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं.

यह पुस्तक इन दोनों भाइयों के राजनीतिक उतार-चढ़ाव का विश्लेषण है. पहचान की महाराष्ट्रीय राजनीति और शिवसेना तथा उससे बनी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के उद्भव की जटिल सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि का विश्लेषण करते हुए इस पुस्तक में उद्धव सरकार के गद्दीनशीन होने के पूरे घटनाक्रम और उनके अब तक के, एक साल के शासनकाल की चुनौतियों और उपलब्धियों का पूरा ब्यौरा भी दिया गया है. 

पुस्तक दो ठाकरे बंधुओं-राज और उद्धव के वैचारिक राजनीतिक टकराव और अलगाव की बेहद दिलचस्प कहानी है. महाराष्ट्र के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य और उठापटक का प्रामाणिक चित्रण है. महाराष्ट्र की राजनीति का दिलचस्प ऐतिहासिक ब्योरा है. किताब का बेहतरीन अनुवाद प्रभात रंजन द्वारा किया गया है.

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आज़ादी :

कोविड-19 के साथ आई आज़ादी की एक और समझ, जो कहीं ख़ौफ़नाक थी. इसने मुल्कों के बीच सरहदों को बेमानी बना दिया, सारी की सारी आबादियों को क़ैद कर दिया और आधुनिक दुनिया को इस तरह ठहराव पर ला दिया जैसा कभी नहीं देखा गया था.

रोमांचित कर देनेवाले इन लेखों में अरुंधति रॉय एक चुनौती देती हैं कि हम दुनिया में बढ़ती जा रही तानाशाही के दौर में आज़ादी के मायनों पर ग़ौर करें.

इन लेखों में, हमारे बेचैन कर देनेवाले इस वक़्त में निजी और सार्वजनिक ज़ुबानों पर बात की गई है, बात की गई है क़िस्सागोई और नए सपनों की ज़रूरत की. रॉय के मुताबिक़, महामारी एक नई दुनिया की दहलीज़ है. जहाँ आज यह महामारी बीमारियाँ और तबाही लेकर आई है, वहीं यह एक नई क़िस्म की इंसानियत के लिए दावत भी है. यह एक मौक़ा है कि हम एक नई दुनिया का सपना देख सकें.

आज के समय में जब समाज को बाँटने और नफ़रत की राजनीति मज़बूत हो रही है, ऐसे में लेखिका विचार करती हैं कि क़िस्सागोई और भाषा की भूमिका कितनी अहम है. किताब का ख़ास हिस्सा नए नागरिकता क़ानून (सीएए) और एनपीआर-एनसीआर के बारे में है, और इनके ख़िलाफ़ आंदोलनों के बारे में भी. लेखिका ने इस राजनीति और बँटे हुए समाज में कोरोना महामारी के मायने और प्रभाव को एक गहरी नज़र से देखने की कोशिश की है. एक उपन्यासकार के रूप में लेखिका ने अपने दोनों उपन्यासों को सोचने और उन्हें लिखने की प्रक्रिया पर विस्तार से लिखा है. साथ ही एक निबंध लेखक के रूप में अपने काम पर भी एक निगाह डाली है. अनुवाद ऐसा जैसे किताब मूल हिन्दी में लिखी गई हो.

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तानाशाही से लोकशाही :

'फ्रॉम डीक्टेटरशिप टू डेमोक्रेसी’ को मूलरूप से 1993 में अहिंसक संघर्ष के मार्गदर्शन के लिए लिखा गया था. चोरी-चोरी, चुपके-चुपके यह पुस्तक दुनियाभर के तमाम राजनीतिक असंतुष्टों के हाथों में पहुँच गयी. बाद में इसका तीस से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया गया. यह किताब इक्कीसवीं सदी के अहिंसावादी क्रांतिकारियों के लिए “कैसे-करें” की पथप्रदर्शक बन गयी है. अहिंसक विरोध प्रदर्शन और रक्तहीन क्रान्ति के सुझाव और व्यावहारिक नियम बताने वाली किताब है. क्रान्ति या बदलाव के झूठे सपने या कोई अकल्पनीय रास्ते नहीं बताती बल्कि लोगों को परिवर्तन के वास्तविक पहलू से परिचय कराती है.

भारत में अहिंसक और असहयोग आन्दोलनों का लंबा इतिहास रहा है. हिन्दी में इस किताब का प्रकाशित होना इस इतिहास को और समृद्ध करेगा। यह आम और ख़ास हर तरह के उन पाठकों के लिए एक जरूरी किताब है जो बदलाव और अहिंसा के सम्बन्ध को आज के वैश्विक संदर्भों में समझना चाहते हैं, जिन्हें लोकतंत्र की परवाह है.

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कौन हैं भारत माता :

वरिष्ठ लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल द्वारा लिखित, संपादित पुस्तक 'कौन हैं भारत माता' स्वाधीनता आंदोलन के नायक और भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बौद्धिक विरासत से रू-ब-रू कराती है.

किताब का प्रकाशन ऐसे समय हुआ है जब देश में नेहरू के व्यक्तित्व और योगदान को धूमिल करने और नकारने के प्रयास किये जा रहे हैंl इसका जिक्र करते हुए प्रो. अग्रवाल ने कहा, जवाहरलाल नेहरू को जानने-समझने की कोशिश मैं पिछले कोई पंद्गह-सोलह बरसों से करता रहा हूँ। इस कोशिश के एक पड़ाव तक पहुँच जाने का ही नतीजा है यह पुस्तक. मूलतः यह अंग्रेजी में ‘हू इज भारत माता’ नाम से छपी थी, जिसे विद्वानों और आम पाठकों ने हाथों-हाथ लिया उससे ज़ाहिर हुआ कि नेहरू के विरुद्ध सारे कुप्रचार के बावजूद, बल्कि किसी हद तक उसके कारण भी, लोगों में नेहरू को जानने समझने की इच्छा बढ़ी ही है. तमाम दोस्तों का आग्रह रहा कि यह पुस्तक अन्य भषाओं में जल्दी से जल्दी सुलभ होनी चाहिए. इसी का नतीजा है यह हिंदी अनुवाद. कन्नड़ अनुवाद पहले ही आ चुका है.

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इश्क़ में शहर होना :

मशहूर पत्रकार रवीश कुमार की चर्चित किताब ‘इश्क़ में शहर होना’ का वैलेंटाइन संस्करण प्रकाशित हुआ है. लघु प्रेम कहानियों का यह अनूठा संग्रह 2015 में पहली बार प्रकाशित होने के समय से ही पाठकों के बीच असाधारण रूप से लोकप्रिय रहा है. लगातार बढ़ती लोकप्रियता और खासकर युवा पीढ़ी के बीच इसकी मांग को देखते हुए राजकमल प्रकाशन समूह ने यह विशेष संस्करण प्रकाशित किया है. ‘इश्क़ में शहर होना’ का वैलेंटाइन संस्करण हार्डबाउंड है और रवीश ने इसके लिए एक नई भूमिका लिखी है.

हिन्दी में ‘लप्रेक’ नाम से एक स्वतंत्र विधा के रूप में चर्चित हो चुकी हैं. युवा और युवतर पीढ़ी के बीच, प्रेम और शहर की धड़कन को महसूस करने वाले लोगों के बीच यह किताब एक कल्ट का दर्जा पा चुकी है. अभी तक यह पेपरबैक में छपती रही है जिसमें इसकी 33 हजार प्रतियां बिक चुकी हैं.

रेमॉन मैगसेसे अवार्ड 2019 से सम्मानित रवीश कुमार की यह किताब अंग्रेजी में अनूदित होकर प्रकाशित हो चुकी है. इस वर्ष यह उर्दू में भी प्रकाशित होने वाली है.

यह किताब प्रसिद्ध चित्रकार विक्रम नायक के चित्रों से सुसज्जित है. इसका वैलेंटाइन संस्करण बाजार में उपलब्ध है.

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