मुशायरों की दास्ताँ : क्या रहा है मुशायरों में अब

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मुशायरों और कवि-सम्मेलनों की बढ़ती लोकप्रियता के चलते जहाँ श्रोताओं के स्वाद में परिवर्तन हुआ है, वहीं सत्ता का हस्तक्षेप भी बढ़ा.

भारतीय उपमहाद्वीप में मुशायरों और महफ़िलों की अपनी एक परम्परा और इतिहास रहा है। अपने मन के भावों को दूसरे के सामने प्रकट करने के लिए मुशायरे एक ऐसी जगह हुआ करते थे, जहाँ सुनने और सुनानेवाले दोनों एक-दूसरे के पूरक हुआ करते थे। 

मुशायरे का आरम्भ यूँ तो दरबारों और राजमहलों से माना जाता है लेकिन अरब जगत में मेलों के अवसर पर शायरों के जुटने का इतिहास भी मिलता है। अरबी और फ़ारसी के ज़रिये मुशायरे के आयोजन भारत पहुँचे, तो बरसों तक इसमें ख़ास लोग ही शामिल होते रहे।

एक ज़माने में मुशायरे तहज़ीब के केन्द्र हुआ करते थे। आख़िरी मुग़ल बहादुर शाह ज़फ़र के लाल किले के मुशायरे अब इतिहास का हिस्सा हैं। इन मुशायरों में ग़ालिब सुनाते थे और जौक़ सुनते थे, बहादुर शाह ज़फ़र ग़ज़ल पढ़ते थे और सुननेवालों में मोमिन ख़ाँ, ग़ालिब, शेफ़्ता और युवा शायर दाग़ होते थे। उन दिनों सुनानेवालों और सुननेवालों के बीच में इतनी दूरी नहीं होती थी जितनी आज नज़र आती है।

फिर जब उर्दू ने विस्तार पाया तो मुशायरों में कई वर्ग के लोग शामिल होने लगे। बाद में सामाजिक वातावरण और राज-व्यवस्था के बदलाव के साथ मुशायरों के तौर-तरीक़ों में भी बदलाव आने लगा।

एक समय जो मुशायरे राजदरबारों, सामन्तों और अभिजात वर्ग के लोगों के लिए सामाजिक हैसियत के पर्याय हुआ करते थे, धीरे-धीरे उन्होंने सार्वजनिक मंचों का रूप ले लिया। सार्वजनिक मंचों पर पढ़ी जानेवाली ग़ज़लों और नज़्मों की लोकप्रियता का परिणाम यह हुआ कि मुशायरों की तर्ज़ पर हिन्दी कविता भी कवि-सम्मेलनों में पढ़ी जाने लगी। दिल्ली के लाल किले पर हर वर्ष गणतन्त्र दिवस के मौके पर आयोजित होनेवाले मुशायरे और कवि-सम्मेलन तो लाल किला मुशायरा और लाल क़िला कवि-सम्मेलन के नाम से बेहद प्रसिद्ध हुआ करते थे। 

मुशायरों और कवि-सम्मेलनों की बढ़ती इस लोकप्रियता के चलते जहाँ श्रोताओं के स्वाद में परिवर्तन हुआ है, वहीं सत्ता का हस्तक्षेप भी बढ़ा है। इसलिए इन दोनों सार्वजनिक मंचों पर बेहतरीन शायरी या कविता पढ़ने को नहीं मिलती है बल्कि इनका स्थान चुटकलों और द्विअर्थी कविताओं ने ले लिया है। इक़बाल रिज़वी की यह पुस्तक मुशायरों के इसी अतीत और वर्तमान का विहंगावलोकन है। यह पुस्तक मुशायरों की उस गौरवशाली परम्परा को भी बयान करती है, जब इनमें सांस्कृतिक शालीनता और अदबी समझ की परख होती थी।

इक़बाल रिज़वी के विचार :

जब कुछ लिखा गया होगा तो उसे सुनाने की इच्छा भी जागी होगी। लोग जमा किये गये होंगे। फिर महफ़िलें जमने लगी होंगी। जब एक दिल की भावना बहुत से लोगों की आवाज़ बनने लगी होगी तो ऐसी महफ़िलें लोकप्रिय होने लगी होंगी। इन्हीं लोकप्रिय महफ़िलों का एक स्वरूप मुशायरे के रूप में सामने आया। कविता जहाँ भी रची गयी उसे सुनने-सुनानेवाले भी जमा हुए। राजमहलों, सामन्तों के दरबारों और विशिष्ट लोगों के जमघट के अलावा मेलों, चौपालों और सराय जैसी सार्वजनिक जगहों पर भी कविता ज़रूर सुनायी गयी होगी।

मुशायरे का आरम्भ यूँ तो दरबारों और राजमहलों से माना जाता है लेकिन अरब जगत में मेलों के अवसर पर शायरों के जुटने का इतिहास भी मिलता है। अरबी और फ़ारसी के ज़रिये मुशायरे के आयोजन भारत पहुँचे तो बरसों तक इसमें ख़ास लोग ही शामिल होते रहे। फिर जब उर्दू ने विस्तार पाया तो मुशायरों में कई वर्ग के लोग शामिल होने लगे। लाउडस्पीकर की ईजाद के बाद तो अनपढ़ से लेकर विद्वान तक मुशायरों में एक साथ देखे जाने लगे।

बीते दिनों के मुशायरे केवल तफ़रीह या मनोरंजन का ज़रिया नहीं थे। उन्होंने भाषा के स्कूल, बौद्धिक विमर्श के केन्द्र और जुल्म के ख़िलाफ़ एक परचम का रूप ले लिया। ऐसे हज़ारों लोग हैं जिन्होंने शायरी या साहित्य प्रेम का ककहरा मुशायरों से ही सीखा। मुशायरों ने उर्दू भाषा को जिस तरह से विस्तार दिया वैसा किसी भी भाषा के विस्तार का उदाहरण नहीं मिलता। जो शायरी राजमहलों, दरबारों हवेलियों और बौद्धिक गोष्ठियों में पली-बढ़ी थी मुशायरों की वजह से वह बाज़ारों और भीड़ भरे चौराहों तक जा पहुँची।

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कुछ दशक पहले तक होनेवाले विशेष या वार्षिक मुशायरे शायरी के उत्सव की तरह होते थे। रात-रात भर जाग कर शायरी सुनने-सुनानेवाली यह विश्व की इकलौती संस्था रही है। मुशायरों की ओर ऐसे लोग भी खिंचे चले आते थे जो उर्दू में शिक्षित नहीं थे या फिर शिक्षित ही नहीं थे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद प्रगतिशीलता ने सभी भाषाओं के साहित्य को गहरे तक प्रभावित किया। उर्दू शायरी में प्रगतिशील, अतिबौद्धिक, प्रयोग के लिए प्रयोग, क्लिष्ट जैसी धाराएँ बहीं। लेकिन मुशायरे की एक अघोषित शर्त रही कि बात ऐसी कही जाये जिसे श्रोता तत्काल समझ सकें। यानी आमजन की भाषा में बात हो। मुशायरे की इस विशेषता ने उर्दू को तब बहुत सहारा दिया जब भारत विभाजन के बाद उर्दू, स्कूल-कालेजों में दम तोड़ने लगी थी।

समय के साथ-साथ मुशायरों के स्वरूप में बदलाव आये। राजनीति का सीधा दख़ल बढ़ा। सरकारी चाटुकारिता के लिए मुशायरों को ज़रिया बनाया जाने लगा। मुशायरों में तारीफ़ के नाम पर बेहूदगी बढ़ी और सदियों से चले आ रहे परम्परागत मुशायरों की सूरत ही बदल गयी। दुनिया की यह समृद्ध साहित्यिक परम्परा एक-दो दशक में नहीं विकसित हुई इसके पीछे सदियों की यात्रा है। मुशायरे की दुनिया में जैसे-जैसे और जो-जो बदलाव आते रहे वे बहुत दिलचस्प भी हैं और तकलीफ़देह भी।

अब पहले जैसी फ़ुरसतें नहीं बचीं। तकनीक की बदौलत सब कुछ इन्सान की मुट्ठी में समा गया है। ग़ालिब की ग़ज़लें अपने पसन्दीदा गायक की आवाज़ में जब चाहे तब सुनी जा सकती हैं। पूरा मुशायरा सुनने की ज़रूरत भी इंटरनेट ने ख़त्म कर दी है। मन- पसन्द शायरों की रिकार्डिंग यू ट्यूब पर मौजूद है। अब रात भर जाग कर मुशायरा कौन और क्यों सुने।

परम्परागत मुशायरों का स्वर और स्वरूप बदल चुका है। जो मुशायरे अदब सीखने की पाठशालाएँ होती थीं वे अभिनय के साथ लयकारी के सहारे हिट होनेवाले शायरों के लिए नाट्य मंच बन गये हैं। हालाँकि जब तक इश्क़ ज़िन्दा है शायरी भी होती रहेगी। जब तक शायरी होती रहेगी उसे सुनने-सुनाने का सिलसिला भी चलता रहेगा। इतना ज़रूर है कि मुशायरों के परम्परागत स्वरूप की वापसी अब असम्भव है।

बीते दिनों को याद कर और मौजूदा मुशायरों की सूरत देख हमेशा दिल में ख़याल आता था कि आख़िर ये क्या हो रहा है। मुशायरे तो ऐसे नहीं हुआ करते थे। बरसों पहले मुशायरों में शामिल होकर जिन डायरियों पर शेर लिखा करता था वो अचानक हाथ लगीं तो दिल उदास हो गया। बस तभी से मुशायरे के इतिहास को लेकर जो भी मिलता गया उसे इकट्ठा करता रहा।

परम्पराएँ बदलती हैं और ख़त्म होती हैं। यह नयी बात नहीं है। ख़ास बात ये है कि कई परम्पराएँ अपने वास्तविक रूप में इतिहास में दर्ज नहीं हो पातीं और किंवदन्तियों के सहारे ही उन्हें याद किया जाता है। मुशायरे की परम्परा किंवदन्ती ना बन जाये इसलिए देवनागरी जानने वालों के लिए मुशायरों के जन्म और विकास को सिलसिलेवार ढंग से एक पुस्तक के रूप में पेश करने की कोशिश भर है यह पुस्तक। प्रस्तुत पुस्तक मुशायरों का मर्सिया (शोक गीत) नहीं है। यह एक समृद्ध साहित्यिक परम्परा के उद्भव, विकास और पतन की कहानी है। जितने तथ्य जुट सके उनके आधार पर ही ये कहानी कही गयी।

क्या रहा है मुशायरों में अब
लेखक : इक़बाल रिज़वी
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 142
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