यशवंत व्यास गुलज़ार तत्व के अन्वेषी रहे हैं। वे उस लय को पकड़ पाते हैं जिसमें गुलज़ार विचरण करते हैं और रचते हैं.
प्रयोगशील लेखक-पत्रकार यशवंत व्यास की लेखन कला अपने आप में सबसे अलग और अत्यंत प्रभावशाली है। आधुनिक लेखन और पत्रकारिता में उनकी विलक्षण लेखन शैली दूसरे किसी लेखक अथवा पत्रकार के आसपास भी दिखाई नहीं देती। फिल्म जगत के बहुआयामी व्यक्तित्व गुलज़ार से मुलाकात और वार्तालाप को व्यास जी ने 'बोसकीयाना' नामक किताब में जिन शब्दों, भाषा-शैली और अद्भुत साहित्य लेखन में व्यक्त किया है वह सबसे अनूठा प्रयोग है। पाठक को गंभीरता और रसिकता के साथ वे शुरु से अंत तक बांधे ही नहीं रखते बल्कि पाठक स्वयं को गुलज़ार और यशवंत व्यास के साथ एकाकार हुआ महसूस करता है। जब किताब पढ़ना शुरु करता है तो उसे अंत तक पढ़ता ही चला जाता है।
मशहूर शायर और फिल्मकार गुलज़ार का घर। बेटी बोसकी के नाम पर अपना पाए 'बोसकीयाना' का मतलब गुलज़ार के अनगिनत चाहनेवालों के लिए उस मरकज़ की तरह है जिसकी ऊष्मा से वे हर पल अपने-आपको और अमीर बनाते रहते हैं। ये सब जिस शख़्स से है, उसका अपना फ़लसफ़ा क्या है? उनसे ये बातें यहीं हुई हैं और जो बातें अगर यहाँ-वहाँ हुई हैं तो उनकी तस्दीक भी यहीं-कहीं हुई है।
बोसकीयाना के लेखन में व्यास की लेखनी अपने लेखन का कमाल दिखाने में इसलिए सफल रही है कि दोनों का संबंध करीब तीन दशक का है। दोनों लेखन कला के विद्वान हैं तथा अधिकांश चीज़ों को समान दृष्टिकोण से परखने और उद्घाटित करने वाले हैं। यशवंत व्यास गुलज़ार तत्व के अन्वेषी रहे हैं। वे उस लय को पकड़ पाते हैं जिसमें गुलज़ार विचरण करते हैं और रचते हैं। इस पुस्तक की लंबी बातचीत में उन्हीं के शब्दों में कहें तो 'गुलज़ार से नहाकर निकलते हैं।'
पुस्तक में व्यास और गुलज़ार के वार्तालाप में गुलज़ार की जीवन कथा, उनके बचपन, भले-बुरे वक्त, गैराज से शुरु हुए फिल्मी सफर, उनकी शायरी, फिल्मी करियर और विभिन्न अदाकारी बिम्बों को गुलज़ार करने वाले व्यक्तित्व पर बहुत सटीक तथा गंभीर जानकारी मिलती है।
गुलज़ार से बातें...'माचिस' के, 'हू-तू' के, 'ख़ुशबू', 'मीरा' और 'आँधी' के बहुरंगी लेकिन सादा गुलज़ार से बातें...फ़िल्मों में अहसास को एक किरदार की तरह उतारनेवाले और गीतों-नज़्मों में ज़िंदगी के जटिल सीधेपन को अपनी विलक्षण उपमाओं और बिम्बों में खोलनेवाले गुलज़ार से उनकी फ़िल्मों, उनकी शायरी, उनकी कहानियों और उस मुअम्मे के बारे में बातें जिसे गुलज़ार कहा जाता है।
उनके रहन-सहन, उनके घर, उनकी पसंद-नापसंद और वे इस दुनिया को कैसे देखते हैं और कैसे देखना चाहते हैं, इस पर बातें...
यह बातों का एक लम्बा सिलसिला है जो एक मुलायम आबोहवा में हमें समूचे गुलज़ार से रू-ब-रू कराता है।
यशवंत व्यास गुलज़ार-तत्त्व के अन्वेषी रहे हैं। वे उस लय को पकड़ पाते हैं जिसमें गुलज़ार रहते और रचते हैं। इस लम्बी बातचीत से आप उनके ही शब्दों में कहें तो 'गुलज़ार से नहाकर' निकलते हैं।
गुलज़ार एक जगह कहते हैं -'फिल्में थॉट्स को, विचारों को, अनुभूति को और दृष्टिकोण को प्रकट करने का माध्यम मुहैया कराती हैं। इस मीडियम में दिलो दिमाग को झकझोरने की ताकत है। यह मस्तिष्क को हिला सकता है और आत्मा को छू सकता है। यही वजह है कि मैं वही फिल्में करता हूं, जिनमें मैं यकीन करता हूं।'
लेखक के शब्दों में -'गुलज़ार से मिलो तो ऐसा लगता है जैसे उनके पास तो अपनी बनाई एक कश्ती थी, दरिया भी था, लोगों के डर चाहें जो हों, उन्होंने मज़े में अपनी कश्ती को अपनी तरह चलाने में रस पाया, एक भी टीस का जिक्र नहीं, दूसरे की पीठ खोजता कोई गुस्से का चाबुक नहीं, कोई दर्दों का इज़हार नहीं, अहम् का तरकश नहीं, अफसोस के तीर नहीं।'